Hindi Essay, Paragraph, Speech on “Garmi ki Ek Dopahar”, “गर्मी की एक दोपहर” Complete Hindi Essay for Class 10, Class 12 and Graduation Classes.
गर्मी की एक दोपहर
Garmi ki Ek Dopahar
जून का महीना था। गर्मी चरम सीमा पर थी। ऐसी ही गर्मी की एक झुलसा देने वाली दोपहर थी। सूरज बुरी तरह तमतमा रहा था। धरती तवे की तरह जल रही थी। लू चल रही थी। घर से बाहर निकलना कठिन प्रतीत होता था। गर्मी सभी को झुलसा रही थी। मनुष्यों के साथ-साथ पुशु-पक्षी तथा पेड़-पौंधें भी गर्मी की मार झेलने को विवश थे। कहीं से भी हवा चलने का पता नहीं चलता था। लगता था, दोपहर भी गर्मी से डरकर कहीं छिपकर बैठ गई है।
बैठि रही अति सघन बन, पैठि सदन-तन माँह।
देखि दुपहरी जेठ की छाँहों चाहति छाँह।।
जेठ मास मंे पड़ रही गर्मी के कारण अपने घर मंे ही छिपकर रहती है। ऐसे में सघन वन में बैठने का मन होता है क्योंकि वहाँ धूप की तेजी नहीं होती। जेठ मास की दुपहरी को देखकर तो छाया भी किसी छाया की कामना करने लगती है। वह भी गर्मी की मार से बचना चाहती है।
भयंकर गर्मी का प्रभाव बिहारी ने इस दोहे में प्रकट किया हैः
कहलाने एकत बसत अहि मयूर, मृग बाघ।
जगतु तपोबन सौ कियौ दीरघ-दाघ निदाघ।।
कवि बताता है कि इतनी भयंकर गर्मी पड़ रही है कि सारा संसार ही तपोवन के समान हो गया है। (तपोवन में तप की गर्मी होती है।) इस गर्मी के कारण आपस के शत्रु भी शत्रुता भूलकर एक ही जगह बसते दिखाई दे रहे हैं जैसे- साँप और मोर (दोनों आपस में शत्रु हैं), मृग और बाघ (ये भी आपस में शत्रु हैं)। गर्मी की मार ने इनकी आपसी शत्रुता को भुला दिया है।
गर्मी की झुलसा देने वाली दोपहर की मार को झेलना कोई आसान काम नहीं है। इस तरह गर्मी में लू चलती है जो शरीर को बुरी तरह झुलसा देती है। लू लग जाए तो आदमी की हालत खराब हो जाती है। अच्छा यही होता है कि गर्मी की तेज दोपहर में घर में ही रहा जाए। पर कई बार काम इतना आवश्यक होता है कि घर से बाहर निकलना जरूरी हो जाता है। तब इस दोपहर की मार से बचने का उपाय करके ही बाहर निकलना चाहिए।
ऋतु चक्र में गर्मी का आना भी नितांत आवश्यक है और खेतों को इसकी आवश्यकता भी होती है। यह गर्मी मिट्टी को कीटाणुओं से मुक्त करती है। इसके बाद ही वर्षा ऋतु का आगमन होता है और फसलों की बुवाई होती है। अतः इस प्रकार का गर्मी का पड़ना जरूरी भी है।
गर्मी की मार झेलने के लिए हमें अपने शरीर को भी तैयार करना चाहिए। यदि हम ऐसा नहीं करते तो शरीर की सहनक्षमता भी घट जाती जाएगी। इसके बावजूद हमें झुलसा देने वाली गर्मी से बचना चाहिए। इससे चमड़ी तक झुलस जाती है और त्वाचा पर बुरा प्रभाव पड़ता है। अतः यदि बाहर निकलना जरूरी ही हो तो पूरे शरीर को ढक कर ही बाहर निकलना चाहिए।
गर्मी की झुलसा देने वाली दोपहर में विचित्र प्रकार के अनुभव होते हैं। शरीर से निरंतर पसीना बहता रहता है, तन-मन व्याकुल हो उठता है। आँखें बादलों की ओर लग जाती हैं। धरती जितनी तपती है, उसकी प्यास उतनी ही बढ़ती है। इसके बाद वर्षा भी उतनी ही तेज से आती है। इसके बाद गर्मी का कहर घट जाता है और तन-मन को असीम शांति का अनुभव होता है।