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Hindi Essay, Paragraph, Speech on “Bachpan ke vah Pyare din”, “बचपन के वहप्यारे दिन” Complete Hindi Essay for Class 10, Class 12 and Graduation Classes.

बचपन के वहप्यारे दिन

Bachpan ke vah Pyare din

                बचपन के वे प्यारे दिन जीवन भर याद रहते हैं। बचपन में साथ खेलने वाले बच्चों का एक-सा ही हाल हुआ करता था। सभी की हालत खस्ता थी। उन्हें, फटे-पुराने कपड़े पहनने को मिलते थे। इधर-उधर भागने पर बच्चे गिर पड़ते थे और उनके कपड़े तार-तार हो जाते थे। तब उनके हाथ-पैरों में चोट लग जाती थी। उनकी चोटें देखकर माँ-बाप, बहनें उन्हें और पीटते थे। इसके बावजूद वे बच्चे अगले दिन फिर खेलने चले जाते थे। मैं बच्चों के खेल-प्रेम को तब समझ पाया जब मैंने अध्यापक की टेªनिंग के दौरान बाल मनोविज्ञान को पढ़ा। सभी बच्चों की आदतें मिलती-जुलती थीं। उन दिनों बच्चे स्कूल में जाने में रूचि नहीं लेते थे। उनके माँ-बाप भी उन्हें जबरदस्ती स्कूल नहीं भेजते थे। असल बात तो यह थी कि वे बच्चांे की पढ़ाई को जरूरी नहीं समझते थे।

                बचपन के खेलने के दिन बड़ी जल्दी ही बीत गए। बचपन में घास अधिक हरी और फूलों की सुगंध अधिक अच्छी लगती है। लेखक के बचपन में स्कूल में उगे पौधों के फूलों की महक अभी तक याद है। तब स्कूल में शुरू के साल में एक डेढ़ महीना पढ़ाई हुआ करती थी। फिर डेढ़-दो साल महीने की छुट्टियाँ शुरू हो जाया करती थीं। लेखक हर साल माँ के साथ ननिहाल चला जाता। वहाँ नानी खूब दूध-दही, मक्खन खिलाती थी और प्यार करती थी। जिस साल ननिहाल न जा पाता उस साल घर से बाहर के तालाब में कूद कर नहाता था और बालक भी पानी में डुबकी लगाते, तैरते। कूदते समय उनके मुँह में गंदला पानी भर जाता था। जब छुट्टियाँ बीतने लगतीं तब बच्चे दिन गिनने लगते। तब डर के कारण खेल-कूद और तालाब में नहाना भी भूलने लगता। तब मास्टरों द्वारा दिया गया छुट्टियों का काम याद आने लगता। हिसाब के मास्टर कम से कम दो सवाल करने के लिए देते थे। उनके करने का हिसाब लगाते रहते। उन दिनों स्कूल जाना बहुत अच्छा नहीं लगता था, पर बाद मेें स्कूल का महत्त्व समझ में आ गया। बचपन के वे दिन पंख लगाकर न जाने कहाँ उड़ गए? अब तो सिर्फ उनकी याद ही बाकी है।

                बचपन के वे दिन खूब याद आते हैं जब में स्कूल जाया करता था। स्कूल के दिनों की याद बड़ी ही मोहक होती है। उसको याद करके ही मन प्रफुल्लित हो जाता है। बचपन की स्कूली शरारतें मन को गुदगुदा जाती हैं। उन दिनों मन में एक अजीब किस्म का उत्साह भरा रहता था। स्कूलों के दोस्तों से मिलने और उनसे ढेर सारी बातें करने का लोभ स्कूल की ओर खींच ले जाता था। बचपन में हम कक्षा में खूब शरारतें करते थे। कभी-कभी तो अपने अध्यापकों तक को नहीं बख्शते थे। उनकी खूब नकल उतारते थे। इसमें हमें खूब मजा आता था। कभी-कभी शरारत की पोल खुल जाती थी, तो सज़ा भी मिलती थी। तब यह भी अच्छा लगता था।

                बचपन चिंतामुक्त था। न भविष्य की चिंता न वर्तमान का डर। बस हर समय मस्ती छाई रहती थी। आगे चलकर तो हम इस प्रकार के बचपन के लिए तरसकर रह गए हैं। अब जीवन एक ढर्रे पर चलता रहता है। बार-बार याद आती है अपने प्यारे बचपन की। काश वह बचपन फिर से लौटकर आ पाता।

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