Hindi Essay on “Surdas” , ”सूरदास ” Complete Hindi Essay for Class 9, Class 10, Class 12 and Graduation and other classes.
सूरदास
Surdas
निबंध नंबर :- 01
सूरदास का संबंध मध्यकाल (भक्ति काल) के सगुणवादी भक्ति आंदोलन से है। जीवन और काव्यू को मधुर-कोमल भावों से सजाने-संवारने वाले महाकवियों में भक्तप्रवर सूरदास की गणना प्रमुख रूप से होती है। मध्य काल में गोस्वामी बल्लभाचार्य ने जिस कृष्णभक्ति शाखा की प्रतिष्ठा और प्रचार किया था, सूरदास उसके प्रमुख कवि और गायक माने जाते हैं। परंतु खेद के साथ कहना पड़ता है कि इनका जीवन-परिचय अभी तक विद्वानों में मतभेद का विषय बना हुआ है। कई प्रकार की कहानियां और किंवदंतियां इनके जीवन के बारे में प्रचलित हैं। अंतिम निर्णय होना अभी शेष है। वह पता नहीं कभी संभव हो भी पाएगा कि नहीं।
इनके जन्म स्थान के बारे में कई मतभेद पाए जाते हैं। एक मत के अनुसार इनका जन्म-स्थान रुनकता नामक क्षेत्र था। पर अन्य मत के अनुसार इनका जन्म बल्लभगढ़-गुडग़ांव नामक क्षेत्र था। एक मान्यता के अनुसार इनका जन्म बैशाख मास शुक्ल पंचमी के दिन संवत 1535 में हुआ माना जाता है। माता-पिता कौन और क्या थे, यह अभी तक अंतिम रूप से पता नहीं चल सका। कहा जाता है कि इनके पिता कथावाचक थे। दो बड़े भाई भी थे, जो सूर के अंधे होने पर मधुर-स्वर और कविता-शक्ति की बदौलत बचपन में ही सम्मानित होने के कारण जलने लगे थे। बाद में उन्होंने पिता से कहकर इन्हें घर से निकलवा दिया था। भटकते हुए गऊघाट पर पहुंच गा-गाकर अपनी रोजी-रोटी पाने लगे थे। कुछ लोग इन्हें प्रसिद्ध कवि चंदरवरदाई का वशंज ब्रह्मभट भी मानते हैं जबकि कुछ लोग इन्हें प्रसिद्ध कवि चंदरवरदाई का वशंज ब्रह्भाट भी मानते हैं जबकि कुछ लोग इन्हें पहले का पं. विल्व मंगल कहते हैं, जिसने एक वेश्या के प्रेम में पागल हो अपनी आंखें आप ही फोड़ ली थी। इसी प्रकार कुछ लोग कहते हैं कि सूरदास जन्म से अंधे थे, कुछ मानते हैं कि प्रेम में इन्होंने निराश होकर आंखें फोड़ ली थीं, कुछ लोग कहते हैं कि युद्ध में इनकी आंखें जाती रही थीं। ऐसा माना जाता है कि भगवान कृष्ण की कृपा-भक्ति से इन्हें दिव्य दृष्टि प्राप्त हो गई थी, जिसके प्रभाव से इन्होंने अपने काव्य में प्रकृति और रंगों आदि का बड़ा सजीव, यथाथ एंव प्रभावी वर्णन किया है।
सूरदास गोस्वामी बल्लभाचार्य के शिष्य थे। इस शिष्यता के बारे में भी एक घटना प्रचलित है। कहते हैं कि सूरदास मथुरा-आगरा-राजपथ पर स्थित गऊघाट पर अपने शिष्यों-भक्तों के साथ रहकर कृष्ण भक्ति के पद गाया करते। अपनी धर्म-प्रचार यात्रा के दौरान एक बार वहां पहुंच गोस्वामी बल्लभाचार्य ने इन्हें गाते सुना, देखा। प्रभावित होकर इन्हें अपना शिष्य बना लिया और कृष्णलीला के पद गाने का आदेश दिया। इन्हें मथुरा के प्रसिद्ध श्रीनाथ मंदिर का प्रमुख कीर्तनिया भी बना दिया। वहीं रहकर सूरदास जीवन भर लीला के पद रचते-गाते रहे। इनका स्वर्गवास संवत 1600 में पारसौली नामक स्थान पर हुआ माना जाता है।
ऐसी मान्यता है कि अपने जीवन-काल में सूरदास ने सवाल लाख के लगभग पद रचे थे। यह संख्या सागर के समान अथाह होने के कारण ही इनकी प्रमुख रचना का नाम ‘सूर सागर’ रखा गया है। गुरु बल्लभचार्य इन्हें ‘सागर’ कहकर पुकारा करते थे। जो हो, आजकल उपलब्ध ‘सूर सागर’ में चार-पांच हजार से अधिक पद नहीं मिलते। इनमें इन्होंने श्रीमदभागवत पुराण के दशम स्कंध के आधार पर भगवान श्रीकृष्ण के जन्म से लेकर मथुरा गमन तक की लीलाओं का गायन किया है। ‘सूर-सागर’ के अंतिम भाग को ‘भ्रमर गीत’ कहा जाता है। इसमें ब्रजवासिायों के कृष्ण-विरह का मार्मिक वर्णन तो है ही, सगुण-साकार ब्रह्म की महिमा भी प्रतिष्ठित कर, प्रेम-माधुर्य-भाव से उसकी भक्ति करने की प्रेरणा दी गई है। वात्सल्य रस के गायन में सूरदास अपना सानी नहीं रखते। सख्य भाव का उत्कर्ष और परिष्कार भी सूर से बढक़र अन्य कोई कवि नहीं कर सकता। संयोग और वियोग श्रंगार वर्णनों में भी वे अद्वितीय हैं। आचार्य रामचंद्र शुक्ल के शब्दों में ‘वात्सल्य भाव का तो वो कोना-कोना झांक आए थे।’ इसे कथन की अत्युक्ति न मान पूर्ण सार्थक कहा जा सकता है।
जहां तक रचनाओं का प्रश्न है, यों ‘सूरसागर’ के अतिरिक्त इनके चौबीस ग्रंथ ओर कहे जाते हैं, पर उनका कोई विशेष महत्व या विश्वसनीयता नहीं है। उनमं से ‘साहित्य लहरी’ और ‘सूर सारावली’ को अवश्य कुछ महत्व दिया जाता है। पर कवित्व की दृष्टि से ये दोनों भी महत्वहीन ही हैं। सूरदास की काव्य -भाशा ब्रज है। ब्रज भाषा का लालित्य इनकी कविता में साकार हो उठा है। प्रबंध का भाव प्रतीत होते हुए भी ‘सूर-सागर’ प्रगीत-मुक्तक काव्य ही माना जाता है। यह सत्य है कि सूरदास का काव्य जीवन के अन्य व्यवहार क्षेत्रों में रिक्त है, केवल माधुर्यभाव ही उसमें प्रमुख्पा है, पर उसमें जो और जितना भी है, वह वस्तुत: अद्वितीय और सूरदास की अमरता का कारण एंव प्रमाण है। हिंदी साहित्य में उसका साथी खोजने पर भी मिल पाना संभव नहीं है। इसी कारण इन्हें काव्य जगत का सूर अर्थात सूरज कहा-माना गया है।
निबंध नंबर :- 02
महाकवि भक्त सूरदास
Mahakavi Bhakt Surdas
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल तथा डॉ० श्यामसुन्दर दास हिन्दी साहित्य के सूर सूरदास का जन्म संवत् 1540 में आगरा से मथुरा जाने वाली सड़क पर स्थित रुनकता (रेणुका) नामक गाँव में सारस्वत ब्राह्मण परिवार में मानते हैं; किंतु कुछ साम्प्रदायिक ग्रंथों और कवि प्राणनाथ कृत ‘अष्ट सखामृत’ के आधार पर आपका जन्म स्थान दिल्ली से चार कोस दूर ‘सीही’ नाम ग्राम ठहरता है। यही स्थान प्रायः विद्वानों को मान्य है। आपके पिता का नाम रामदास था। आपके गुरु महाप्रभु वल्लभाचार्य जी थे। कुछ लोग आपको जन्मांध कुछ बाद में अँधा मानते हैं. सं० 1620 में गोवर्धन के निकट पारसोली ग्राम में गोस्वामी विठलनाथ की उपस्थिति में आप स्वर्गवासी हुए. आप वैष्णव सम्प्रदाए के थे.
रचनाएँ: आपकी प्रसिद्ध रचनाएँ इस प्रकार हैं:
- सूरसागर: यह बज्राभाषा का सबसे बड़ा मुक्त्य काव्य है. इसमें सवा लाख पद माने जाते हैं. जिनमें से किसी भी दशा दस हजार से अधिक पद अभी तक प्राप्त नही हुए हैं.
- सूर सारावली: यह वास्तव में छन्द संग्रह है. इसमें होली के दो-दो पंक्ति के के ग्यारह सौ सात छन्द है। यह सूर सागर की अनुक्रमणिका (सूची) है।
- साहित्य लहरीः यह भी सूरसागर ही से निकाला गया ग्रंथ माना जाता है। यह सूर के दृष्टकूट के एक सौ अठारह पदों का संग्रह है। इसमें नायक-नायिका भेट अलंकार, रस का विवेचन हुआ है। यह श्रृंगार रस प्रधान है, इसके साथ ही अन्य रसा का भी प्रतिपादन हुआ है। डॉ० लक्ष्मीनारायण वाष्र्णेय इसे अप्रामाणिक ग्रंथ मानते है
भावपक्ष की दृष्टि से सूर निःसंदेह अद्वितीय हैं। आपके काव्य में संगीत की कोमलता और भक्त की भावुकता पूर्ण-रूपेण भरी हुई हैं। आपकी उक्तियाँ हृदयस्पर्शिनी हैं। डॉ० श्यामसुन्दर दास के शब्दों में ‘महाकवि सूर रस-सिद्ध कवि हैं। आपने जिन रसों का प्रयोग किया है उन्हें पूर्णता तक पहुँचाने में आप सफल रहे हैं। आपके काव्य की आत्मा शान्त रस है। किन्तु पुष्टि सम्प्रदाय में दीक्षित होने के कारण सूरसागर में ‘वात्सल्य’ श्रृंगार’ की मुख्यता के साथ ही वीर, रौद्र, करुण, अदभुत, वीभत्स, हास्य आदि सभी रसों का प्रयोग मिलता है।
महाकवि सूरदास जी वल्लभाचार्य जी द्वारा प्रवर्तित पुष्टिमार्ग के समर्थक थे। आपके काव्य में भक्ति के सभी रूप दर्शनीय हैं; परन्तु सख्य भाव का प्राधान्य है। सूरदास ने कृष्ण को अपना मित्र मानकर उन्हें खूब खरी-खोटी सुनाई हैं।
‘आज हौं एक-एक कर टरिहौं ।
के हमर्हि कै तुम ही माधव अपुन भरोसे लरिहौं ।।‘
उर में माखन चोर गढ़े’-कहकर आप कृष्ण की भक्ति में तन्मय हो उठते हैं। आपका कलापक्ष भी अति सुगठित है।
महाकवि सूरदास साहित्यिक ब्रजभाषा के निर्माता हैं। आपके काव्य में यत्र-तत्र फारसी, उर्दू और संस्कृत के शब्द भी मिलते हैं। विनय तथा भक्ति के पदों में शैली भावाभिव्यंजक तथा प्रवाहपूर्ण है। कूट के पदों में शैली अत्यन्त अस्पष्ट, कठिन तथा दुरुह हो गई है। बाललीला तथा गोपी-प्रेम प्रसंग में शैली सरस, प्रवाहपूर्ण तथा माधुर्यमयी है। आपने अपने काव्य वर्णनात्मक भाग में चौपाई, चौबोला, दोहा, रोला, रूपमाला, सोरठा, सरसी, सवैया, लावनी छन्दों का प्रयोग किया है। मुक्त एवं गेय पदों में राग-रागनियों का सुन्दर प्रयोग है। आप हिन्दी साहित्याकाश के सूर्य हैं।