Home » Languages » Hindi (Sr. Secondary) » Hindi Essay on “Vigyan Aur Dharam” , ”विज्ञान और धर्म ” Complete Hindi Essay for Class 10, Class 12 and Graduation and other classes.

Hindi Essay on “Vigyan Aur Dharam” , ”विज्ञान और धर्म ” Complete Hindi Essay for Class 10, Class 12 and Graduation and other classes.

विज्ञान और धर्म

Vigyan Aur Dharam

5 Best essays on “Dharm aur Vigyan”

निबंध नंबर :-01 

विज्ञान और धर्म, समान्यताया बल्कि संपूर्णतया दोनों के क्षेत्र अलग-अलग हैं। ‘धरायते इति धर्म:’ इस उक्ति के अनुसार धर्म वह है, जिसमें समस्त उदात्त, उदार और महान मानवीय वृत्तियों, सदगुणों को धारण करने की अदभुत क्षमता विद्यमान रहती है। इस दृष्टि से धर्म का कोई स्थल एंव निर्धारित स्वरूप नहीं होता। अपने-आपमें वह मात्र एक पवित्र एंव सूक्ष्म हमेशा विकास करती रहने वाली भावना है। जीवन जीने की एक आस्था और विश्वास है। पूजा-पाठ, व्रत-उपवास या रोजा-नमाज जैसे ब्रह्माचार भी धर्म नहीं है। इन्हें धर्म के सतस्वरूप को पाने, उन तक पहुंचने का एक भावनात्मक बाह्य माध्यम अवश्य कहा जा सकता है। धर्म का वास्तविक संबंध जाति-पाति या मजहब के साथ भी नहीं हुआ करता। ये सब तो कानव को बाह्य स्तर पर विभाजित करने वाली स्थूल क्यारियां मात्र हैं। धर्म है पवित्र आचरण एंव व्यवहार का नाम। धर्म है सत्य भाषण, प्राणिमात्र के प्रति प्रेम एंव अपनत्व का नाम। धर्म है सभी प्रकार के सदभावों और सदगुणों का नाम। इसके अतिरिक्त यदि किसी अन्य चीज को धर्म कहा जाता है, तो वह प्रवंचना और छलावे से अधिक कुछ नहीं। रूढिय़ां, अंधविश्वास, या अंधविश्वास, या अंधपरंपराएं भी धर्म नहीं हुआ करतीं। तभी तो प्रत्येक देश-काल के महापुरुषों ने इनका विरोध कर एकात्मभाव जगाने का काम किया है। वह एकात्मक भाव की मानवीय दृष्टि से आध्यात्मिक जागृति ही वस्तुत: धर्म कही जा सकती है।

धर्म एक गुलाब का फूल है, जो प्रत्येक प्राणी के मन की वाटिका में कोमल-कांत भावना के रूप में विकसित होकर सौंदर्य-सुगंध प्रदान किया करता है। वस्तुत: गुलाब की पंखुडिय़ां नहीं, उनमें छिपी कोमलता, सुंदरता और सुगंधि धर्म हुआ करती है। इसके विपरीत विज्ञान का अर्थ है-विशेष प्रकार का स्थूल ज्ञान, जो हमें भौतिक तत्वों की जानकारी कराता है, भौतिकता की ओर अग्रसर करके उसी की उपलब्धियां प्रदान करता है। बाह्य भौतिक तत्वों-पदार्थों को ही सब-कुछ मानता है। जो दृश्य है, जिसे छुआ, नामा तोला या गणित की परिधियों में लाया जा सकता है, वही विज्ञान का सत्य है। इस प्रकार स्पष्ट है कि विज्ञान का संबंध स्थूल  सत्य के साथ है, मस्तिष्क के साथ है, सूक्ष्म और भावना के सत्य के साथ नहीं है। वह तो धर्म और संस्कृति का विहार-क्षेत्र है। धर्म और विज्ञान दोनों का जीवन जीने-बल्कि ढंग से जीवन जीने के लिए समान आवश्यकता और महत्व है। दोनों मानव-जीवन की महान उपलब्धियां हैं। दोनों सत्य तक पहुंचने-पहुंचाने के मार्ग है, पर अपने-अपने ढंग से, अपने-अपने स्थूल-सूक्ष्म साधनों और माध्यमों से। इस तथ्य को नकारा नहीं जा सकता। इन्हें स्वीकार करके ही वस्तु एंव भाव-सत्य को अर्थात धर्म और विज्ञान के वास्तविक मर्म को पाया जा सकता है।

अपने सहज-स्वाभाविक स्वरूप और प्रक्रिया में धर्म और विज्ञान दोनों मानव के शुभचिंतक एंव हित-साधक हैं। दूसरी ओर दोनों का सीमातिक्रमण, अतिवादी रूप मानव को समस्त गतियों-प्रगतियों को विनष्ट करके रख देने वाला है। तभी तो जब धर्म के अतिचार से व्यक्ति पीड़ा अनुभव करने लगता है, वह विज्ञान ही उसे आश्रयस्थल दिखाई देता है। जब विज्ञान का अत्याचार बढ़ जाता है, तब विवश मानव को धर्म का मुखापेक्षी बनना पड़ता है।श्ुारू से ही यही हुआ और निरंतर होता आ रहा है। धर्म क्योंकि एक आध्यात्मिक प्रक्रिया है, इसी कारण पश्चिम के वैज्ञानिक अतिवाद से पीडि़त मानव-समाज आज धर्म एंव आध्यात्मिकता की ओर उन्मुख होकर निवृति का मार्ग पा रहा है। पूर्व धार्मिक अतिवादों से उत्पीडि़त होकर विज्ञान की शरण में आश्रय-स्थल खोजने की मानसिकता में है। कहा जा सकता है कि मानव के लिए धर्म और विज्ञान दोनों ही समान महत्वपूर्ण हैं दोनों ही आश्रय-आधारदाता हैं। अत: दोनों के समन्वय से बना दृष्टिकोण ही आज की परिस्थितियों में मानव का हित-साधन कर सकता है, यह एक निभ्रांत एंव सर्वमान्य सत्य है।

यह भी एक तथ्य है कि धर्म की दृष्टि शायद उनती लोक पर नहीं रहती, जितनी की परलोक और परा प्राकृतिक या अलौकिक तत्वों-शक्तियों पर। इसी कारण कई बार लौकिक व्यावहारिकता से निश्ंिचत होकर धर्म का स्वरूप और व्यवहार पागलपन की सीमा तक उन्मादक और अव्यावहारिक हो जाया करता है। वह अनेक प्रकार के अंध जनूनों का शिकार होकर जीवित मानवता को नहीं, बल्कि अलक्षित जड़ तत्वों को महत्व देने लगता है। तथाकथित विश्वासों-रूढिय़ों का अंधभक्त बनकर अपनी झूठी श्रेष्ठता के दंभ में दूसरों के लिए घातक बन जाया करता है। इन्हीं स्थितियों को अंधविश्वास, धार्मिक रूढि़वादिता या धर्मोन्माद कहा जाता है। तब व्यक्ति दूसरे व्यक्ति की पीठ-पेट में छुरा तक घोंपने से बाज नहीं आता। ऐसे समय में आधुनिक ज्ञान-विज्ञान के कार्यों का याद आना स्वाभाविक हो जाया करता है। तब विज्ञान ही वस्तु-सत्य का अहसास कराकर, सही दृष्टि और व्यवहार अपनाने की उदात्त प्रेरणा दिया करता है। यही कारण है कि आधुनिक ज्ञान-विज्ञान की प्रगतियों ने बहुत सारी परंपरागत रूढिय़ों और अंधविश्वासों से मानव को मुक्ति दिलाकर उसे उदात्त मानवीय दृष्टिकोण और व्यवहार अपनाने की दृष्टि एंव प्रेरणा दी है। सभी प्रकार की प्रत्यक्ष-परोक्ष गहन मानवीय अनुभूतियों को तथ्य-परक बनाया है। उसने सीमित क्षेत्रों का विस्तार किया है। अंध रूढिय़ों और विश्वासों की जकड़  से मानवता को मुक्त करवाया है। इस दृष्टि से यह ठीक ही कहा जाता है कि विज्ञान की प्रत्येक नई खोज धर्म के मुख पर एक करारी चपत होती है। हम इस युक्ति को सुधारकर यों कह सकते हैं कि विज्ञान की प्रत्येक नई खोज अंध रूढिय़ों और अंध-विश्वासों से ग्रस्त धर्म-चेतना के मुख पर एक करारी चपत हुआ करती है। ऐसा कहना है उचित एंव सार्थक है।

जिस प्रकार अनेक बार कट्टर धर्म-भक्ति ने मनुष्य को अंधा और घातक बनाया है, उसी प्रकार विज्ञान ने भी कई बार ऐसा किया और आज भी कर रहा है। जापान के नागासाकी और हिरोशिमा पर परमाणु बम-विस्फोट, नए-नए घातक शस्त्रास्त्रों का निर्माण हो रहा है, उनके बल पर निर्बल और छोटे राष्ट्रों को दबाने के प्रयत्न चल रहे हैं, इस सबको वैज्ञानिक अंधता ही तो कहा जाएगा। ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार, मध्यकाल में धर्मान्धता से पीडि़त होकर साम्राज्य या देश उजाड़े एंव बसाए जाते थे। स्पष्ट है कि धर्म और विज्ञान दोनों ही जब अपने सहज मानवीय लक्ष्यों से भटक जाते हैं, तब उनकी स्थिति अंधे और वह भी सनकी एंव पागल अंधे के समान ही हो जाया करती है।

सत्य तो यह है कि जब हम गंभीरता से विचार करके देखते हैं, तो पाते हैं कि अपने-आप में न तो धर्म अंधा हुआ करता है और न विज्ञान ही। अंधा तो वास्तव में इनका उपयोग-उपभोग करने वाला मानव हो जाया करता है। कभी अपनी श्रेष्ठता के मद में और कभी अपनी साधना-संपन्नता के मद में। इस प्रकार के मदों में अंधा होकर जब वह दूसरों पर भी प्रभावी होने का प्रयत्न करने लगता है, तब धर्म और विज्ञान दोनों की प्रगतियों, गतिविधियों और अस्तित्व के वास्तविक उद्देश्यों का अंत हो जाया करता है। तब दोनों ही मानवता को विनाश की विभीषिका ही दे पाते हैं। आज के संदर्भों में धर्म और विज्ञान दोनों के क्षेत्रों में यही सब तो हो रहा है।

प्रश्न उठता है कि तब क्या किया जाए? उत्तर एक ही है और हो भी सकता है। वह यह है कि धर्म को विज्ञानाभिमुख और विज्ञान को धर्माभिमुख बनाया जाए। इस प्रकार का समन्वय और संतुलन ही अपने सत्स्वरूप में दोनों को मानव के लिए कल्याणकारी एंव मंगलप्रद बनाए रख सकता है। अन्यथा भौतिकता की अंधी दौड़ में आज का मानव-जीवन जिन विस्फोटक कगारों की तरफ सरपट दौड़ा जा रहा है, धर्म और विज्ञापन दोनों ही वहां उसके विनाशक ही सिद्ध हो सकते हैं, संरक्षक एंव प्रगतिदाता नहीं। इस तथ्य को जितना शीघ्र समझ लिया जाए, उतना ही लाभप्रद और कल्याणकारी हो सकता है। बाद में पश्चाताप के सिवा कुछ भी हाथ लगने वाला नहीं।

 

निबंध नंबर :-02 

धर्म और विज्ञान

Dhram Aur Vigyan

प्रस्तावना- आज के इस वैज्ञानिक युग में जैसे-जैसे विज्ञान की उन्नति हो रही है वैसे-वैसे धर्म का प्रभाव क्षीण होता जा रहा है। लोगों में नास्तिकता बढ़ती जा रही है, परन्तु मानव जाति के उत्थान में तो धर्म तथा विज्ञान दोनों का समान रूप में सहयोग रहा है। यदि धर्म ने मानव के ह्दय को परिष्कृत किया है, तो विज्ञान ने बुद्वि को।

धर्म मानव ह्दय की एक उच्च, पुनीत तथा पवित्र आत्मा है। धर्म से मनुष्य में परोपकार, समाजसेवा, सहयोग व सुहानुभूति की भावनाएं जाग्रत होती हैं।

धर्म और विज्ञान दोनों ही महत्पूर्ण-धर्म ने मानव की मानसिक एवं आत्मिक उन्नति में सहयोग दिया है तो विज्ञान ने उनकी भौतिक उन्नति में। धर्म द्वारा ईश्वर की पूजा की गई है तो उनके अंधविश्वासों को समाप्त कर दिया है, तो धर्म ने सत्य और अहिंसा का रास्ता दिखाकर परोपकार की भावना जाग्रत की है।

अतः मानव के विकास के लिए आवश्यक है कि धर्म तथा विज्ञान में सामंजस्य तथा समन्वय की स्थापना हो तथा धर्म का विज्ञान पर व विज्ञान का धर्म पर अकुंश हो।

उपसंहार- इस प्रकार संसार में सुख, समृद्वि व शान्ति की स्थापना के लिए धर्म तथा विज्ञान दोनों का एक साथ विकसित होेना अत्यन्त आवश्यक है। यदि विज्ञान को हम छोड़ दें तो आदिकाल की सभ्यता में हम पहंुच जायेंगे जहां इन्सान पत्थरों से जानवरों का शिकार कर अपना भोजन जुटाता था तथा गुफाओं रहता था वहीं यदि हम धर्म छोड़ दे ंतो मनुष्य निरकुंश होकर कमजोरों पर जुल्म करने लगेगा, हर शक्तिशाली अपने से कम शक्ति वाले को मिटाने लगेगा, परिणाम यह होगा कि एक दिन संसार में कुछेक ही शक्तिशाली रह जायेंगे। बाद में वो भी आपस में शक्ति परीक्षण करते हुए विनाश की कगार पर पहुंच कर मिट जायेंगे। अतः इस संसार में धर्म को भी उतनी ही महत्ता मिलनी चाहिये जितनी महत्ता विज्ञान की मिल रही है। इसी में विश्व का भला है।

 

निबंध नंबर :-03

धर्म और विज्ञान

Dharam Aur Vigyan

                जिस तरह मानव जीवन में धर्म भली-भांति समाहित है उसी तरह विज्ञान भी जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में अपनी अहमियत रखता है। धर्म और विज्ञान दोनों के साथ-साथ जीवन जिया जा सकता है। धर्म को अपनाकर विज्ञान का तिरस्कार नहीं किया जा सकता और विज्ञान को अपनाकर भी धर्म का तिरस्कार नहीं किया जा सकता है। आज के युग में अज्ञानतावश हमारे मन में एक बात पैदा होती है कि धर्म और विज्ञान में अन्तर्विरोध है। लेकिन यह हमारी भ्रांति है। अगर गहराई से विचारा जाए तो पता चलता है कि धर्म तत्व भी वैज्ञानिक सत्यों पर ही आधारित है। आज के युग में जब धर्म एक पिछड़ा हुआ, अतीत का जीवन संबंधी दृष्टिकोण माना जाता है और विज्ञान धीरे-धीरे जन-मन में उसका स्थान ग्रहण करने की चेष्टा कर रहा है तब भी विचारकों और चिंतकों के मन में यह धारणा स्पष्ट होती जा रही है कि दोनों दृष्टिकोण वास्तव में एक ही जीवन-सत्य को वाणी देने का प्रयत्न कर रहे हैं और दोनों विकास क्रम में एक-दूसरे के निकट आते जा रहे हैं। प्रारम्भ में विज्ञान ने कुछ ऐसी भ्रांतियां लोगों के मन में उत्पन्न कर दी थीं कि उसके अनुसंधान तथा तथ्य सम्बन्धी निर्णय धार्मिक आदर्शों से एकदम विपरीत दिशा की ओर इंगित करते हैं।

                इस प्रकार की उद्भावनाओं के कारण निश्चय ही धार्मिक जगत के ईश्वर संबंधी विश्वासों पर गहरा आघात पहुंचा और प्राणि शास्त्रीय विज्ञान की खोजों के आधार पर सृष्टि के नियन्ता भगवान के सम्बन्ध में जन-साधारण की आस्था मिटने लगी एवं अनास्था के युग के धीरे-धीरे अपने चरण बढ़ाने शुरू किए। गीता में कहा गया है-’नासतो विद्यते भावों नाभावों विद्यते सतः।’-इस दृष्टि से यदि बन्दर सम्पूर्ण रूप से केवल बन्दर ही था तो वह मनुष्य के रूप में विकसित नहीं हो सकता था। यदि उससे मनुष्य का विकास हुआ है तो वह अन्ततः सामथ्र्य की दृष्टि से पूर्णतः बन्दर ही नहीं था। उसके भीतर मनुष्य में विकसित होने की क्षमता पहले से ही निहित एवं विद्यमान थी। इस क्षमता या चैतन्य तत्व से विज्ञान सदैव से अपरिचित ही रहा है। किन्तु अब बड़े-बड़े जीवशास्त्री, वैज्ञानिक तथा विचारक यह मानने लगे हैं कि विभिन्न जीवों की जातियों की जीवन चेष्टाएं केवल बाहरी यांत्रिक नियमों के आधार पर ही नहीं समझी जा सकती हैं।

                केवल बहिर्जगत के नियमों एवं तथ्यों का विश्लेषण ही जीवन सत्य के समग्र बोध के लिए पर्याप्त नहीं है। उसके लिए विज्ञान को अन्तर्जगत के सत्यों का भी विश्लेषण करने की अनिवार्य आवश्यकता है। इस प्रकार हम देखते है कि सत्यान्वेषी विज्ञान धीरे-धीरे धर्म के क्षेत्र में भी प्रवेश करने की उत्सुकता प्रकट कर रहा है। बहुत संभव है कि भविष्य में वैज्ञानिक दृष्टि के प्रकाश मंे मनुष्य की अन्तश्चेतना के सूक्ष्म जगत का अध्ययन हमें व्यापक मानवीय आदर्शों की स्थापना तथा ईश्वर संबंधी हमारे बोध की नवीन प्रतिष्ठा में अत्यन्त सहायक हो सके, जबकि मानव सभ्यता तथा संस्कृति का एक अभूतपूर्व सौंदर्य सम्पन्न, आन्नदवर्धक ज्ञान गरिमापूर्ण एवं सृजन-ऐश्वर्य प्रभूत जीवन युग का विश्व जीवन में आविर्भाव हो सकेगा।

                सम्प्रति धर्म और विज्ञान के सत्यों तथा दृष्टिकोणों का संयोजन न हो सकने के कारण हम देखते है कि संसार में और विशेषकर मनुष्य के विचारों तथा चिन्तन के जगत में एक विचित्र स्थिति पैदा हो गई है। विज्ञान के आविष्कारों के कारण एक ओर मानव जीवन की परिस्थितियां अत्यन्त विकसित तथा समृद्ध हो गई हैं और उसे जीवन में सब प्रकार की रहन-सहन संबंधी सुख-सुविधाएं मिलने लगी हैं किन्तु दूसरी ओर वह इतना आत्मकेन्द्रित तथा भोग-लालसा से पीड़ित हो उठा है कि उसके पास जीवन संबंधी कोई उच्च व्यापक दृष्टिकोण तथा विश्व मंगल सम्बन्धी किसी सक्रिय गंभीर योजना का नितान्त अभाव दिखाई देता है। आज का मनुष्य केवल देह और मन की इकाई रह गया है। उसके हदय के द्वार बन्द हो गए हैं और उसका आध्यात्मिक एवं चेतनात्मक विकास एकदम अवरूद्ध हो गया है। यही कारण है कि इतिहास के पिछले सभी युगों से आज उसके पास अधिक ज्ञान का भण्डार, आवागमन के साधन, शिक्षा सम्बन्धी प्रचुर उपकरण तथा प्रभूत सम्पति होने पर भी अशांति ही विद्यमान है। इसके विपरीत वह आज अधिकाधिक आत्म विनाश की ओर अग्रसर हो रहा है और ऐसे महाघातक ध्वंस-शस्त्रों को जन्म दे रहा है जिससे पृथ्वी पर उसका अस्तित्व ही शेष न रह जाए।

                इसका कारण यह है कि मनुष्य की हदय-चेतना के अवरूद्ध हो जाने के कारण तथा उसका आध्यात्मिक विकास रूक जाने के कारण वह आज भौतिकता की अंधी शक्तियों का शिकार बनकर अधिकाधिक भ्रांतिग्रस्त होता जा रहा है। अपने संकटग्रस्त वर्तमान की सीमाओं को न लांघ सकने के कारण मनुष्य भविष्य की सांगोपांग उन्नति तथा लोकमंगल के बारे में गंभीर रूप से सोचने की सामथ्र्य खो बैठा है। विज्ञान ने उसके बाहरी परिस्थितियों के जीवन में का्रंति पैदा कर दी है पर अन्तः स्थित मनुष्य चैतन्य का उस अनुपात में विकास न हो सकने के कारण विज्ञान का वरदान आज उसके लिए अभिशाप बनने जा रहा है। मनुष्य विरोधी विचारधाराओं तथा शक्ति शिविरों में बंटा हुआ है। आज की संकट की स्थिति में संतुलन स्थापित करने के लिए आज के तथाकथित बौद्धिक को फिर से मानव-मूल्यों तथा हदय-संबंधी मूल्यों का जीर्णोद्धार कर अपने अन्तःप्रकाश में जीवन को केन्द्रित करना है। उसे फिर से श्रद्धा, आस्था, निष्ठा की सूक्ष्म शक्तियों की सहायता से उच्च तथा व्यापक से व्यापक आध्यात्मिक सांस्कृतिक आदर्शों की मानव शक्ति में प्रतिष्ठा करनी है, जो आज तक धर्म का क्षेत्र रहा है। अपने इसी अन्तःप्रकाश के स्पर्श से वह आज के ध्वंसात्मक विज्ञान को रचनात्मक जीवन मंगल की ओर अग्रसर कर सकता है। विज्ञान के स्पर्श से धर्म लोक व्यापक और अन्धरूढ़ि रीति तथा जीर्ण विधान से मुक्त बन सकेगा और विज्ञान धर्म का अमृत पान कर इसी क्षणभंगुर जगत में मानव आत्मा के अमरत्व की स्थापना कर सकेगा अन्यथा भस्मासुर की तरह वह अपनी वरदायिनी अजेय शक्ति से स्वंय ही भस्म हो जाएगा।

निबंध नंबर :-04

विज्ञान और धर्म

Vigyan aur Dharam

आज का मानव निरन्तर ज्ञान के अनन्त साधनों से प्रकृति के अनन्त रहस्यों का अनावरण कर चुका है। सर्वप्रथम मानव ने इसके लिए धर्म का सहारा लिया था और आज वह विज्ञान के माध्यम से उन रहस्यों को जानने का प्रयास कर रहा है। धर्म और विज्ञान में जो विरोध-सा आज दिखाई पड़ता है, वास्तव में वह विरोध नहीं है, वह तो विकास मार्ग के दो साधन हैं, जिनमें कुछ अन्तर होना स्वाभाविक भी है।

ज्ञान एक दृष्टिकोण है जिसके अनुसार किसी वस्तु, व्यक्ति अथवा घटना की सम्भावना उस समय स्वीकार नहीं की जाती है जब तक कि कोई कारण बुद्धि के सामने प्रत्यक्ष न हो। विश्वसनीय वही है जिसका प्रयोगात्मक अध्ययन सम्भव हो। अतः वैज्ञानिक दृष्टिकोण उन विचारों और धाराओं को कोई महत्त्व नहीं देता जो कोई कल्पना अथवा अंधविश्वास पर आधारित हो। इसके अन्दर मानव ज्ञात से अज्ञात की ओर बढ़ता है।

”धर्म’ शब्द की उत्पत्ति ‘धृ’ धातु से हुई है जिसका अर्थ है धारण करना। धर्म का मूलभूत सिद्धान्त है मानव आत्मा की एकता को पहचानना। प्राणि मात्र में एकता, समानता, उदारता, धर्म के दार्शनिक पक्ष का मूलभूत आधार है। प्राचीन मनीषी अज्ञात रात की ओर बढ़ते रहे। परिणामतः उन्होंने धर्म शब्द को भी प्रमाण रूप कर लिया जो आज का वैज्ञानिक स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं।

जब तक मानव ने उस वैज्ञानिक दृष्टिकोण की खोज नहीं की, वह उस धार्मिक दृष्टिकोण को ज्ञान की अनन्त साधना स्वीकार करता रहा और उसी के प्रकाश में वह प्रकृति के रहस्यों का अनावरण करता रहा जिसमें आज कुछ सत्य प्रमाणित हुए हैं और कुछ असत्य प्रमाणित हो चुके हैं। यह नया दृष्टिकोण तो कार्य-धारण की श्रृंखला पर आधारित है और उसमें विवेक का प्रकाश है।

क्या विज्ञान का मार्ग मानव को यों ही प्राप्त हो गया? नहीं, इसके लिए अथक साधना करनी पड़ी और अनेक प्राणों की आहुति भी देनी पड़ी। धार्मिक विश्वास के प्रति आविश्वास करना या किसी भी तर्क को ज्ञान का आधार स्वीकारना, उस समय एक बहुत बड़ा अपराध था। सुकरात को इसीलिए विष का प्याला पीना पड़ा और अनेक वैज्ञानिकों पागल और मर्ख कहा गया है। केवल इसलिए कि उन्होंने तर्क के द्वारा कुछ पारम्परिक विश्वासों को असत्य सिद्ध कर दिया। आज की स्थिति भिन्न है। आज वैज्ञानिक दृष्टि की उपेक्षा कर धार्मिक आस्था में चलने वाला व्यक्ति समाज में उपहास का पात्र होता है और विज्ञान उसे अतीत में भटकने वाला विवेकहीन पक्षी समझता है।

आज विज्ञान ने धर्म पर विजय प्राप्त कर ली है। जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में मानव एव सुविधाओं के लिए विज्ञान ने अनेक उपकरण जुटा दिए हैं। फलतः आज मानव यह अनुभव करता है कि धर्म ने जो सत्य मानव से लिए दिए, वे न केवल जन साधारण के लिए भूलावा मात्र ही थे किन्तु शक्तिशालियों के शोषण के आधार भी थे। वैज्ञानिक ही असम्भव और असाध्य को साध्य बनाने में समर्थ है।

इतिहास साक्षी है कि जन साधारण में जब भी अपने अधिकारों के प्रति सजगता हुई और उन्हें पाप्त करने के लिए आवाज उठाई. शासक वर्ग ने धर्म का कवच पहनकर ही अपनी रक्षा की। प्राचीन समय में भी जबकि किसान धरती की छाती फाड़ कर अन्न पैदा करता था, उस समय भी सामन्त, सरदार एवं सम्राट् अपने विलास भवनों में समस्त सुख और सुविधा के साधन जुटा कर आनन्द किया करते थे और निर्धन किसान भुलावे में आकर अपने भाग्य पर सन्तुष्ट हो आगामी जीवन के लिए परिश्रम और ईमानदारी से अपना परलोक सुधारने में लगा रहता। मध्य युग में धर्म ने राजशक्ति का कद्रव्य जन साधारण को पिलाया। आज का पूँजीपति भी वैज्ञानिक उपकरणों से शोषण जन-साधारण को धर्म के भुलावे में बहकाने का पूर्ण प्रयत्न करता है। रक्तरंजित हुए इतिहास के पृष्ठ आज भी धर्म के विकराल रूप का प्रदर्शन कर देते हैं। धर्म के पर मनुष्य की हत्या की, उसको जिन्दा जलाया। फ्रांस, इंग्लैंड, स्पेन आदि का इतिहास उठाकर देख लीजिए तो धर्म के उस भयंकर रूप का स्पष्ट चित्र वहाँ देखने को मिल जायेगा। अपने ही देश के टुकड़े हो गए केवल धर्म के नाम पर। आज अपना ही टुकड़ा आपको निगल जाने को आतुर है क्यों? केवल धर्म के लिए। जब धर्मपरायण ‘बापू’ पर भी धर्म के नाम पर गोली चलाई गई, तो फिर धर्म के आगे शीष कौन झुका सकता है?

आज विज्ञान और धर्म परस्पर विरोधी से प्रतीत होते हैं। जैसे-जैसे विज्ञान का विकास होता चला जायेगा, वैसे-वैसे धर्म का हास ही होगा। जिस दिन विज्ञान की ध्वजा स्वतंत्र फहरायेगी, उस दिन धर्म का कोई खण्डहर मात्र भी धरा पर शेष न होगा। कारण कि धर्म अन्धकार में पनपता है, मिथ्या पर विश्वास करता है और शासक वर्ग का पोषण करता है। इसलिए आज विज्ञान प्रदत्त विवेक के प्रकाश में इसका जीवित रहना कदापि सम्भव नहीं है।

क्या धर्म इतना निकृष्ट है ? नहीं क्योंकि जिसे हम धर्म समझते हैं, वस्तुतः वह धर्म नहीं, वह तो उसका विकृत रूप है जिसे स्वार्थियों ने अपने पोषण का साधन बना रखा है। सच्चे धर्म का न तो कभी विज्ञान से विरोध रहा है और न है। दोनों ही सत्य मार्ग के दो सोपान हैं जिनका एक ही लक्ष्य है? आज विज्ञान ने जो अलौकिक शक्ति मानव के हाथ में दी है, उसे प्राप्त कर उन दार्शनिक मूलभूत आधारों पर खड़े रहना आज के मानव के लिए नितान्त आवश्यक है; अन्यथा जिस विज्ञान से वह निर्माण का इतिहास लिख रहा है, उससे ही वह विनाश का इतिहास लिखने लगेगा और आश्चर्य नहीं कि किसी दिन शक्ति के अन्त में आकर भस्मासुर के समान कहीं अपने को ही भस्म न कर डाले। यह आवश्यक है कि मानव यदि वैज्ञानिक अन्वेषणों की भूमिका में प्रकृति का सच्चा उपयोग करना चाहता है, तो उसे धर्म का सहारा लेकर अपनी आत्मा की परिधि के विस्तार को बढ़ाना होगा। अतः विज्ञान और धर्म एक दूसरे के विरोधी होकर भी पूरक हैं। यदि यह समन्वय सम्भव हो सका, तो हम अपने प्राचीन गौरव को प्राप्त कर सकेंगे।

निबंध नंबर :-05

धर्म और विज्ञान

कविवर जयशंकर प्रसाद ने ‘कामायनी’ में धर्म (क्रिया) और विज्ञान ज्ञान के परस्पर अलगाव को मानवीय पीड़ा का असली कारण माना है, उनके शब्दों में-

ज्ञान दूर कुछ क्रिया भिन्न है,

इच्छा क्यों पूरी हो मन की?

एक दूसरे से मन न मिल सके,

यही विडम्बना है जीवन की।

ज्ञान से क्रिया का न मिल पाना, विज्ञान और धर्म की दूरी, कथनी और करनी में भेद यही सब समस्याओं की जननी है।

‘जिसे धारण किया जाये वही धर्म है।’ इसी अर्थ में हम छात्र धर्म, युग धर्म, वति, धर्म आदि शब्दों का व्यवहार करते हैं। विज्ञान क्या है-परीक्षा, जाँच और विश्लेषण द्वारा प्रभावित ज्ञान । विज्ञान हमें पदार्थों, पशुओं पक्षियों के रहस्यों से अवगत कराता है। उन्हीं रहस्यों के आधार पर धर्म हमारा मार्गदर्शन करता है।

विज्ञान ऊर्जा का घर्षण करते-करते आग, विस्फोटक सामग्री, अणु-परमाणु शक्ति का आविष्कार करता है उनके निर्माण की विधि का ज्ञान देता है। तो धर्म उसके विध्वंसक रूप को न अपनाने की ओर जोर देता है। दोनों जीवन के पूरक अवयव हैं। विज्ञानहीन धर्म चल नहीं सकता। विज्ञानहीन धर्म लंगड़ा है। धर्म हीन विज्ञान शुभ अशुभ का निर्णय नहीं कर सकता अतः धर्मविहीन विज्ञान अंधा है। दोनों के सहयोग से ही जीवन में समरसता आ सकती है। विज्ञान भौतिक पदार्थों का अध्ययन करता है, धर्म आचरण को निमंत्रित करता है।

प्रायः लोग समझते हैं कि मन्दिर, मस्जिद, गुरुद्वारा ही धर्मस्थल है। इन्हीं को मानना, इन्हीं की स्तुति करना, तीर्थव्रत आदि करना ही धर्म है। इसी प्रकार विज्ञान को प्रायः धर्मविरोधी माना जाता है। ऐसी धारणा है कि वैज्ञानिक आस्थाविहीन होते हैं। वे वास्तुविद होते हैं। वे धर्म को न मानकर इसका तिरस्कार करते हैं। परन्तु ये दोनों बातें भ्रामक हैं। हाँ, कोई नासमझ मन्दिर और पूजा-पाठ के साथ विज्ञान का जबरदस्ती सम्बन्ध तोड़ना चाहे, तो यह निरर्थक होगा।

दुर्भाग्य से आज धर्म और विज्ञान एक-दूसरे पर नाक-भौंह सिकोड़ते हुए चल रहे हैं। धर्म के ठेकेदार बने हुए हैं-बड़े-बड़े मठाधीश, महन्त और मुल्ला-मौलवी।

वे विज्ञान की शक्तियों को सारे उत्पादों की जड़ मानते हुए उसका तिरस्कार कर रहे हैं। विज्ञान की नई-नई खोजें पैदा करके धर्म की पुरानी मान्यताओं को तोड़ता है। तो धर्म के ठेकेदारों के पैरों तले से जमीन खिसकती नजर आती है। अतः वे झपटते हैं अन्धाधुन्ध विज्ञान पर। विज्ञान ने जब पहली बार बताया कि सूर्य पृथ्वी के चारों ओर नहीं घूमता, बल्कि पृथ्वी सूर्य के चारों ओर घूमती है तो पादरियों ने उस वैज्ञानिक के लिए मृत्युदण्ड की घोषणा कर दी। इस प्रकार यहाँ से धर्मगुरुओं और वैज्ञानिकों में संघर्ष चलता आया है।

धर्म रीति-रिवाज, रूढ़ि, परम्पराओं को अपनाने का पक्षधर है। चाहे कुछ रीतियां काल-ब्राह्म (आउट ऑफ डेट) हो जाएं, तो भी धर्म पण्डित उन्हें अपनाये रखना चाहते हैं। उदाहरणतया-घोड़ी का जमाना लद गया, फिर भी वर को उसी पर लद कर दुल्हन को लाना पड़ता है। आखिर धार्मिक रूढ़ियों को यथावत् बनाये रखने के पीछे तर्क नहीं। केवल धर्मगुरु यह चाहते हैं कि उनका आधार न खिसक जायें। इसलिए वे पुरानी घिसी-पिटी बातों को चिपकाए रखते हैं, उन्हें महिमामण्डित करते हैं। उनमें विज्ञान द्वारा प्रमाणित नये ज्ञान को स्वीकार करने का साहस नहीं है।

धर्म द्वारा विज्ञान के तिरस्कार का कुफल यह हुआ कि धर्म अति पाखण्डों और आडम्बरों का पुलिन्दा बनकर रह गया। उनमें ज्ञान का ताजा जल आना बन्द हो गया पुराना ज्ञान पड़े-पड़े सड़ गया। यही कारण है कि आज के प्रबुद्ध जब किसी के अन्तिम संस्कार पर आयोजित धार्मिक भाषण सुन ले तों सुन ले अन्यथा उनके नजदीक भी नहीं फटकते। धार्मिक क्रियाओं में ऐसा बासीपन भर गया है। यही धर्मगुरु वैज्ञानिक विकास को स्वीकार करते हुए युगधर्म के अनुरूप जीवन शैली को नया स्वर दें तो धर्म के मन्दिर आज भी पवित्र तीर्थस्थल बन सकते हैं। आज भी जब किसी प्रबुद्ध महात्मा के मुख से विज्ञानसम्मत प्रमाणित वाणी सुनते हैं तो श्रोता मन्त्रमुग्ध हो उठते हैं । सन्त कबीर की धार्मिक वाणी में विज्ञान सम्मत प्रमाणित वाणी सुनते हैं। विज्ञान की यही शक्ति विद्यमान थी। उसके बल पर वे अनपढ़ महात्मा कबीर तथाकथित पण्डे, पुरोहितों और विद्वानों को लक्ष्य करके कहते थे-

साधो देखो जग बौराना।

सांची कहो तो भारन धावै। झूठ जगपति माना ॥

हिन्दू कहत राम हमारा, मुसलमान रहमाना।

आप जमे दोऊ लड़े परतु हैं, मरम कोई नहीं जाना ॥

विज्ञान ने भी धर्म की तिरस्कार करके मानवता की कम हानि नहीं की। धर्म बुद्धि के अभाव में वैज्ञानिकों ने ऐसे-ऐसे घातक हथियारों की खोज कर डाली है। जिससे मानवता का किसी भी प्रकार भला नहीं हो सकता। यदि विज्ञान के पास धार्मिक हृदय हो तो वह कदापि परमाणु बम या रासायनिक बमों का निर्माण न करता । जीवन को सन्तुलित, सुन्दर और समरस बनाने के लिए धर्म और विज्ञान में परस्पर तालमेल आवश्यक है। जिस प्रकार हृदय और बुद्धि के सन्तुलन से मनुष्य सुखी रहता है, उसी प्रकार धार्मिक उन्नति तथा वैज्ञानिक विकास के समन्वित प्रयास से जीवन सरस बन सकता है। विज्ञान जिन नई बातों की खोज करे, धर्म उनका मानव हित में प्रयोग करें। धर्म मानव की सुखी रहने के लिए जो मूल बातें बताए, विज्ञान उनके विरुद्ध न जाए। यथा विज्ञान नई-नई फसलों की खोज, नये-नये उपकरणों की खोज, विधि प्रविधियों को खोजे तो मानव को उन्हें अपने हित में अपनाना चाहिए।

इसी प्रकार धर्म को विज्ञान की दृष्टि अपनानी चाहिए, अर्थात् धर्म को खूब परीक्षण-निरीक्षण के बाद ही किसी वस्तु को स्वीकृत या तिरस्कृत करना चाहिए। ऐसा हो जाए, तो धर्म विज्ञान भी आधारभूत पर खड़ा हो पड़ेगा और विज्ञान धर्म को स्वस्थ और शक्तिशाली बनाता रहेगा। दोनों एक-दूसरे के पूरक और संवर्द्धक बन सकेंगे। इसी के फलस्वरूप मानवता का जन्म होगा ।

About

The main objective of this website is to provide quality study material to all students (from 1st to 12th class of any board) irrespective of their background as our motto is “Education for Everyone”. It is also a very good platform for teachers who want to share their valuable knowledge.

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *