Hindi Essay on “Sur-Sur Tulsi Shashi” , ”सूर-सूर तुलसी शशिComplete Hindi Essay for Class 10, Class 12 and Graduation and other classes.
सूर-सूर तुलसी शशि
Sur-Sur Tulsi Shashi
भक्त कवि सूर और तुलसी हिन्दी साहित्याकाश के सूर्य और चन्द्र हैं। सूरदास सागर’ और तुलसीदास का ‘रामचरितमानस’ ऐसे दो काव्य ग्रन्थ हैं, जिनके अभाव हन्दी साहित्य प्रकाशहीन होकर नाममात्र को ही स्थिर रह जायेगा। इन्होंने जीवन के क्षत्र को पहचानकर अपनी पीयूषधारा से प्लावित किया है। यदि काव्य में हृदय लापक्ष का दृष्टि से इन महाकवियों की तलना की जाए तो अन्त में यह निर्णय काठन हो जाता है कि इन दोनों में श्रेष्ठ कौन है ? वैसे सूर और तुलसी का हिन्दी मान हा महत्त्व है यदि एक ओर हमें गोस्वामी तुलसीदास की बहुमुखी प्रतिभा आश्चर्यान्वित कर देती है, तो दूसरी ओर सूरदास जी की बेजोड़ एकमुखी प्रतिभा मन्त्रमुग्ध किए बिना नहीं रहती है। दोनों के काव्य हिन्दी साहित्य कोष के अमूल्य रत्न हैं। फिर भी इन दोनों को लेकर हिन्दी जगत् में विवाद है। हम अन्य दृष्टिकोणों को लेकर इनकी तुलना इस प्रकार करते हैं:
सूर और तुलसी दोनों ही सगुणोपासक कवि हैं। दोनों के इष्ट देव साकार भगवान हैं, किन्तु रूप भिन्न हैं। दोनों पहले भक्त थे और कवि पीछे। सूर के कृष्ण न तो ब्रह्म हैं, न महाभारत के वीर, अपितु वे तो रसिक-शिरोमणि कन्हैया हैं। सूर सख्य भाव की भक्ति द्वारा भगवान् कृष्ण को अपना मित्र मानकर उन्हें खूब खरी-खोटी सुनाते हैं :
‘अति अधिकार जनावति याते अधिक तुम्हारे हैं कछु नैया।
अतः सूर की भक्ति का आधार शुद्ध प्रेम है। वे सख्य भाव से अपने आराध्य के सम्मुख संकोच त्याग करके सब कुछ कह देते हैं। दूसरी ओर तुलसी की भक्ति दास्य भाव की है, वे अपने स्वामी से अनुचित शब्द नहीं कहते। वे स्वामी से स्वयं को तुच्छ मानते हुए कहते हैं:
‘राम से बड़ौ हौ कौन, मोसौं कौन छोटो?’
इस प्रकार दैन्य भरे शब्दों में तुलसी ने प्रत्येक स्थान पर मर्यादा का पालन किया है जबकि सूर ने सख्य भाव के कारण इसको त्याग दिया है। सूर के कृष्ण लोकरंजक हैं। सख्य भाव के कारण वह कृष्ण के अधिक सन्निकट हैं। इस दृष्टि से तो सूर का स्थान तुलसी से उच्च है; परन्तु सूर ने अन्य देवों की उपेक्षा की है जबकि तुलसी ने सभी देवताओं की प्रार्थना करके रामभक्ति का वरदान माँगा है, अतः यहाँ पर तुलसी सूर से बाजी मार ले गए हैं।
तुलसी और सूर की काव्य रचना की दृष्टि से तुलना की जाती है, तो सूर के ग्रन्थ केवल छह ही माने जाते हैं और उनमें भी सूरसागर, सूर-सारावली और साहित्य-लहरी तीन ही ग्रन्थ प्राप्त हैं। उधर तुलसीदास ने रामचरितमानस, विनयपत्रिका, कृष्ण गीतावली, दोहावली, कवितावली आदि बारह ग्रन्थों की रचना की है। ग्रन्थों की रचना की संख्या के आधार पर सूरदास जी तुलसीदास जी के समक्ष नहीं ठहर पाते हैं।
विषय की दृष्टि से तुलसीदास का क्षेत्र सूरदास के क्षेत्र से एकदम विपरीत है। तुलसी के काव्य में मानव-जीवन की जितनी अधिक वृत्तियों का चित्रण हुआ है उतना सूर के काव्य में नहीं। तुलसी के काव्य में नायक राम पुत्र भी हैं, भाई भी, भक्त वत्सल स्वामी भी और लोकनायक भी; किन्तु वे सर्वत्र मर्यादा का ध्यान रखते हैं। सूर ने अपने काव्य के नायक कृष्ण के बाल और किशोर जीवन के केवल सौन्दर्यतम स्वरूप का ही चित्रण किया है। कृष्ण चरित्र में सूर ने अलौकिकता का समावेश किया है। रामचरित मानस में तुलसी ने लौकिकता का से बहुत व्यापक है। तुलसी भक्त के हैं। सूर केवल भक्त एवं कवि हैं।
तुलसी ने लौकिकता का पूर्ण विकास दिखलाया है। तुलसी का विचार क्षेत्र सूर एक है। तुलसी भक्त, कवि, दार्शनिक, धर्म व्यवस्थापक और समाजसुधारक हैं। सूर केवल भक्त एवं कवि हैं।
इस दृष्टि ‘स दष्टिकोण से तुलसी उत्तम हैं। सूर ने मानव-जीवन की बालवृत्ति और यौवनवृति के बड़े सजीव चित्र उपस्थित किए हैं। इसके विपरीत तुलसी ने सभी रसों अपनाया है। जनकपुर में पुष्प-वाटिका में राम और सीता के मिलाप में श्रृंगार, राम जन-गमन पर करुण, लंकादाह में भयानक, नारद मोह में हास्य रस तथा गीतावली में का कीडाओं का बड़ा ही मनोहारी चित्रण है। भले ही वह वात्सल्य रस का चित्रण सर जैसा न कर पाये; किन्तु सभी रसों को अपने काव्य में स्थान देने के कारण उनका भी स्थान अपने में उच्च है।
यद्यपि सूर एवं तुलसी दोनों ही प्रकृति के पुजारी हैं; परन्तु सूर का प्रकृति-चित्रण, अधिक सरस, सरल, विस्तृत, स्वाभाविक और प्रभावशाली है। तुलसी ने प्रकृति का उपदेशात्मक रूप ही ग्रहण किया है जिसमें अनूठापन दृष्टिगत होता है।
सूरदास ने अपने काव्य की रचना ब्रजभाषा में की है। भाषा के ऊपर जैसा अधिकार तुलसी का था, वैसा सूर का नहीं। वे कई भाषाओं के पण्डित थे। उन्होंने अपने काव्य का माध्यम ब्रज व अवधी दोनों भाषाओं को बनाया। सूर साहित्य भी परिष्कृत है; परन्तु तुलसीदास जी की भाषा भी सर्वत्र प्रौढ़ और मंजी हुई है। सूर ने केवल गीति शैली में पद लिखे हैं; किन्त तुलसी ने गीति शैली के साथ-साथ उस समय की प्रचलित सभी शैलियों में सफल लेखनी चलाई है।
दोनों कवियों के काव्यों में अलंकारों की स्वाभाविक योजना है। तुलसी ने श्लेष और यमक जैसे चमत्कारमूलक अलंकारों का प्रयोग बहुत कम किया है। उनके काव्य 7 उपमा, रूपक उत्प्रेक्षा व्यतिरेक आदि अलंकार अपने स्थानों पर स्वाभाविक रूप में पान की भाँति जड़े हुए हैं। सूर के अलंकार उक्ति-वैचित्र्य का बढ़ाने वाले हैं। उन्होंने उत्प्रक्षा, उपमा, रूपक और रूपकातिशयोक्ति को अधिक अपनाया है। सूर अतिशयोक्ति की सीमा लाघने लगते हैं, तो तुलसी अपने लम्बे रूपकों के लिए प्रसिद्ध हैं। सूर की वक्रोक्तियाँ अत्यंत अनूठी है, तो तुलसी का अलंकार-विधान भावाभिव्यक्ति में सहायक है।
‘सूर-सूर’ तुलसी का तुलसी-शशि’ उक्ति की सार्थकता इसी बात में निहित है कि दोनों ही हिन्दी-साहित्य के महान कवि हैं। इन दोनों के कारण ही भक्तिकाल स्वर्णयुग कहलाया। दोनों का प्रभाव अपन महत्व है।