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Hindi Essay, Paragraph, Speech on “Registan Ki Yatra”, “रेगिस्तान की यात्रा” Complete Essay 1500 Words for Class 9, 10, 12 Students.

रेगिस्तान की यात्रा

Registan Ki Yatra

 

भारत में हिमालय भी है और रेगिस्तान भी, रेत के टीले ही टोले हैं रोगिस्तान में। पानी को तरसता है रेगिस्तान। नदियों का नितांत अभाव है वहाँ, मीलों तक जनहित प्रदेश वर्षों से सोया पड़ा है। दिन में तपता रेगिस्तान रात में अत्यन्त मधर हो जाता है। तपते हुए तीबे रात को ठण्डे हो जाते हैं। नंगे पाँव उन पर चलते हुए अद्भुत सुकून मिलता है और मन में मरूभूमि का आन्तरिक-सौन्दर्य महक उठता है।

यह पत्र था-अम्बा बीठू का। उसने उसे आमन्त्रित किया था। दीपावली वह उसके साथ मनाए यह उसकी हार्दिक इच्छा थी। उसको पत्र की भाषा ने मोह लिया वह पत्र पढ़ रही थी

यहाँ पवन के पदचिन्ह देखे जा सकते हैं। यहाँ पवन को अपने आप से बातें करते हुए पकड़ा जा सकता है। पवन को जब गुस्सा आता है तब वह तेवर बदलकर आक्रामक रुख अपना लेती है और कभी-कभी तो घण्टों धूल-भरी आँधी चलती रहती है। जब बहत गरमी हो जाती है तब भी आँधी उठती है और कुछ देर बाद गर्म मौसम के बिगड़ालू रूप को हिम-सा मोम कर देती है और गरमी छूमन्तर हो जाती ह। यहाँ टीबे उड़ते हैं, यहाँ टीबे बनते हैं।

यही तो वह आकर्षण था जो उसे नदियों के इलाके से ठेठ रेगिस्तान में ले आया। सितम्बर जा रहा था। मौसम में कुछ-कुछ खुशनुमापन था। दिन गरम नहीं था। रात अवश्य कुछ ज्यादा ठण्डी थी वह रेल ही में धूल से साक्षात्कार कर चुकी थी। धूल ट्रेन में बह रही थी- नदी में उठती लहरों की तरह।

वह रात मैं कभी नहीं भूल सकूँगी। रात पूर्णिमा की थी। चाँद पूरी तरह ज्योत्सना बिखेर रहा था। हम पाँच जने (लोग) ऊँटों पर थे और शहर में बाहर मरूभमि के विस्तत मैदान की छवि का आनंद ले रहे थे। ऊँट धीमे-धीमे चल रहे थे। ऊँट की सवारी का यह पहला अवसर था। बड़ा मजा आ रहा था। मंद-मंद पवन बह रही थी। मन चंचल हो उठा था। हिचकोले खाते जा रहे थे हम। आँखों के सामने था रजत चाँदनी का अन्तहीन मैदान। शरीर में अदभुत गुदगुदी हो रही थी। जहाँ तक दृष्टि जाती थी बालू ही बालू दृष्टिगोचर हो रही थी। कभी स्वप्न में भी नहीं सोचा था कि ऐसा मनोरम हो सकता है रेगिस्तान।

चाँदनी रात में नौका-विहार से अधिक आनंद आ रहा था इस समय। मन में कविता फूट रही थी।

सन्नाटे में मरूभूमि का आन्तरिक मन

मुक्त पवन की मद्धिम-मद्धिम सरगम

दूर-दराज तक रजत के ढेर

औ मखमली एकान्त का वार्तालाप

महका रहा था अंग-अंग के आर्द्र प्राण।

हम बहुत दूर निकल आए थे। अब चारों ओर रजत चोटियाँ थीं और थी हिमानी धरती। हम लोग एक जगह उतरे। एक और तलहटी-सा था मैदान। बहुत नीचे था वह मैदान। डर लग रहा था नीचे देखते हुए। उसने पूछा “तुझे मरूभूमि में तैरना आता है।” “नही” मैंने कहने के साथ ही सिर हिला दिया था।

“मैं सिखलाए देती हूँ।” उसने उसका हाथ पकड़ कर बहुत प्यार से कहा, “वन-टू-श्री।” इसी के साथ मैं उसके साथ लुढ़क चली थी बहत तेजी से। मैं रपटे जा रही थी और ऊपर खड़े लोग ताली बजा रहे थे। जब मैंने नीचे पहुँचकर ऊपर देखा तब लगा कि मैं नीचे खड़ी मसूरी के कैम्टीफॉल को देख रही हूँ। कैसा गजब का अनुभव था वह।

वह मुझे देखकर मुस्कराए चली जा रही थी। कुछ रुककर बोली, हवा में तो पक्षी उड़ लेते हैं, पानी में पक्षी, पशु और इन्सान तीनों तैर लेते हैं परन्तु मरूभूमि पर केवल हम और तुम यानी हंस जैसे ही उड़ाने भर सकते हैं, ऊपर से नीचे आने के लिए।

कैसा रोमांचक था यह दृश्य! मेरा हृदय जोरों से धड़क रहा था। मैं ऊपर देखकर चकित थी। इस फिसलने में कितना आनंद आया था। हो! वह कैसी विचित्र अनुभूति थी।

रेत पर सब बैठ चुके थे जब हम लोग ऊपर आए। उसकी मम्मी बता रही थीं, चाँदनी रात में मरूभूमि का आनंद और उस सरस आनंद के साथ खीर का अपना स्वाद है। समय रात्रि के बारह का हो रहा था। मैं चौंक पडी। मैंने पूछा, “यह सब?”

“आज की रात रेगिस्तान के नाम।” वह चहक उठी, “आज यहीं रहेंगे। सुबह तड़के लौट चलेंगे। क्यों, रहेगा न आनंद।”

“वाकई रहेगा।” मेरा मन उछलकर बोला।

“इसलिए तुम्हें अपने रेगिस्तान में बुला रही थी। वह देखो मरू का मनचला मनमोहक अनगढ़ और अनढका सौन्दर्य। वे चाँदनी की पर्वत श्रृंखलाएँ हैं और मन चूमता आकाश उनके साथ महक रहा है।”

उसने मचलते हुए स्वर में कहा।

“अब जाना कि रेगिस्तान में इतनी उर्वर कल्पनाएँ कहाँ से उपजती हैं। कहाँ से आकाश छूने की तमन्नाएं जोर मारती हैं। सचमुच सखि, आनंद आ गया।” मैंने कहा।

“अच्छा, अब खीर खा लो।’ उसकी माँ की आवाज थी। हम लौट पड़े थे स्वप्न लिए प्यार से, झूमते हुए। हमारे चारों ओर रजत ज्योत्सना थी नवचंचला-सी मदमाती और मुस्कान बिखेरती सुबह लौटे। कई दिन मन ही मन मरूभूमि की अद्भुत झाँकी लेते रहे। अब तो रेगिस्तान भी हरा हो रहा था। इंदिरा नहर का जादूमय के प्राणों में संगीत बन झूम रहा था-सावन के प्रथम मेघशावक-सा।

चलते समय मैंने कहा था, “ओह! यह है तुम्हारा रेगिस्तान। सम्मोहन-भरा और जादू-भरा मोहक स्थान, सदा याद रहेगा, इन प्राणों का अमरसंगीत। तपते दिन की ठण्डी रातों का अपना कमाल।” गाड़ी खिसकने लगी थी। विदाइ की बेला शुरू हो गई थी, चुपचाप महक बिखेरती हुई। अपलक देख रहा था तन-मन को बाँधने वाला मरू का प्राण। “जय मरूभूमि, तुझे सत्-सत् बार प्रणाम”।

मेरे अंतर्मन ने कहा।

गाड़ी ने रफ़्तार पकड़ ली थी। मैं अपनी जगह पर आकर बैठ गई थी गुमसुम। मरूभूमि की अनेक कल्पनाएं मेरे में मचल रही थीं प्रकृति के विविधा रूप के बारे में मैं सोचे जा रही थी। रेत के आँचल से निकलकर सबह तक हम पत्थरनुमा शहर में पहुंच जाएगें, फिर से हम पत्थर होने लगेंगे। मरू की प्राण-ऊर्जा नहीं रह पाएगी। स्वप्न और कल्पना भी कठोर से कठोरतम होती जाएगी। ओह!

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