[Update] Hindi Essay on “Vartman Shiksha Pranali” , ”वर्तमान शिक्षा प्रणाली” Complete Hindi Essay for Class 10, Class 12 and Graduation and other classes.
वर्तमान शिक्षा प्रणाली
Vartman Shiksha Pranali
निबंध नंबर:01
शिक्षा का वास्तविक अर्थ होता है, कुछ सीखकर अपने को पूर्ण बनाना। इसी दृष्टि से शिक्षा को मानव-जीवन की आंख भी कहा जाता है। वह आंख कि जो मनुष्य को जीवन के प्रति सही दृष्टि प्रदान कर उसे इस योज्य बना देती है कि वह भला-बुरा सोचकर समस्त प्रगतिशील कार्य कर सके। उचित मानवीय जीवन जी सके। उसमें सूझ-बूझ का विकास हो, कार्यक्षमतांए बढ़ें और सोई शक्तियां जागगर उसे अपने साथ-साथ राष्ट्री के जीवन को भी प्रगति पथ पर ले जाने में समर्थ हो सकें। पर क्या आज का विद्यार्थी जिस प्रकार की शिक्षा पा रहा है, शिक्षा प्रणाली का जो रूप जारी है, वह यह सब कर पाने में समथ्र है? उत्तर निश्चय ही ‘नहीं’ है। वह इसलिए कि आज की शिक्षा-प्रणाली बनाने का तो कतई नहीं। यही कारण है कि स्वतंत्रता प्राप्ति के इतना वर्षों बाद भी, कहने को शिक्षा बहुत अधिक विस्तार हो जाने पर भी, इस देश के व्यक्ति बहुत कम प्रतिशत आमतौर पर साक्षर से अधिक कुछ नहीं हो पाए। वह अपने आपको सुशिक्षित तो क्या सामान्य स्तर का शिक्षित होने का दावा भी नहीं कर सकता। इसका कारण है, आज भी उसी घिसी-पिटी शिक्षा-प्रणाली का जारी रहना कि जो इस देश को कुंठित करने, अपने साम्राज्य चलाने के लिए कुछ मुंशी या क्लर्क पैदा करने के लिए लार्ड मैकाले ने लागू की थी। स्वतंत्रता-प्राप्ति के लगभग पचास वर्ष बीत जाने के बाद भी उसके न बदल पाने के कारण ही शिक्षा ही वास्तविकता के नाम पर यह देश मात्र साक्षरता के अंधेरे में भटक रहा है। वह भी विदेशी माध्यम से, स्वेदेशीपन के सर्वथा अभाव में।
हमारे विचार में वर्तमान शिक्षा-प्रणाली शिक्षित होने के दंभ ढोने वाले लोगों का उत्पादन करने वाली निर्जीव मशीन मात्र बनकर रह गई है। तभी तो वह उत्पादन के नाम पर प्रतिवर्ष लाखों दिशाहीन नवयुवकों को उगलकर अपने कर्तव्यों की इतिश्री समझ लेती है। इस शिक्षा-प्रणाली का ही तो दोष है कि बी.ए., एम.ए. करने के बाद भी सक्रियता या जीवन व्यवहारों के नाम पर व्यक्ति अपने को कोरा-बल्कि थका-हारा और पराजित तक अनुभव करने लगता है। यह प्रणाली अपने मूल रूप में कई-कई विषयों की सामान्यत जानकारी देकर शिक्षित होने का बोझ तो हम पर लाद देती है, पर वास्तिवक योज्यता और व्यावहारिकता का कोना तक भी नहीं छूने देती। परिणामस्वरूप व्यक्ति व्यक्तित्व से हीन होकर अपने लिए ही एक अबूझ पहेली और बोझ बनकर रह जाता है। ऐसे व्यक्ति से देश जाति के लिए कुछ कर पाने की आशा करना व्यर्थ है।
यह शिक्षा और इसके साथ जुड़ी परीक्षा-प्रणाली शिक्षार्थी की वास्तविक योज्याताओं का जागरण तो क्या, अनुभव तक नहीं होने देती। वास्तव में यह योज्य-अयोज्य का कोई मानदंड भी तो अभी तक प्रस्तुत नहीं कर पाई। इसके द्वारा अक्सर योज्य तो पिछडक़र भटक जाते हैं और अयोज्य लाभ उठा लेते हैं। कई-कई विषयों का बोझ लदा होने के कारण व्यक्ति पारंगत किसी में भी नहीं हो पाता, विभिन्न विषयों को मात्र गिना ही सकता है। फिर यह शिक्षा-प्रणाली बोझित और महंगी भी इतनी अधिक हो गई। दिन-प्रतिदिन और भी होती जा रही है कि प्रत्येक परिवार और व्यक्ति उसे सहार नहीं सकता। आत्म-बोझ, देश-बोध, राष्ट्र-बोध एंव मानवीयता का बोध तक दे पाने में यह शिक्षा सफल नहीं की जा सकती। इन्हीं सब कारणों से समय-समय पर इसे बदल डालने का स्वर उठता रहता है। विचार करने के के लिए आयोग भी गठित होते रहते हैं, फिर भी पता नहीं कौन-सी विवशता है कि हम लोग उसी घिसे-पिटे, अपने देश की इच्छा-आकांक्षाओं और आवश्यकताओं से सर्वथा विपरीत शिक्षा-प्रणाली के जूए को ही कंधों पर लादे कोल्हू के बैल बने हुए घूमते रहते हैं। इस मानसिकता को किसी भी तरह से स्वस्थ एंव सुखद नहीं कहा जा सकता। वास्तव में यह प्रणाली सुशिक्षा की जड़ें काट रही है।
शिक्षा का अर्थ होता है, योज्य नागरिक उत्पन्न करना, जीवन को जीने योज्य बनाना, अपने कर्तव्यों के प्रति सजग करना। क्योंकि वर्तमान शिक्षा-प्रणाली अपने दायित्वों के निर्वाह में सफल नहीं हो पा रही, अत: इसे बदलना नितांत जरूरी है। सबसे पहली आवश्यकता शिक्षा को पढऩे वालों की रूचियों के अनुकूल बनाने की है। फिर उसका पाठयक्रम और विषयों का चयन ऐसा होना चाहिए कि जो हमें जीवन-व्यवहारों में निपुण बना सके-न कि केवल साक्षर। जैसे कि आजकल कुछ विषय केवल परीक्षा पास करने के लिए ही पढ़ाए जाते हैं। चाहे वे जीवन-व्यवहार के लिए उपयोगी और छात्र की रुचि-इच्छा के अनुकूल हों या न हों, ऐसे विषयों का पठन-पाठन बंद होना चाहिए। ललित साहित्य जैसे विषय यदि ऐच्छिक बना दिए जांए, केवल सुरुचि-संपन्न ही उन्हें पढ़ें, तो बहुत अच्छा होगा। पढाने का ढंग भी केवल पुस्तकीय न होकर व्यावहारिक होना चाहिए। इसी प्रकार बंद कमरों की बजाय खुले क्षेत्रों में शिक्षा दी जानी चाहिए। तभी शिक्षा अपने वास्तविक लक्ष्यों मे ंसफल हो सकती है। निरर्थक माल उत्पन्न करने वाली मशाीन के समान उसका चालू रहना उचित नहीं है।
अंत में हम यही कहना चाहते हैं कि यदि वास्तव में हम देश और जाति का भला चाहते हैं, तो यथासंभव शीघ्र इस उधार की शिक्षा प्रणाली को बदलकर इसके स्थान पर देश-काल की जरूरत को अनुरूप किसी नई प्रणाली को जारी करना आवश्यक है, नहीं तो हम धीरे-धीरे अपनी अस्मिता में चुककर कहीं के भी नहीं रह जाएंगे। आज की भटकाव की स्थिति हमारी अस्मिता को जाकर ऐसे गर्त में डुबो देगी, जहां से निकल पाना अत्यंत कठित हो जाएगा। ऐसी स्थिति में तत्काल सजग हो जाना बहुत जरूरी है। शिक्षा को सब प्रकार से स्वदेश की इच्छा-आवश्यकताओं की वाहक और स्वदेशी माध्यम से दिया-बनाया जाना यथासंभव शीघ्र ही आवश्यक है।
निबंध नंबर:02
वर्तमान शिक्षा प्रणाली
Vartman Shiksha Pranali
भूमिका
शिक्षा का उद्देश्य मानव मन के भीतर छिपी हुई क्षमताओं का प्रकटीकरण है। शिक्षा को सर्वत्र मानव में निहित विविध प्रतिमाओं की पहचान एवं प्रकटीकरण के आधार स्तम्भ के रूप में ग्रहण किया गया है। वर्तमान शिक्षा प्रणाली के जन्मदाता लार्ड मैकाले थे। इस शिक्षा प्रणाली का उद्देश्य देश में क्लर्क और बाबू पैदा करना था।
भारत देश में शिक्षा का महत्त्व प्राचीनकाल से ही रहा है। यह कहने में भी कोई अतिश्योक्ति नहीं है कि भारत में ही सबसे पहले सभ्यता, संस्कृति, ज्ञान-विज्ञान का उदय हुआ। हमारे देश में तक्षशिला, नालन्दा, वाराणसी तथा मिथिला जैसे विश्वविद्यालय स्थापित थे जहाँ देश-विदेश के असंख्य छात्र शिक्षा ग्रहण करने के लिए आया करते थे। तक्षशिला विश्व का प्रथम विश्वविद्यालय है जिसकी स्थापना 700 ई० पू० हुई थी। यहां देश-विदेश के लगभग 10500 छात्र 60 विषयों में शिक्षा ग्रहण किया करते थे। प्राचीन समय में गुरू और शिष्य का सम्बन्ध बहुत ही सौहार्दपूर्ण होता था। गरू अपने शिष्यों को अपने पुत्रों के समान स्नेह एवं प्यार करते थे। इस शिक्षा का उद्देश्य छात्रों का शारीरिक, मानसिक तथा आत्मिक विकास करना होता था। लेकिन शताब्दियों की पराधीनता ने हमारी इस आदर्श शिक्षा प्रणाली को नष्ट-भ्रष्ट कर दिया।
प्रत्येक देश के भावी कर्णधार उस देश की युवा शक्ति ही हुआ करती है। उस देश के नवयुवकों की जैसी शिक्षा-दीक्षा होगी, देश का भविष्य भी वैसा ही होगा। दसरी ओर यदि किसी देश को युगों-युगों तक गुलाम बनाना है, उसे पराधीनता की जंजीरों में जकड़ना है तो उस देश का साहित्य तथा इतिहास नष्ट कर उस देश की शिक्षा प्रणाली बदलकर अपने अनुकूल कर लीजिए। अंग्रेजो ने भी इसी नीति पर चलते हए अपने शासन को भारत में सुदृढ़ तथा चिरस्थाई बनाने के लिए हमारे प्राचीन साहित्य एवं इतिहास को नष्ट-भ्रष्ट करके अपने ही ढंग से शिक्षा व्यवस्था को लाग किया जिसमें अंग्रेज़ी को भारत की राष्ट्रभाषा घोषित कर दिया गया। आज भी बी.ए तक अंग्रेजी एक अनिवार्य विषय के रूप में पढ़ाया जाता है जबकि हमें आजादी मिले लगभग 60 साल हो गए हैं।
शिक्षा में सकारात्मक विषय-वस्तु के अभाव में हमारे विद्यार्थी अश्लील व मध्य साहित्य पढ़ना ही अधिक पसन्द करते हैं। उनकी अध्ययन प्रणाली उनमें सीखने की इच्छा व गहन प्रयास के अभाव को व्यक्त करती है। स्तरीय लेखकों की पाठ्य-पुस्तकों एवं सन्दर्भ साहित्य को भी मानों विदाई दे दी गई है। सरल गाइडो कंजियों का ही बोलबाला बाज़ार में हो गया है।
निजी अध्यापन (ट्यूशन) भी विद्यार्थियों के लिए सफलता का दूसरा सरल उपाय बन गया लगता है। कुछ अध्यापक विद्यार्थियों को कक्षा में पूरी मेहनत और लगन से न पढ़ाकर बच्चों को ट्यूशन के लिए दवाब डालते हैं। इससे छात्रों का पढाई में उत्साह भी कम हो जाता है और वे भी सरल मार्ग द्वारा धनोपार्जन के अनचित मार्ग खोजते हैं जिससे समाज में अनैतिकता को बढ़ावा मिलता है।
हमारा ज्ञान-विज्ञान एवं इतिहास इतना गौरवशाली एवं समद्ध है परन्तु फिर भी भारत के छात्रों को इसकी जानकारी से वंचित क्यों रखा जाता है, यह हमारी समझ से बाहर है। विश्व का सबसे पहला औषधि विज्ञान भारतीयों ने ‘आयुर्वेद’ के रूप में दिया।’चरक’ ने 2500 वर्ष पूर्व औषधि विज्ञान को आयुर्वेद के रूप में संकलित किया। ‘लिम्का बुक ऑफ रिकाडर्स’ के अनुसार 400 ई०पू० सुश्रुत नामक भारतीय चिकित्सक ने सर्वप्रथम प्लास्टिक सर्जरी का प्रयोग किया था।
हमारी वर्तमान शिक्षा प्रणाली में और भी बहुत से दोष हैं जिनका यदि विस्तार से वर्णन किया जाए तो एक परी पुस्तक तैयार हो सकती है। इसलिए सक्षिप्त रूप से हम कह सकते हैं कि हमारी वर्तमान शिक्षा प्रणाली में नैतिक शिक्षा का बिल्कुल अभाव है। किसी स्कूल, कालेज या विश्वविद्यालय में नैतिक शिक्षा के लिए किसी शिक्षा बोर्ड, एन.सी.ई. आर.टी. अथवा किसी विश्वविद्यालय द्वारा कोई पाठ्यक्रम निर्धारित नहीं हैं न ही इस विषय की कोई परीक्षा ली जाती है।
परीक्षा का उद्देश्य किसी व्यक्ति की योग्यता की जाँच परख करना होता है परन्तु आधुनिक परीक्षा प्रणाली जो कि गुलाम भारत पर शासन करने वाले ब्रिटिश राज की देन है और वह इस सीमा तक घिस चुकी है और छिद्रपूर्ण हो गई है कि इससे योग्य छात्र छात्राओं की योग्यता की जाँच परख सही प्रकार से नहीं हो पाती। पराक्षा से एक दो दिन पहले ही प्रश्न पत्र लीक हो जाते हैं और इस सारे व्यापार में कहीं-न-कहीं पढाने वाले या परीक्षा तन्त्र संलिप्त रहता है।
वीरोजगारी को बढ़ावा देती है। आज का छात्र जिन्दगी के 15-16 साल गँवा कर हाथों में जो डिग्री डिप्लोमा लेकर जब महाविद्यालय या विश्वविद्यालय से बाहर आता है तो वह अपने आपको असहाय एवं नितान्त अकेला महसूस करता है क्योंकि डिग्री हासिल करने के बाद भी उसे कोई योग्यता नहीं मिलती। इस कारण वर्तमान दोषपर्ण शिक्षा प्रणाली ही है।
आज शिक्षा इतनी महंगी हो गई है कि आम व्यक्ति की पहुँच से बाहर है उच्च शिक्षा प्राप्त करना। कॉलेजों में दाखिला फीस 15-20 हजार के बीच में ली जाती है, बाकी सारे साल का खर्च अलग तथा पस्तकों पर होने वाला खर्च अलग। इतना पैसा खर्च करने के बाद भी यदि नौकरी नहीं मिलती तो इतना पैसा खर्च करने का औचित्य ही क्या?
आज सबसे पहली आवश्यकता है कि वर्तमान शिक्षा प्रणाली के मूल ढांचे को बदलकर उसे समयानुकूल तथा व्यवसायोन्मुख बनाया जाना चाहिए। इस वर्तमान शिक्षा प्रणाली को न बदला गया तो इस देश का भगवान ही मालिक है।
निबंध नंबर:03
वर्तमान शिक्षा प्रणाली
Vartman Shiksha Pranali
वर्तमान शिक्षा प्रणाली का मतलब है स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद देशी सरकार के शासनकाल में भारत के शिक्षा के तौर-तरीके। अंग्रेजों के शासनकाल में हमारे देश की शिक्षा-प्रणाली सोलह आने अंग्रेजों की रुचि पर आधारित थी। अंग्रेज भारत में शिक्षा का प्रचार-प्रसार इस प्रकार करने लगे कि भारत के लोग कागज के कीड़े हो सके, कार्यालया में बड़ा बाबू हो सके, क्लर्क से कुछ अधिक न हो, प्रतिभा का उदय न हो सके और प्रतिभा का विकास न हो। अंग्रेज भारतीयों को मात्र शिक्षित बनाकर अपना उल्लू सीधा करने योग्य बनाना चाहते थे। अंग्रेजी अनिवार्य थी। अंग्रेजी बोझ थी। उस बोझ को ढोना भारतीयों की विवशता थी। कुछ प्रतिभाशाली और संपन्न परिवार के युवक विदेश आकर शिक्षा ग्रहणकरते थे और अपना स्तर ऊंचा उठा पाते थे।
भारत के आजाद होने के बाद भी यहां उसी पुरानी पद्धति से पठन-पाठन होता रहा। बल्कि आज तक वही घिसी-पिटी शिक्षा प्रणाली चली आती रही। आज की शिक्षा प्रणाली सिर्फ उपाधि हासिल करने के लिए, इसका व्यावहारिक शिक्षा से कोई वास्ता नहीं है। इन उपाधियों को हासिल करने से छात्रों की आंखों की रोशनी मंद पड़ जाती है। शरीर दुबला हो जाता है, लेकिन डिग्री प्राप्त करने के बाद भी कहीं नौकरी या व्यवसाय का ठिकाना नहीं रहता है।
भारतीय मनीषियों ने शिक्षा का मूल ध्येय मनुष्य को मनुष्य और पुनः देवता बनाना कहा है। वही हमारे जीवन में आत्मगौरव, स्वावलंबन, ज्ञानार्जन की डटकर लालसा, दया-क्षमा, स्नेह-सहानुभूति, कष्ट-सहिष्णुता और परोपकार एवं कर्तव्य पालन की क्षमता आदि गुणों को जगाती है। वर्तमान शिक्षा प्रणाली आज हमारे छात्रों को अद्यःवतनी ओर ले जा रही है। न उसमें ज्ञान की गरिमा है, न रूप-सौंदर्य का आकर्षण, न चरित्र का उत्कर्ष, न व्यवहार की कुशलता। उसमें न श्रद्धा की भावना है, न परस्पर स्नेह का उत्सव। आज सर्वत्र छात्र-जीवन में अवगणों का, अनुशासन हीनता का, ज्ञान शून्यता का, फैशनपरस्ती का बोलबाला है। न माता-पिता और न गुरु के प्रति निज कर्तव्य-पालन का ध्यान है, न जीवन का उच्चादर्श है।
आज की शिक्षा-पद्धति से चरित्रहीनों एवं बेरोजगारों की एक भीड़ पैदा हो रही है। ये चरित्रहीन, बेकार लोग आए दिन ट्रेन डकैती, बैंक डकैती एवं अपहरण आदि को अपनी जीविका का साधन बना लेते हैं। आधुनिक शिक्षा-पद्धति डॉक्टर, इंजीनियर, राजनेता आदि तो बनाती है, लेकिन आदमी तब न पाती है। आज का डॉक्टर नाड़ी नहीं, रोगी की जेबें टटोलता है। इंजीनियर अपने निर्माण के बाद ही देश-निर्माण की बात सोचता है। राजनेता नित्य नये-नये घोटाले करता जाता है।
आज की शिक्षा-पद्धति में आमूल परिवर्तन की आवश्यकता है। शिक्षा मार्जनात्मक होनी चाहिए जहां से निकलकर छात्रों को नौकरी न ढंढनी पडे। बल्कि छात्र स्वयं नौकरी का सजन कर ले। शिक्षण-पद्धति से व्यक्ति में राष्ट्रप्रेम, समाज सेवा, त्याग एवं ईमानदारी की भावना उत्पन्न और विकसित हो। जो अंबेडकर ने कहा था, “शिक्षा एक ऐसी वस्तु है जो प्रत्येक व्यक्ति तक पहुंचनी चाहिए। शिक्षा सस्ती-से-सस्ती हो ताकि निर्धन-से-निर्धन व्यक्ति भी शिक्षा प्राप्त कर सकें।”
अभी भारत में शिक्षा 10 2 3 के स्वरूप से दी जाती है। इसका मतलब दसवीं कक्षा तक राज्य स्तरीय बोर्ड का जाल है, दो वर्षों तक राज्य स्तरीय इंटर मीडिएट जिला बोर्ड का गठन किया गया है। और तीन वर्षों तक के लिए स्नातक शिक्षा की व्यवस्था है। शिक्षा में आवश्यक परिवर्तन के लिए कोठारी आयोग का गठन किया गया था। सन् 1968 ई. में उन्होंने अपनी रिपोर्ट दे दी थी। उसे फिर से खड़ा किया जा रहा है। उसमें कहा गया है कि शिक्षा को व्यावसायिक और उत्पादन से जोडा जाए। उसी के अनुरूप 10+ 2+ 3 की शिक्षा-योजना प्रारंभ की जाए। अभी भारत में सी.बी.एस.ई., एन.सी.ई.आर.टी., आई.सी.एस.ई. के आधार पर शिक्षा दी जाती है।
आज की शिक्षा-पद्धति में सुधार के लिए आवश्यक है कि शिक्षा को नौकरी प्राप्त करने का साधन मानने की बात सबसे पहले खत्म की जाए। नौकरी के लिए उस विशेष विभाग की दक्षता को अपेक्षित योग्यता समझी जाए, जिसमें कार्य करना है, तभी उच्चतर विद्यालयों के दो वर्षीय पाठ्यक्रम में रोजगार परक प्रशिक्षण ईमानदारी से ग्रहण करेंगे। यदि अधिक लोग 10 2 3 की शिक्षा लेकर प्रशिक्षण रोजगारों में लग जाएंगे और राष्ट्रीय उत्पादन करने लगेंगे, तो तीन वर्षीय विश्व-विद्यालयी पाठ्यक्रम में अनावश्यक भीड़ न होगी। यह भीड़ भी पत्राचार पाठ्यक्रम या प्राइवेट परीक्षा की सुविधा द्वारा नियंत्रित की जा सकेगी। उच्च शिक्षा में वास्तविक खर्च रखने वाले छात्र प्रवेश पा सकेंगे। इस प्रकार विश्वविद्यालयों में प्रवेश की समस्या को लेकर जो हंगामा खुली भर्ती के नाम पर होता है। इतना होने पर भी सार्थक और सोद्देश्य शिक्षा की संभावनाएं स्पष्ट हो सकेंगी। शिक्षा के क्षेत्र में व्यवस्था एवं शांति स्थापित हो सकेगी और शिक्षा के द्वारा छात्रों में मानवीय मूल्यों को प्रतिस्थापित किया जा सकेगा। इसलिए-
सर्वप्रथम कर्तव्य प्रगति शिक्षा की संप्रति,
इसके बिना नहीं हो सकती उन्नति!
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