Hindi Essay/Paragraph/Speech on “Sampradayikta ke Prabhav”, “साम्प्रदायिकता के प्रभाव” Complete Essay, Speech for Class 10, Class 12 and Graduation and other classes.
साम्प्रदायिकता के प्रभाव
Sampradayikta ke Prabhav
प्रस्तावना : विष यानि बुरा और हानिकारक, अमृत यानि अच्छा और लाभदायक। वास्तव में इस विश्व में अपनी अवधारणा और स्थिति में कोई भी वस्तु, व्यक्ति और स्थान आदि विष पौर स्थान आदि विष या अमृत कुछ भी नहीं हुआ करते। वह तो हमारी दृष्टि, सोच और व्यवहार ही है। जो किसी वस्तु को विष या अमृत अर्थात् अहितकर या हितकर बना दिया करता है। मनुष्य के भीतर देवता और राक्षस दोनों हर समय छिपे रहा करते हैं। उनमें से जब देवता जागकर प्रबल हो जाया करता है, तो चारों ओर अमृत की वर्षा होने लगती है। इसके विपरीत राक्षस भाव के प्रबल होकर जाग उठने पर अमृत भी विष का-सा प्रभाव उत्पन्न करने लगता है। साम्प्रदायिकता के सम्बन्ध में भी परम सत्य यही है।
साम्प्रदायिकता : मूल रूप : अपने वास्तविक रूप में सम्प्रदाय से साम्प्रदायिकता शब्द बना है। सम्प्रदाय का अर्थ है एक ही तरह की धारणाएँ और विश्वास रखने वाले लोगों का वर्ग या समूह। ये धारणाएँ और विश्वास धार्मिक, आध्यात्मिक, जातीय, राष्ट्रीय और राजनीतिक किसी भी तरह के हो सकती हैं। स्पष्टत: एक प्रकार की धारणाओं और विश्वासों वाले व्यक्तियों का एकजुट या संगठित होना कोई बुरी बात नहीं है; पर तभी कि जब ऐसा हो या करके किसी अन्य वर्ग की धारणाओं और विश्वासों को अपने से हीन मान कर उन्हें हानि पहुँचाने की प्रत्यक्ष या परोक्ष चेष्टा न की जाए। जब विभिन्न सम्प्रदायों की नींव रखी गई थी, तब यही बात स्पष्ट थी। धार्मिक, आध्यात्मिक एवं जातीय स्तर पर संगठित होकर लोग एक सम्प्रदाय कहलाने लगते और अपने विश्वासों-धारणाओं के अनुरूप वैयक्तिक-सामूहिक कार्य किया करते । इस प्रकार एक नहीं, विश्व-रंगमंच पर समय-समय पर अनेक सम्प्रदायों का उदय-अस्त होता रहा।
साम्प्रदायिक विकृतियाँ : जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है, विभिन्न सम्प्रदायों के अस्तित्व में आ जाने पर भी आरम्भ में उनके प्रभाव मानव-जाति के लिए अमृत-फल वाले ही हुए; किन्तु बाद में मुख्यत: दो कारणों से सम्प्रदायों में वह बात आती गई, जिसे आज साम्प्रदायिकता कहा और इस रूप में एक घृणित वस्तु माना जाने लगा है यानि सम्प्रदाय। अपने मूल लक्ष्यों से भ्रष्ट होकर तरह-तरह की विकृतियों के शिकार होते गए। पहला कारण था अपने वर्ग या सम्प्रदाय को श्रेष्ठ, सत्यनिष्ठ एवं उच्च मान कर दूसरों को हीन, सत्यभ्रष्ट एवं निम्न मानने की प्रवृत्ति । इस प्रवृत्ति ने साम्प्रदायिकता के घृणित रूप और साम्प्रदायिक संघर्षों की नींव डाली। दूसरे, जब किसी सम्प्रदाय-विशेष का राजा और राज्य विशेष से सम्बन्ध हो गया, तब धीरे-धीरे वह सम्प्रदाय अपने आप को शासक मानने के अहं से पीड़ित होकर अन्य पर शासन करने, उन्हें भी अपने रंग में रंगने की हीन ग्रन्थि से प्रपीडित हो उठा। उस पर जब किसी विदेशी शासक ने तलवार के बल पर किसी अन्य देश की शासन-सत्ता पर अपना अधिकार जमा लिया, तब तो उससे सम्बद्ध सम्प्रदाय साम्प्रदायिकता की अच्छी एवं उन्नत भावना एक हीन और विषैली भावना बनती गई। इस प्रकार अपने मूल स्वरूप एवं अर्थ से भ्रष्ट होकर सम्प्रदाय महज एक विकृति बनकर रह गया। इसके दुष्परिणाम अक्सर सामने आते रहते हैं।
दुष्परिणाम : विकारग्रस्त सम्प्रदायों की साम्प्रदायिकता का सबसे पहला दुष्परिणाम यह रेखांकित किया जा सकता है कि इसने मानवता के बीच अविश्वास और घृणा की दीवारें खड़ी कर दी हैं। दूसरे सम्प्रदायों को अपनी मानव-हित-साधन की उच्च अवधारणाओं से भ्रष्ट कर दिया है। तीसरे हिंसक वृत्तियों को निरन्तर प्रश्रय दिया गया और आज भी दिया जा रहा है। आगजनी, मार-काट, लूट-पाट और हत्या आदि के रूप में इसके विषैले परिणाम अक्सर सामने आते रहते हैं। साम्प्रदायिकता की भावना लोगों की आस्थाओं का विस्थापन करके उन्हें राष्ट्रद्रोही तक बना दिया करती है। भारत में इस बात के प्रमाण भी अक्सर मिलते रहते हैं। पंजाब और काश्मीर आदि का उग्रवाद इसी से विघटित एवं विखण्डित हुआ है। इससे अन्ततोगत्वा सर्वाधिक हानि स्वयं सम्प्रदाय विशेष और उससे भी बढ़ कर मानवता को ही उठानी पड़ती है ।
उपसंहार : साम्प्रदायिता के मूल स्वरूप, आ गई विकृतियों और। सामने आने वाले उपर्यत एवं इसी प्रकार के दुष्परिणामों को जान लेने के बाद यह आवश्यक हो जाता है कि स्वयं अपने सम्प्रदाय, अपने देश और राष्ट्र, सारी मानवता के हित में इस पर तन-मन से अंकुश लगाया जाए। साम्प्रदायिकता के विष से अशान्त परिस्थितियों और वातावरण में कोई भी राष्ट्र वास्तविक प्रगति एवं विकास नहीं कर सकता। सम्प्रदाय विशेष और मानवता के पतन, बल्कि समूल नाश की शंका बनी रहा करती है। सो सम्प्रदाय, राष्ट्र और मानवता सभी की सुरक्षा का यह तकाजा है कि साम्प्रदायिकता की विष- बेल को बढ़ने न दें, जड़-मूल से उखाड़ फेंक दें। इसी में सभी का हित है।