Rajasthan Diwas “राजस्थान दिवस” Hindi Nibandh, Essay for Class 9, 10 and 12 Students.
राजस्थान दिवस (Rajasthan Diwas)
प्रत्येक वर्ष 30 मार्च को पूरे राजस्थान प्रदेश में ‘राजस्थान दिवस’ मनाया जाता है। इसके बारे में महत्त्वपूर्ण जानकारी इस प्रकार है-
राजस्थान का ऐतिहासिक परिचय (Historical introduction of Rajasthan)
यह कहानी उस राजस्थान की है जिसका नाम लेते ही खड़कते खांडे बिजलियों की तरह कौंध उठते हैं और घाटियों, पठारों को गुंजाती हुई घोड़ों की टापें मेघ गर्जन सा करने लगती हैं। जहाँ धधकती अग्नि की ज्वालाओं में सर्वस्व का होम करने वाली अखण्ड सौभाग्यवती पद्मिनियाँ और केसरिया कसूमल परिधानों वाले, गले में तुलसी की माला तथा शीश पर शालिग्राम धारण किए, मातृभूमि की रक्षा में प्राणोत्सर्ग करते हुए जुझार साक्षात् वीरता की प्रतिमूर्ति प्रतीत होते हैं। यही भूमि है उन सतियों-जुझारों की, धन-कुबेरों लक्ष्मीपतियों की, पण्डितों-तपस्वियों की तथा उन करोड़ों भूमिपुत्रों की, जिन्होंने इस माटी को चंदन का स्तर दिया और सुनहरी बालू के कण-कण को ओज, ऊर्जा, श्रम और त्याग का प्रतीक बना दिया।
परिभाषा की परिवर्तनशील प्रकृति से हर युग अपना नया अर्थ ग्रहण करता है। ‘राजस्थान’ या ‘राज्यस्थान’ शब्द कभी राजधानी के रूप में: प्रयुक्त होता था, जिसे राजस्थान के नए महाभारत के प्रणेता कर्नल जेम्स टॉड ने अपने ‘एनाल्स एण्ड एण्टीक्विटीज ऑफ राजस्थान’ नामक विश्व प्रसिद्ध ग्रन्थ में प्रदेशवाची बनाकर प्रस्तुत किया। टॉड का आशय रजवाड़ों की भूमि से ही था जिसमें अजमेर को छोड़कर सर्वत्र देशी रियासतों का ही राज्य था। आज हम उस परिभाषा को थोड़ा और प्रगतिशील बनाते हुए ‘स्थानों का राजा’ अर्थात् श्रेष्ठ स्थान के रूप में ‘राजस्थान’ पर गर्व करते हैं। ऐसा करते हुए हम अपनी परम्परा को भी अक्षुण्ण बनाए हुए हैं और नए अर्थ को भी जन्म दे रहे हैं।
राजस्थान के विभिन्न क्षेत्रों को प्राचीन ग्रंथों तथा अभिलेखों में अनेक नामों से अभिहित किया गया है। कई नाम इसकी भौगोलिक विशेषताओं के कारण हैं, जबकि अनेक उन जातियों के नाम से जाने गए हैं जिन्होंने समय-समय पर उन पर आधिपत्य जमाया। सर्वाधिक प्राचीन नामों में मरु, धन्व, जांगल, मत्स्य, शूरसेन और साल्व हैं जिनका वर्णन ठेठ ऋग्वेद से प्राप्त होने लगता है। मरु और धन्व प्रायः समानार्थक शब्द हैं जो जोधपुर संभाग के लिए विशेष तौर पर काम लिए जाते हैं। ‘जांगल’ वह क्षेत्र था, जिसमें खुले आकाश के नीचे शमी, कैर, पीलू जैसे वृक्ष हों। आधुनिक बीकानेर का क्षेत्र इस नाम से जाना जाता था जहाँ ‘जांगलू’ नामक प्राचीन समृद्ध नगर है और जहाँ के शासकों को ‘जांगलधर बादशाह’ कहा जाता था। ऐसा अनुमानित है कि यह प्रदेश कौरवों के पैतृक राज्य का ही एक अंग था।
मत्स्य की राजधानी महाभारतकालीन विराटनगर थी। राजा विराट इसके शासक थे और इसका क्षेत्र आधुनिक जयपुर, अलवर तथा भरतपुर के भागों में रहा था। अलवर के ब्रज से सटे क्षेत्र में ही शूरसेन रहते थे। साल्वों की अनेक शाखाएँ-साल्वायवय, तथा भरतपुर उदुम्बर, तिलखल, युगन्धर, भद्रकार, भूलिंग तथा शरदण्ड थीं। इनका विस्तार अम्बाला के पास जगाधारी और गंगानगर में ‘भादरा’ तक था। यूनानियों द्वारा पंजाब से खदेड़े जाने पर शिवि लोग चित्तौड़ के पास ‘नगरी’ में आकर बसे। भादानकों का स्थान भरतपुर में बयाना था। मालव भी पंजाब से खदेड़े जाकर जयपुर में उनियारा के पास कर्कोटक नगर में जमे और फिर मालवा में जा सके थे जो उन्हीं के नाम से ज्ञात है। इन्होंने शकों को पराजित किया तथा कृत् संवत् भी प्रारम्भ किया। यौधेय हरियाणा में थे पर बीकानेर के पंजाब से लगते भाग में फैले मुसलमान जोईए उन्हीं के वंशज हैं। गुजरों की राजधानी ‘भीनमाल’ जालौर जिले में है, पर गुर्जर क्षेत्र जोधपुर तथा जयपुर मण्डलों में भी था। डीडवाना कस्बा ‘गुर्जरत्रा’ में ही था। मेदपाट, जो आधुनिक मेवाड़ है कभी ‘मेद’ या ‘मेड’ जाति के नाम से जाना जाता था। ‘वल्ल’, ‘त्रिवेणी’ और ‘माड’ जैसलमेर के आस-पास की भूमि है। ‘माड’ के नाम से ही ‘मांड’ रागिनी चली। ‘मंड’ नामक जाति को अरब आक्रामकों ने सिंध के समुद्र तट से मरुभूमि की ओर धकेल दिया था। उसी जाति ने जैसलमेर को ‘माड’ नाम दिया।
वर्तमान डूंगरपुर-बांसवाड़ा जिलों का क्षेत्र वागड़ कहलाता था। सीकर से लेकर सांभर तक का क्षेत्र कभी ‘अनंत’ या ‘अनंतगोचर’ कहलाता था और सांभर-नागौर आदि का चौहान शासित प्रदेश ‘सवालख’। गाँवों की संख्या के अनुसार क्षेत्रों के नाम रखने की परम्परा चलती थी। चौरासी, छप्पन (मेवाड़ के पहाड़), नवसहस्र (मारवाड़), दस सहस्र (मेवाड़), सप्तशत (नाडोल) आदि ऐसे ही नाम हैं जो बदलते रहे हैं। स्कंदपुराण, पद्मपुराणादि में राजस्थान के ऐसे प्राचीन नामों का वर्णन किया गया है।
राजस्थान प्रदेश का वर्तमान स्वरूप (Current form of Rajasthan state)
राजस्थान प्रदेश अपने वर्तमान स्वरूप में 01 नवम्बर, 1956 को अस्तित्व में आया। इसके पूर्व यह अनेक देशी रियासतों व ठिकानों में विभक्त था। इस प्रदेश का इतिहास अति प्राचीन है और भारतीय इतिहास में इसका अपना विशिष्ट स्थान है। प्राचीनकाल में आर्य जातियाँ यहाँ आई और बस गईं। श्रीगंगानगर जिले में स्थित कालीबंगा में सिन्धु घाटी की सभ्यता के अवशेष प्राप्त हुए हैं जिससे यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि यह सभ्यता इस क्षेत्र में फैली हुई थी।
इसी प्रकार उदयपुर के समीप आहड़ में खुदाई से आहड़ नदी की सभ्यता भी प्रकाश में आई है। इतिहासकार इस सभ्यता को 4000 वर्ष पुरानी मानते हैं। जोधपुर, बीकानेर जैसलमेर आदि के प्राचीन अवशेष भी यहाँ की पुरानी सभ्यता की ओर संकेत देते हैं। और यह सिद्ध करते हैं कि यह सभ्यता अति प्राचीन तथा विकसित थी, जयपुर के समीप विराटनगर (बैराठ) में महाभारत काल के अवशेष प्राप्त हुए हैं, जो इसकी प्राचीनता को प्रमाणित करते हैं।
उपर्युक्त खुदाइयों ने यह सिद्ध कर दिया है कि इस प्रदेश में अति प्राचीनकाल से विकसित सभ्यता थी। यह सम्भव है कि उस समय यह मरुभूमि न रही हो और सभ्यता के विकास के लिए यह उपयुक्त स्थान रहा हो। तत्कालीन लोगों को भवन निर्माण, सड़क निर्माण, सड़क के किनारे नालियों का निर्माण, मिट्टी के कलात्मक बर्तन, शस्त्र निर्माण आदि का ज्ञान था। सम्भवतः आर्य सभ्यता यहाँ इन सभ्यताओं के पश्चात् ही विकसित हुई। यहाँ ब्राह्मण संस्कृति के उपरान्त जनपद युग प्रारम्भ हुआ। इस काल में मालव, शिवि, शाल्व, यौधेय आदि जातियाँ निवास करने लगी। कुशाण साम्राज्य में भी इस क्षेत्र का भाग सम्मिलित था। गुप्तकालीन शासकों ने भी इस क्षेत्र के कुछ भागों पर अपना आधिपत्य स्थापित किया था। हूण जाति के आक्रमण का सामना भी इस क्षेत्र के निवासियों को करना पड़ा। इस प्रकार इस क्षेत्र में अनेक जातियाँ आई और बस गईं।
सम्राट हर्ष के उपरान्त राजपूत शासकों के यहाँ छोटे-छोटे राज्यों का युग प्रारम्भ हुआ। ये शासक सर्वोच्चता की प्राप्ति के लिए निरन्तर संघर्षरत रहते थे। परिणाम यह हुआ कि पारस्परिकं युद्धों में उनकी शक्ति क्षीण होने लगी। राजपूतों का अन्तिम प्रमुख शासक पृथ्वीराज चौहान था। राजपूत शासकों में आपस में इतनी ईर्ष्या थी कि जयचन्द ने मुहम्मद गौरी को भारत पर आक्रमण करने के लिए आमंत्रित किया। जयचन्द का विश्वास था कि मुहम्मद गौरी पृथ्वीराज को पराजित करके वापिस चला जाएगा, किन्तु उसका अनुमा ठीक नहीं निकला और स्वयं जयचन्द भी अगले वर्ष गौरी के हाथों पराजित हुआ। इस प्रकार भारत में मुसलमानों का शासन प्रारम्भ हुआ।
दिल्ली के सल्तनत काल के उपरान्त मुगलों का राज्य भारत में स्थापित हुआ। मुगल सम्राट अकबर दूरदर्शी था। वह महत्त्वाकांक्षी भी था। उसने समझ लिया था कि वह राजपूतों से अच्छा व्यवहार करके अपने साम्राज्य में वृद्धि कर सकता है। अतः उसने राजपूतों की ओर मित्रता का हाथ बढ़ाया। उसने राजपूतों की मर्यादा को बनाये रखा और उनसे वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित किए। राजपूत शासकों के राज्य भी उन्हीं के पास रहने दिए। इनमें सिसोदिया वंश के राणा प्रताप ने अकबर की अधीनता कभी स्वीकार नहीं की। जहाँगीर व शाहजहाँ ने भी अकबर की नीति का ही अनुसरण किया।
इसमें किंचित् भी सन्देह नहीं कि राजपूतों ने मुगल साम्राज्य को विस्तृत बनाया था। राजपूत शासक जो ‘सेना में उच्च स्तरीय मनसबदार थे, वे मुगल साम्राज्य की आधारशिला मुगल थे। औरंगजेब ने अकबर की नीति को त्याग दिया और उसने राजपूतों को अपने विरुद्ध बना लिया। परिणाम यह हुआ कि मुगल साम्राज्य छिन्न-भिन्न हो गया। राजपूतों ने अपने महत्त्व को सिद्ध कर दिया।
राजस्थान प्रदेश का राजनीतिक स्वरूप (Political form of Rajasthan state)
ब्रिटिश काल में भी इस क्षेत्र के शासकों को अंग्रेजों ने अपने अधीनस्थ शासक ही बना रहने दिया। इसी काल में इस क्षेत्र को राजपूताना कहा जाने लगा या कुछ इसे रजवाड़ा भी कहते थे।
स्वतन्त्रता प्राप्ति के समय इस क्षेत्र में 18 देशी रियासतें व कुछ ठिकाने थे जो इस प्रकार थे-
रियासतें (Princely states)
अलवर, बीकानेर, बांसवाड़ा, कोटा, बून्दी, डूंगरपुर, जैसलमेर, जयपुर, जोधपुर, झालावाड, उदयपुर, प्रतापगढ़, सिरोही, किशनगढ़, करौली, टोंक, भरतपुर व धौलपुर।