Hindi Essay on “Suryakant Tripathi Nirala” , ”सूर्यकांत त्रिपाठी निराला ” Complete Hindi Essay for Class 9, Class 10, Class 12 and Graduation and other classes.
सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’
Suryakant Tripathi ‘Nirala’
शताब्दियों बाद ऐसी प्रतिभांए जन्म लिया करती हैं कि जिनकी गुणवत्ता जन-जीवन में एक कहानी बन जाए। सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ ऐसे ही व्यक्ति थे। अपने स्वभाव के निराले महाप्राणत्व से हिंदी-कविता के एक युग पर छाए रहने वाले महाकवि सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ अपने उपनाम के अनुरूप ही वास्तव में नए-निराले थे। इनका जन्म बंगाल प्रांत के महिषादल राज्य के जिला मेदिनीपुर में सन 1889 में हुआ था। इनके पिता मूलत: उत्तर प्रदेश के निवासी थे। पिता पं. रामसहाय त्रिपाठी महिषादल राज्य में नौकरी करते थे। उन्हीं के कठोर अनुशासन में निराला जी का लालन-पालन हुआ। इनकी शिक्षा-व्यवस्था राज्य की ओर से बंगला भाषा में ही की गई थी। मैट्रिक पास करने के बाद इन्होंने स्कूल त्याग दिया। बाद में घर पर रहकर ही संस्कृत-अंग्रेजी के साथ संगीत तथा विभिन्न दर्शनों का भी अध्ययन करते रहे। पहलवानी का भी उन्हें बहुत शौक था। उन्होंने पहले बंगला में ही कविता- रचना भी शुरू की थी। विवाह के बाद पत्नी की प्रेरणा से उन्होंने हिंदी भाषा सीखी ओर फिर हिंदी में कविता करने लगे। इस महान कला-साधक का स्वर्गवास सन 1962 में अत्यंत विषम परिस्थितियों में हुआ। जीवन भी अनेकविध विडंबनाएं और विषमतांए ढोते हुए ही बीता। इसी सबने उन्हें कालजयी बना दिया।
निराला जी के जीवन में एक के बाद एक संकट आते रहे। अभी केवल 20 वर्ष के थे कि इन्हें पत्नी का वियोग सहन करना पड़ा। इसके बाद पहले इनकी बेटी सरोज विधवा हुई और फिर स्वंय भी मर गई। इन दोनों घटनाओं ने मानसिक तौर पर निराला जी को तोडक़र रख दिया। उस पर प्रकाशकों के स्वार्थपूर्ण व्यवहार, अपनों द्वारा ही की जाने वाली हेरा-फेरी आदि ने उन्हें भीतर-बाहर से असंतुलित बना दिया। स्वभाव के बड़े स्वाभिमानी थे, अत: पिता के बाद इनका निभाव महिषादल राज्य के साथ न हो सका। वहां की नौकरी छोड़ दर-दर की ठोकरें खाते फिरे। प्रकाशक और तथाकथित शुभ-चिंतक अलग से इनका शोषण करते रहे। कुछ दिनों तक यह कलकत्ता में स्थित रामकृष्ण आश्रम में रहे। वहां उन्होंने स्वामी विवेकानंद की विचारधारा का गंभीर अध्ययन किया। वहीं पर ‘समन्वय’ पत्र का दो वर्षों तक संपादन भी करते रहे। रोटी-रोजी के लिए उन्हें प्रूफरीडिंग तक करनी पड़ी और भी पता नहीं क्या-क्या कष्ट सहने पड़े।
इनकी काव्य रचना यों सन 1915 से ही प्रारंभ हो गई थी, पर उनका प्रथम कविता-संग्रह ‘परिमल’ नाम से सन 1929 में ही प्रकाशित हो सका। इसके बाद छपने वाले इनके काव्यों के नाम हैं-अनामिका, गीतिका, तुलसीदास, कुकुरमुत्ता, अणिमा, बेला, नए पत्ते, अर्चना, अराधना आदि। छायावादी चेतना की दृष्टि से इनकी ‘परिमल’ और ‘अनामिका’ का विशेष महत्व माना जाता है। ‘तुलसीदास’ और ‘राम की शक्ति पूजा’ इनके द्वारा रचे गए ओजस्वी खंड-काव्य हैं। इसके बाद की रचनाओं में प्रगतिवादी-समाजवादी धारा का प्रभाव स्पष्ट रूप से दिखाई देने लगता है। बाद की ‘कुकुरमुत्ता’ की रचनाओं के करारे व्यंज्य-विनोद का भाव अधिक तीव्र हो उठा है। इनकी दार्शनिक गंभीरता भी उल्लेखनीय है। उसे कठिन और दुर्बोध्य भी कहा जाता है।
कविता के अतिरिक्त कहानियां, उपन्यास, निबंध और आलोचना लिखकर भी निराला जी ने हिंदी साहित्य के विधात्मक रूपों के विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया। इनके प्रमुख कहानी-संकलनों के नाम हैं-चतुरी चमार, सुकुल की बीवी, सखी, लिली आदि। इनके उपन्यासों के नाम हैं-अप्सरा, अलका, प्रभावती, निरुपमा, चमेली अच्छृंखला। ‘बिल्लेसुर बकरिहा’ और ‘कुल्ली भाट’ में इनके द्वारा रचे गए रेखाचित्र संकलित हैं। इनके द्वारा रचे गए आलोचनात्मक लेखें और निबंधों का संकलन इन रचनाओं में हुआ है : प्रबंध-पदम, प्रबंध-परिचय, प्रबंध-प्रतिभा और रवींद्र कविताकानन। छायावादी स्वतंत्र-बोध रचे गए इनके कुछ और प्रकीर्ण निबंध भी यत्र-यत्र मिलते हैं।
इस प्रकार स्पष्ट है कि ‘निराला’ वास्तव में चहुंमुखी प्रतिभा के धनी कलाकार थे। पर वे यश5नाम विशेषकर कविता-क्षेत्र में ही अर्जित कर पाए। छायावादी कविता को छंदों के परंपरागत बंधनों से मुक्त कराने के कारण इनका विशेष मान और यश स्वीकार किया जाता है। हिंदी की छायावादी काव्यधारा के एक प्रमुख आधार-स्तंभ होने के कारण इनका नाम हमेशा हमर रहेगा। भाव, विचार और शैली-शिल्प आदि हर स्तर पर अपनी अलग-थलग पहचान रखने वाले ऐसे निराले कवि बहुत कम ही देखने-सुनने में आते हैं।
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