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Mele ka Varnan “मेले का वर्णन ” Complete Hindi Essay, Paragraph, Speech for Class 9, 10, 12 Students.

मेले का वर्णन 

मेले हमारी सांस्कृतिक एकता के प्रतीक हैं। मेले प्रायः पवित्र नदियों के किनारे भरते हैं। गंगा, यमुना, नर्मदा, क्षिप्रा आदि पवित्र नदियाँ मानी गई हैं। जनश्रुति है कि विशिष्ट अवसरों पर जो लोग इन नदियों में स्नान करते हैं, उन्हें पुण्य लाभ होता है।

देश के केन्द्र में अवस्थित जबलपुर नगर के किनारे से नर्मदा नदी बहती है। इसी नदी पर एक जल-प्रपात है, जिसे धुआँधार के नाम से जाना जाता है। जिस स्थान पर यह जल-प्रपात है, उसे भेड़ाघाट के नाम से प्रसिद्धि प्राप्त है। प्राचीन कथाओं के आधार पर इसी क्षेत्र में ऋषि भृगु ने तपस्या की थी, उन्हीं के नाम पर भेड़ाघाट नाम पड़ा है।

कार्तिक माह की पूर्णिमा के दूसरे दिन यहाँ मेला भरता है। यह मेला एक लम्बी परम्परा से भरता आ रहा है। हमारे देश में मेला जैसे कार्यक्रमों का अपना महत्व है। मेला का अर्थ होता है, जहाँ बड़ी संख्या में स्त्री-पुरुष एकत्र हों। स्त्री-पुरुषों का एकत्रीकरण ही न हो, बल्कि उनकी भावनाओं, आस्था और लोक कला का सम्मिलन भी ऐसी जगहों पर हो। इस उद्देश्य से ‘लोक’ ने मेला की परम्परा बनाई।

एक बार हम कुछ मित्रों ने इस मेले का भ्रमण करने की योजना बनाई और मेला घूमने निकल पड़े। भेड़ाघाट के मेले की तैयारियाँ बहुत पहले से ही आरम्भ हो जाती हैं। तरह-तरह की दूकानें सजने लगती हैं; मनोरंजन के साधन जुट जाते हैं; खेलकूद के कार्यक्रमों के प्राचीन और नये रूप देखने को मिलते हैं। तरह-तरह की मिठाईयाँ, खान-पान सामग्री, बच्चों के खिलौने, चकरी, भौरे, गुड्डे-गुड़ियाँ, सौंदर्यप्रसाधन आदि सामग्री की दूकानें प्रमुखता से लगती हैं।

यहाँ आधुनिक सौंदर्य-सामग्री से लेकर पारम्परिक सौंदर्य-सामग्री की झलक देखने को मिलती है। ग्रामीणों में मेले के प्रति विशेष उत्साह रहता है क्योंकि ग्रामीण जीवन-शैली में आनंद-उत्सव के कम ही अवसर आते हैं और मनोरंजन के गिने-चुने साधन ही उन्हें उपलब्ध होते हैं।

भेड़ाघाट के मेले में ग्रामीण कला-कौशल को भी अवसर प्राप्त होता है। हाथ से बनी कलात्मक वस्तुएँ देखते बनती हैं। खासतौर पर बर्तन, सूपे, टोकने, मूर्तियाँ और सजावटी सामान अत्यंत लुभावन होता है।

हमें ऐसे मेला आयोजनों में अवश्य जाना चाहिये क्योंकि इन्हीं के माध्यम से हमें अपने देश की वास्तविक तस्वीर देखने को मिलती है। यहाँ विदेशों के फैशन की नकल नहीं दिखाई देती. बल्कि भारतीय ग्रामों का लोक-स्वरूप अपने सहज रूप में दिखाई देता है।

रंग-बिरंगे वस्त्रों को धारण किये हुए स्त्री-पुरुष-बच्चे तड़क-भड़क बनाये हुए थे। भेड़ाघाट के तट से लेकर जलप्रपात तक असंख्य नर-नारी ही दिखाई देते थे। बच्चे पुंगियाँ बजाते और चकरियाँ चलाते हुए भाग-दौड़ कर रहे थे।

भेड़ाघाट जहाँ संगमरमर के पहाड़ों के लिये विख्यात है, वहीं वह साफ्ट स्टोन (गोरा पत्थर) के लिए भी जाना जाता है। स्थानीय कारीगर इन पत्थरों पर अपनी कला के नमूने उकेरते हैं, जिन्हें देखकर हर कोई दंग रह जाता है। पत्थर पर बनी पशु-पक्षियों की आकृतियाँ अत्यंत जीवंत लग रही थीं। फूल-पत्तियाँ भी सहज सुंदर ढंग से उकेरी गई थीं।

मेले के एक छोर से दूसरे छोर तक का भ्रमण करने के बाद हम थक भी गये थे और भूख भी लग चुकी थी। अतः हमने जल-पान गृह की ओर रुख किया और वहाँ नाश्ता किया। अब हम निकले ‘जल-प्रपात’ देखने।

संगमरमरी चट्टानों से दौड़ता हुआ पानी, ऊपर से आकर यहाँ गिर रहा था। एक सुरीला शोर तो पानी ने मचा ही रखा था, प्रपात की उड़ती हुई बूंदें और उठता हुआ धुआँ अपना अलग सौंदर्य रच रहा था। जहाँ पानी गिरता है, वहाँ नीचे गहरी खाई है, इसलिये सुरक्षा की दृष्टि से ऊपर रेलिंग बना दी गई है।

हम रेलिंग के पास खड़े होकर बहुत देर तक प्रपात के इस अनोखे रूप को देखते रहे। कुछ तैराक बच्चे, जो हमारी ही उम्र के रहे होंगे, रेलिंग के पास से कूदकर प्रपात की खाई में लोगों द्वारा फेंके पैसे निकाल कर ला रहे थे। लोगों में कौतुहल था और वे सिक्के फेंककर आनंद ले रहे थे। मुझे यह क्रूरतापूर्ण मनोरंजन लगा, जहाँ लोग दूसरों की जान जोखिम में डालकर खुशियाँ बटोर रहे थे।

प्रपात का प्राकृतिक सौंदर्य, मेले का मनोहारी रूप और उत्साह की तरंग ने जब तृप्त बना दिया, तो थकान अनुभव होने लगी और शाम की श्यामलता घिरते ही हमने लौटने का उपक्रम किया। यह मेला आँखों में आज भी घूमता रहता है।

यदि मेलों का आयोजन योजनाबद्ध तरीकों से नहीं किया जाता है, तो ये मेले अभिशाप बन जाते हैं। प्रदूषित जल एवं अस्वास्थ्यकर खाद्यान्न के कारण मेले संक्रामक रोगों के अड्डे बन जाते हैं। उचित व्यवस्था के अभाव में अराजक घटनाएँ मेले की पवित्रता को विकृत कर देती हैं।

यदि शासन और जनमानस मिलकर योजनाबद्ध तरीकों से मेलों का आयोजन करें तो ये मेले जन-जागृति की दृष्टि से वरदान सिद्ध हो सकते हैं।

 

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