Hindi Essay on “Yudh aur Shanti” , ” युद्ध और शान्ति” Complete Hindi Essay for Class 10, Class 12 and Graduation and other classes.
युद्ध और शान्ति
Yudh aur Shanti
निबंध नंबर :- 01
मनुष्य को स्वभाव , कर्म व गुणों के आधार पर शान्तप्रकृति वाला प्राणी माना जाता है | यद्दपि प्रत्येक मनुष्य के हृदय के भीतरी भाग में कही –न- कही एक हिसक प्राणी भी छिपा रहता है | परन्तु मनुष्य का भरसक प्रयत्न रहता है कि वह भीतर का हिसक प्राणी किसी प्रकार भी जागे नही | यदि किसी कारणवश वह जाग पड़ता है तो तरह –तरह की संघर्षात्मक क्रिया – प्रक्रियाओं तथा प्रतिक्रियाओ का जन्म होने लगता है , तब उनके घर्षण तथा प्रत्याघर्षण से युद्धों की ज्वाला धधक उठती है | इस प्रकार के युद्ध यदि व्यक्ति या व्यक्तियों के मध्य होते है तो वे गुटीय या सांप्रदायिक झगड़े कहलाते है | परन्तु जब इस प्रकार के युद्ध दो देशो के मध्य हो जाते है तो वे कहलाते है | युद्ध |
सामान्य जीवन जीने के लिए तथा जीवन में स्वाभाविक गति से प्रगति एव विकास करने के लिए शान्ति का बना रहना अत्यन्त आवश्यक होता है | देश में संस्कृति , साहित्य तथा अन्य उपयोगी कलाएँ तभी विकास पा सकती है जब चारो वातावरण हो | देश में व्यापार की उन्नति व आर्थिक विकास भी शान्त वातावरण में ही संभव हो पाता है | सहस्त्र वर्षो के अथक प्रयत्न व् साधन से ज्ञान-विज्ञान , साहित्य – कला आदि का किया गया विकास युद्ध के एक ही झटके से मटिया –मेट हो जाता है | युद्ध के इस विकराल रूप को देखकर तथा इसके परिणामो से परिचित होने के कारण मनुष्य सदैव से इसका विरोध करता रहा है | युद्ध न होने देने के लिए मानव ने सदैव से प्रयत्न किए है | महाभारत का युद्ध होने से पहले श्रीकृष्ण भगवान स्वय शान्ति – दूत बनकर कौरव सभा में गए थे | आधुनिक युग में भी प्रथम विश्व युद्ध की समाप्ति के बाद ‘लीग-आफ-नेशन्स’ जैसी संस्था का गठन किया गया | परन्तु मानव की युद्ध –पिपासा भला शान्त हुई क्या ? अर्थात फिर दूसरा विश्व युद्ध हुआ | इसके बाद शान्ति की स्थापना के लिए संयुक्त राष्ट्र संघ (U.N.O) जैसी संस्था का गठन हुआ | परन्तु फिर भी युद्ध कभी रोके नही जा सके |
एक सत्य यह भी है कि कई बार शान्ति चाहते हुए भी राष्ट्रों को अपनी सार्वभौमिकता , स्वतंत्रता और स्वाभिमान की रक्षा के लिए युद्ध लड़ने पड़ते है | जैसे द्वापर युग में पाण्ड्वो को , त्रेता युग में श्रीराम को तथा आज के युग में भारत को लड़ने पड़े है | परन्तु यह तो निशिचत ही है कि किसी भी स्थिति में युद्ध अच्छी बात नही | इसके दुष्परिणाम पराजित व विजेता दोनों को भुगतने पड़ते है | अंत : मानव का प्रयत्न सदैव बना रहना चाहिए कि युद्ध न हो तथा शान्ति बनी रहे |
निबंध नंबर :- 02
युद्ध और शान्ति
Yudh aur Shanti
मनुष्य में पशुता और देवत्व दोनों हैं। दोनों एक-दूसरे पर विजय पाने के लिए संघर्षशील रहते हैं। प्रारम्भ में यह संघर्ष वैचारिक होता है, तब इसे द्वन्द्व कहा जाता है। जब यही संघर्ष बाह्म स्तर पर या दैहिक हो जाता है, तब इसे युद्ध की संज्ञा दी जाती है। मूलतः युद्ध पाश्विक प्रवृति का द्योतक है। इसके दुष्परिणामों से हम सब परिचित हैं। युद्ध से मुक्ति हेतु बुद्ध, महावीर, ईसा मसीह, महात्मा गांधी, मार्टिन लूथर किंग आदि चिन्तकों ने विश्व को अहिंसा का सन्देश दिया, पंचशील का सिद्धान्त आया, संयुक्त राष्ट्र संघ की स्थापना हुई। फिर भी युद्धों को टाला नहीं जा सका। आंकड़े बताते हैं कि पांच हजार वर्षों के लिखित इतिहास में करीब चैदह हजार युद्ध हुए हैं।
भारतीय संस्कृति ने भी दो धर्मयुद्धों को झेला है। एक लंका-युद्ध और दूसरा महाभारत युद्ध। इसके अलावा वर्तमान में हमारे देश को साम्राज्यवादी ताकतों के विरूद्ध सन् 1948, 1962, 1965, 1971 व 2001 के युद्ध लड़ने पड़े हैं। प्रथम विश्व युद्ध, द्वितीय विश्व युद्ध, वियतनाम युद्ध एवं अरब-इजरायल युद्ध, खाड़ी युद्ध, अफगान युद्ध, इराक युद्ध आदि विश्व के कुछ महत्वपूर्ण युद्धों के उदाहरण हैं। इसका अर्थ है कि युद्ध से पहले भी हुए थे और आज भी हो रहे हैं। युद्ध भविष्य में भी होंगे। सच पूछा जाए तो मनुष्य के लिए शायद युद्ध अपरिहार्य है।
युद्ध का सम्बन्ध मानव-मन से है। मानव-मन में जब तक विकार रहेंगे , तब तक युद्ध का टाला नहीं जा सकता। भले ही समय के साथ उसका रूप और स्तर बदला हुआ दिखाई पड़े। ईष्र्या, द्वेष, घृणा, शोषण, अत्याचार और साम्राज्यवादी लिप्सा युद्ध के कारण हैं। महाकवि दिनकर ’कुरूक्षेत्र’ में युद्ध के कारणों को दर्शाते हुए लिखते हैं-
युद्ध को तुम निंद्य कहते हो अगर,
जब तलक हैं उठ रही चिंगारियां,
भिन्न स्वार्थों के कुलिष संघर्ष की,
यु़द्ध तब तक विश्व में अनिवार्य है।
हमारे शास्त्रों ने भी समाज में न्याय और धर्म की स्थापना हेतु युद्ध की अनिवार्यता बतलाई है।
गीता में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं-
परित्राणाय साधूनां विनाश्य च दुष्कृताम्।
धर्म संस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे-युगे।।
युद्ध के परिणाम बहुत भयानक होते हैं। माताओं से उनके बच्चे छिन जाते हैं; युवतियों की मांग धुल जाती है। सर्वत्र मानव-चीत्कार सुनाई पड़ती है। मांस खाते हुए श्रृंगाल, चील और कौओं के हर्षगान सुनाई पड़ते हैं-
वायस श्रृंगाल सुख लूटेंगे,
सौभाग्य मनुज के फूटेंगे।
यह तो पुराने युद्धों का चित्रण है। वर्तमान काल में विज्ञान ने युद्ध को और भयानक बना दिया है। अणु बम, परमाणु बम, हाइड्रोजन बम, प्रक्षेपास्त्र आदि के आविष्कार से युद्ध की विध्वंसकता और बढ़ गई है। अब सारा संसार प्रलय की संभावना से भयभीत है। अब अगर विश्वयुद्ध हुए तो श्रृंगाल और कौओं के हर्षगान भी सुनाई नहीं पड़ेंगे। मानव ही नहीं अन्य चेतन प्राणियों का समूल विनाश हो जाएगा।
जो भी हो, युद्ध मानव जाति के लिए कलंक ही है। यह मानव जाति की एक ज्वलन्त समस्या है। हिरोशिमा और नागासाकी में मृत मानव-समुदाय के अस्थि- पंजर यह सोचने के लिए विवश कर देते हैं कि किसी भी समस्या का समाधान युद्ध से नहीं किया जाएगा। विशेषज्ञों का तो यहां तक कहना है कि इस वैज्ञानिक युग में विश्व-समुदाय को अगर तृतीय विश्वयुद्ध झेलना पड़ा तो सम्पूर्ण मानव-सृष्टि ही विनष्ट हो जाएगी। अतः वर्तमान परिप्रेक्ष्य में युद्ध को टालकर ही मानव-समुदाय को बचाया जा सकता है। यह तभी संभव है जब किसी भी समस्या युद्ध से नहीं, अपितु शांति से हो। इसके लिए बुद्ध, महावीर, ईसा और महात्मा गांधी के आदर्शों के अनुरूप समतावादी जीवन-दर्शन को अपनाना होगा।
दिनकर के शब्दों में-
श्रेय होगा मनुष्य का समता-विधायक ज्ञान,
सेह-सिंचित न्याय पर नव विश्व का निर्माण।
निबंध नंबर :- 02
युद्ध और शांति
Yudh aur Shanti
आज कई मामलों में सारी दुनिया में वैश्वीकरण को महत्त्व दिया जा रहा है। मतलब यह कि दुनिया कई मामले में एक मंच पर आ गई है। दुनिया के देश किसी न किसी संगठन के माध्यम से एक-दूसरे से जुड़ गए हैं, संबद्ध है और एक-दूसरे के साथ मधुर संबंध के आकांक्षी है, फिर भी वर्चस्व के मामले में युद्ध दबंग देशों के लिए सबसे आवश्यक चीज है। अपना दबदबा कायम करने के लिए विशेष रूप से युद्ध की नौबत आती है। युद्ध की नौबत आती है, तो जमीनी युद्ध की संभावना बहुत कम या नहीं होती होती है। आकाश से युद्ध लड़ा जाता है। हथियारों में परमाण हथियार प्रयुक्त होते हैं। जमकर लड़ाई हो और पागलपन युक्त लड़ाई हो, तो एकदूसरे देशों के बीच युद्ध में पूरी दुनिया शामिल हो जाए और परमाणु हथियारों का प्रयोग कर पूरी दुनिया को जला कर राख किया जा सकता है। वैसी परिणति के बाद कोई पूछने वाला नहीं कि युद्ध से तुम्हें क्या मिला? कौन किससे पूछेगा? न पूछने वाला रहेगा, न उत्तर देने वाला रहेगा। यह तो शांति का संदेश है। युद्ध अनिवार्य नहीं है, तब की बात है। लेकिन युद्ध अनिवार्य भी तो हो जाता है-
युद्ध को तुम बिंध कहते हो मगर,
जब तलक हैं उठ रही चिनगारियां
भिन्न स्वार्थों के कुलिष संघर्ष की
युद्ध तक विश्व में अनिवार्य है।
मनुष्य में पशुत्व और देवत्व दोनों हैं। दोनों एक-दूसरे पर विजय पाने के लिए संघर्षशील रहते हैं। प्रारंभ में यह संघर्ष वैचारिक होता है, तब इसे द्वंद्व कहा जाता है। जब यह युद्ध बाह्य स्तर पर या दैहिक हो जाता है तब इसे युद्ध की संज्ञा दी जाती है। मूलतः युद्ध पाश्विक प्रवृत्ति का द्योतक है। इसके दुष्परिणामों से हम सभी परिचित हैं। युद्ध से मुक्ति हेतु बुद्ध, महावीर, ईसा मसीह, महात्मा गांधी, किंग मार्टिन लूथर आदि चिंतकों ने विश्व को अहिंसा का संदेश दिया, पंचशील का सिद्धांत आया। संयुक्त राष्ट्र संघ की स्थापना हुई। फिर भी युद्धों को टाला नहीं जा सका। हमेशा से ही युद्ध होते रहे हैं। बीसवीं सदी में तो दो विश्व युद्ध हो चुके हैं। जिसकी विभीषिका विश्व अब तक झेल रहा है।
इन विभीषिका ने मनुष्य को अच्छा सबक सीखा दिया है। लाचार मनुष्य अब युद्ध को छोड़ शांति के प्रयास करने लगा है। परंतु भारत को पाक के साथ 1962, 1965, 1971, 1985 ई. में युद्ध लड़ने पड़े हैं। विश्व के कई हिस्सों में भी युद्ध चल रहे हैं।
युद्ध का संबंध मानव-मन से है। मानव मन जब तक विचार करते रहेंगे, तब तक युद्ध को टाला नहीं जा सकता। भले ही समय के साथ उसका रूप और स्तर बदलता हुआ दिखाई पड़े। ईर्ष्या, द्वेष, अत्याचार और साम्राज्यवादी युद्ध के कारण हैं। युद्ध के परिणाम बहुत भयानक होंगे। यदि भविष्य में युद्ध हुआ, तो समूल प्राणी जाति सहित पृथ्वी का विनाश हो जाएगा।
इसलिए युद्ध मानव जाति के लिए कलंक है। यह मानव जाति की एक ज्वलंत समस्या बन गई है। इसीलिए युद्ध के विकल्प शांति के प्रयास की खोज होनी चाहिए। हमें बुद्ध, महावीर, ईसा और गांधी द्वारा बताए आदर्शों को अपनाना होगा।
श्रेय होगा मनुज का समता-विधायक ज्ञान,
स्नेह सिंचित न्याय पर नव विश्व का निर्माण।
युद्ध पाशविकता है और शांति आत्मिक सुख है, शांति बाह्य वस्तु नहीं, वह अंदर ही निवास करती है। श्रद्धावान, ईश्वरपरायण, जितेंद्रिय पुरुष जान पाता है और ज्ञान पाकर परम शांति पाता है। क्योंकि,
जब त्याग-इच्छा-कामनाा जो जन विचारता नित्य ही।
मद और ममताहीन होकर, शांति पाता है वही ॥