Hindi Essay on “Upanyas Padhne ke Labh aur Hani” , ”उपन्यास पढ़ने से लाभ और हानि” Complete Hindi Essay for Class 10, Class 12 and Graduation and other classes.
उपन्यास पढ़ने से लाभ और हानि
Upanyas Padhne ke Labh aur Hani
इस यांत्रिक युग में मनोरंजन से ही मस्तिष्क को शान्ति प्राप्त होती है। वैसे मनोरंजन के साथ ही ज्ञान प्राप्ति के साधन सत्संग, चित्रपट दर्शन आदि हैं; परन्तु ये साधन सर्वथा सुलभ नहीं हैं। ऐसी स्थिति में बुद्धि विकास एवं मनोरंजन का श्रेष्ठतम साधन पुस्तक अध्ययन ही है। इसमें भी लोग कथा साहित्य या उपन्यास के पठन में विशेष अभिरुचि रखते हैं।
वर्तमान हिन्दी उपन्यास हिन्दी साहित्य के लिए सर्वथा एक नवीनतम देन है ‘उपन्यास’ शब्द का अर्थ आज जिस रूप में प्रयुक्त होता है, वह मूल ‘उपन्यास’ शब्द से सर्वथा भिन्न है। इसकी व्युत्पत्ति उप+नि+आस से हुई है जिसका शाब्दिक अर्थ है सामने रखना। इसके द्वारा उपन्यासकार पाठक के निकट अपने मन की कोई विशेष बात या नवीन मत रखता है। विभिन्न विद्वानों ने उपन्यास की परिभाषा अनेक रूपों में की है। डॉ० श्यामसुन्दर दास के मतानुसार, उपन्यास मनुष्य के वास्तविक जीवन की काल्पनिक कथा है। प्रेमचन्द के विचारों में उपन्यास मानव चरित्र का चित्र मात्र है। भगवतशरण उपाध्याय साहित्य के अन्य अंगों के समान उपन्यास को जीवन का दर्पण मानते हैं। परन्तु आज उपन्यास गद्य साहित्य की एक विशेष विधा के रूप में माना जाता है।
तत्त्वों की दृष्टि से विद्वानों ने उपन्यास के छह तत्त्व माने हैं-(1) कथा वस्तु, (2) चरित्र-चित्रण. (3) कथोपकथन, (4) शैली, (5) देशकाल, (6) बीज या उद्देश्य । तत्त्वों का वर्गीकरण युरोपीय है। उक्त छह तत्त्वों में से तीन प्रमुख माने जाते हैं-कथानक या घटनाक्रम, चरित्र या पात्र और बीज या उद्देश्य। जहाँ कहीं बीज या उद्देश्य नहीं होता वहाँ मनोरंजन ही उद्देश्य होता है। वैसे आज के उपन्यासों का उद्देश्य केवल मनोरंजन न होकर मानव समाज के विविधांगों की व्याख्या करना तथा उस पर विचार करना है। इन प्रमुख तत्त्वों के आधार पर उपन्यासों के चार प्रधान भेद माने जाते हैं-(1) घटना प्रधान, (2) चरित्र प्रधान, (3) नाटकीय, (4) ऐतिहासिक।।
आज उपन्यास का स्तर बहुत उच्च है। भले ही प्रारम्भिक उपन्यास सामान्य रहे हो। आज के युग में उपन्यास पढ़ना बुरा नहीं समझा जाता। उपन्यास साहित्य है और साहित्य की परिभाषा ही है, ‘हितेन साहितम्’ । अतः उपन्यास पढ़ने से अनेक लाभ हैं। सर्वप्रथम उपन्यास व्यक्ति और समाज का हित करता है। उपन्यास मनोरंजन के साथ मानसिक विकास भी करता है। मनोरंजन ही न कवि का कर्म हो’ के सिद्धान्त के अनुसार उपन्यासकार मनोरंजन के साथ हमें अच्छा ज्ञान भी प्रदान करता है। थामस हार्डी, गोर्की व प्रेमचन्द के उपन्यास हमें तत्कालीन सामाजिक स्थिति का अच्छा ज्ञान प्रदान करते हैं । वृन्दावनलाल वर्मा व चतुरसेन शास्त्री के उपन्यासों को पढ़ने से हमें ऐतिहासिक ज्ञान होता है। मनोरंजन व ज्ञान-बुद्धि के साथ-साथ उपन्यास पठन का एक बहुत बड़ा लाभ यह है कि उससे अध्ययन तथा पढ़ने में रस प्राप्त होता है। धीरे-धीरे पढ़ने में अभिरुचि इतनी बढती है कि अन्य पुस्तकें पढ़ने को भी जी करने लगता। चरित्र-निर्माण तथा परिस्थितियों के अनुकूल आचरण बनाने का भी पाठ उपन्यास सिखाते हैं। ये पाठक को साहसी, वीर व कर्मठ बनाने में भी सक्षम हैं। उपन्यास का चयन श्रेष्ठ हो, तो मानव की अनेक सुवृत्तियों का विकास होता है। किसी दिव्य पात्र के यथार्थ गुणों के प्रति हमें ग्रहण करने की प्रेरणा प्राप्त होती है। भाषा परिष्कार व उसके विकास तथा नवीन शब्द ज्ञान के विचार से भी इनका विशेष महत्त्व है। श्रेष्ठ लेखक के उपन्यास से हम अनेक ला उठा सकते हैं।
यह सत्य है कि उपन्यास पढ़ने से अनेक लाभ हैं; किन्तु सभी उपन्यास लाभदायक नहीं होते। प्रायः ऐसे उपन्यास भी लिखे जाते हैं, जिनमें कोरी कल्पना या बेतुकी बाता का समावेश होता है। उनमें न तो शील होता है और न चरित्र ही. ऐसे उपन्यासों को पढने से चरित्र बिगड़ने के अतिरिक्त अन्य कुछ लाभ नहीं होता है।
दूसरी हानि यह है कि उपन्यास पाठक को कल्पना जगत् का प्राणी बना देते हैं। और वे इस ठोस धरातल एव यथार्थ जगत् की अपेक्षा काल्पनिक विश्व में विचरण करते सो खोये से रहते है तथा काल्पनिक उपन्यास की नायक-नायिकाओं के समान अपने अनुभव करते हैं।
तीसरी हानि यह है कि उपन्यास-रचना को धनार्जन का साधन बनाकर, केवल कला-कला के लिए’ न बना कर उपन्यासकार अपना उल्लू सीधा करते हैं। ऐसे उपन्यास सस्ते मनोरंजन के साधन मात्र अश्लीलता के सागर होते हैं जिनका प्रभाव समाज पर बहुत बुरा पड़ता है।
इसमें से अनेक हानियाँ तो ऐसी हैं जो जन-सामान्य पर प्रभाव डालती हैं; किन्तु कुछ विशेष अवस्था के पाठकों पर ही प्रभाव डालती हैं। अतः उपन्यास पठन से लाभ और हानि दोनों हैं; परन्तु फिर भी हानि की अपेक्षा लाभ अधिक हैं। यदि ‘साधु को ऐसा चाहिए जैसा सूप सुभाय । सार-सार को गहि रहे थोथा देय उड़ाय।’ को ध्यान रखकर हम इसकी अच्छाइयाँ ही ग्रहण करें, बुराइयों की तरफ दृष्टिपात न करें, तो हमें उपन्यास पढ़ने से लाभ ही लाभ हो सकते हैं। आज उपन्यासकार यदि अपने दायित्व को निभाएँ तो उपन्यास के माध्यम से आज के भ्रष्ट समाज को चरित्रवान् एवं शीलयुक्त बनाना संभव हो सकता है।