Hindi Essay, Paragraph, Speech on “Rail ke Anarakshit Dibbe me Yatra” , “रेल के अनारक्षित डिब्बे में यात्रा” Complete Essay for Class 10, Class 12 and Graduation Classes.
रेल के अनारक्षित डिब्बे में यात्रा
Rail ke Anarakshit Dibbe me Yatra
यात्रा का प्रयोजन–मुझे अपने मित्र के विवाह में दिल्ली से भोपाल जाना था। विवाह अचानक तय हुआ। अतः निमंत्रण भी अचानक मिला। मित्र बहुत ही प्रिय था। इसलिए विवाह पर जाना निश्चित हो गया। मैंने बहुत कोशिशु की कि रेलगाड़ी में टिकट आरक्षित हो जाए। परंतु टिकट मेरी किस्मत में नहीं थी। ‘तत्काल’ में भी टिकट नहीं मिल पाई। सो मुझे जनरल डिब्बे में ही यात्रा करनी पड़ी।
बाहर के दृश्य–मैंने रेलवे स्टेशन की खिड़की से कैसे टिकट प्राप्त की, यह अपने आप में एक किस्सा है। जैसे-तैसे टिकट लेकर मैं रेल-डिब्बे तक पहुँचा। डिब्बे के अंदर घुसने का प्रयास किया तो लगा कि आगे घमासान संघर्ष का सामना करना पड़ेगा। लोग दरवाजे के बाहर तक लटके हुए थे। पायदान पर भी यात्री बैठे या खड़े थे। मुझे कोई भी रास्ता देने के लिए तैयार नहीं हुआ। जब मैंने उनसे रास्ता देने की प्रार्थना की तो कोई टस से मस नहीं हुआ। मैं परेशान होकर किसी और डिब्बे की ओर देखने लगा। इतने में एक और यात्री दौड़ता हुआ डिब्बे की ओर लपका। अब मेरी हिम्मत बढ़ी। मैंने यात्रियों को धकेलते हुए पैर रखने के लिए जगह बनाई और पायदान पर चढ़ गया। अंदर का नज़ारा बड़ा खौफनाक था। रास्ते में कुछ बोरियाँ और टोकरियाँ रखी थीं। उनके कारण अंदर पैर रखने की भी जगह नहीं थी। मेरे लिए साँस लेना भी दूभर होने लगा। स्थिति यह आ पहँची कि मेरा एक पैर जमीन पर या किसी के पैर पर था और दूसरा पैर हवा में था। उसे रखने के लिए जमीन खाली नहीं थी।
भीतर का दृश्य–मैं सोचने लगा कि गाड़ी से उतरूँ या यहीं जगह बनाऊँ। इतने में गाड़ी चल दी। मेरा पैर अभी भी अधटिका था। पता नहीं किसने किसे धक्का दिया कि मेरे पैर को टिकने के लिए जगह बन गई। मैं देख रहा था कि बाहर अभा भी यात्री लटके खड़े थे। प्लेटफार्म खचाखच भरे थे। बाहर देखकर भी साँस उखड़ती थी। अभी मैं सँभलने लगा था कि कोई प्लेटफार्म आ गया। बाप रे! हजारों की भीड़ बाहर खड़ी थी। यात्री अंदर घुसने के लिए बेचैन थे। अंदर के यात्रियों में भी खलबली मचने लगी। मैंने सोचा कि अब क्या होगा। परंतु कुछ नहीं हुआ। कुछ यात्री उसमें और ठस गए। गाड़ी फिर चल दी। तिल रखने की भी जगह नहीं थी। परंतु देखता क्या हूँ कि एक यात्री अचानक उठा और आवाज़ लगाने लगा-‘केले ले लो’। मैं उसकी हिम्मत की दाद देता हूँ। कोई इतनी दमघोंटू भीड़ में भी माल बेच सकता है और कोई खरीद कर खा भी सकता है यह मेरे लिए आश्चर्य का विषय था। परंतु सब हुआ। लोगों की बातों से लग रहा था कि ऐसे तो हर रोज होता है। लोग इतनी भीड़ के अभ्यस्त हैं।
प्लेटफार्म के दृश्य–आगे एक बड़ा स्टेशन आया। बाहर फिर-से चहल-पहल दिखाई देने लगी। अब मेरा भय कुछ कम हुआ। एक यात्री उठकर बाहर चला गया। शायद उसका स्टेशन आ गया था। लोगों ने कछ राहत ली। अब मुझे अपना बैग टिकाने का औका मिल गया। मैंने देखा कि खिड़की के पास बैठे यात्री बाहर से खरीदकर पकौडे और चाय का सेवन कर रहे थे। उनके आस-पास के यात्री भी उनकी सहायता से खाने-पीने की सामग्री खरीद रहे थे। असली परेशानी तो तब हुई जब एक यात्री बाथरूम जाने के लिए उठा। उसके उठने से लगभग सबको परेशानी थी। आने-जाने का रास्ता बिलकल नहीं था। जैसे-तैसे लोगों ने उसे जाने की जगह दी, परंतु हँसी तो तब आई जब पता चला कि बाथरूम के अंदर भी तीन यात्री खड़े हैं। वे वहाँ न केवल आराम से थे बल्कि ताश भी खेल रहे थे। मैं उनके इस धैर्य और ताश-प्रेम पर वाह वाह कर उठा।
मैं मानता हूँ कि उस यात्रा में मुझे बहुत परेशानी हुई परंतु उसी के कारण मुझे मज़ा भी बहुत आया। जब भी में परेशान होता हूँ, मैं उस यात्रा को याद कर लेता हूँ। तब बड़े-से-बड़ा दुख भी कम लगने लगता है। नरक भी इससे अधिक दुखदायी तो नहीं होगा।