Hindi Essay on “Netaji Subhash Chandra Bose” , ”नेताजी सुभाषचंद्र बोस” Complete Hindi Essay for Class 10, Class 12 and Graduation and other classes.
नेताजी सुभाषचंद्र बोस
Netaji Subhash Chandra Bose
निबंध नंबर :- 01
सुभाषचंद्र बोस का जन्म 23 जनवरी 1817 को कटक में हुआ था। सन 1913 में उन्हांने कलकत्ता विश्वविद्यालय की मैट्रिक परीक्षा द्वितीय स्थान प्राप्त करते हुए उत्तीर्ण की। सन 1914 में मन की शांति के लिए वे हरिद्वार चले गए किंतु कुछ समय बाद वापस लौट आए।
सन 1916 की एक घटना है। प्रेसीडैंसी कॉलेज, कलकत्ता के एक अध्यापक ओटन ने भारतीयों के लिए कुछ अपशब्द कहे। इस पर सुभाषचंद्र बोस को बहुत क्रोध आया। उन्होंने ओटन के गाल पर दो-चार तमाचे जड़ दिए। इस कारण उन्हें कॉलेज से निकाल दिया गया।
सन 1919 में उन्होंने बी.ए. ऑनर्स की परीक्षा ससम्मान उत्तीर्ण की थी-श्रेणी प्रथम था और स्थान चतुर्थ। सन 1921 में कैंब्रिज विश्वविद्यालय से दर्शान शास्त्र में ऑनर्स की परीक्षा उत्तीर्ण की। कुछ दिनों तक उन्होंने सरकारी सेवा भी की, किंतु निजी स्वतंत्रता में बाधक बनने के कारण उन्होंने नौकरी छोड़ दी। आगे चलकर उनकी मुलाकात महात्मा गांधी से हुई। दोनों ने एक-दूसरे के विचार पसंद किए। सन 1921 में सुभाषचंद्र बोस को असहयोग आंदोलन में भाग लेने के लिए गिरफ्तार कर लिया गया। उन्हें छह माह की जेल की सजा हुई। सजा पूरी होने के बाद उन्हें कारागार से मुक्त कर दिया गया। फिर तो जेल आना-जजाना उनका कर्म-दंड बन गया। 29 जनवरी, 1931 को सुभाषचंद्र बोस को ‘अखिल भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस’ का अध्यक्ष चुना गया। सन 1940 में वे कांग्रेस की नीतियों से खिन्न हो गए थे। उनकी यह खिन्नता आगे चलकर बड़ी प्रभावकारी सिद्ध हुई। स्वतंत्रता संग्राम में अत्याधिक सक्रियता के कारण अंग्रेज सरकार ने उन्हें उनके घर में ही नजरबंद कर दिया था। 27 जनवरी 1949 को यह बात पता चली कि सुभाष कलकत्ता स्थित निवास से रहस्यपूर्ण ढंग से न जाने कहां चले गए। वहां से वह काबुल होते हुए बर्लिन और टोकियो गए।
वहां रहकर उन्होंने गोरी हुकूमत के विरुद्ध युद्ध के लिए भारतीयों को संगठित किया। 29 अक्तूबर 1946 को उन्होंने ‘आजाद हिंद फौज’ का गठन किया। उन्होंने अपनी सेना को कूच का आदेश दिया और कहा ‘दिल्ली चलो’। आजाद हिंद फौज भारत की सीमा तक आ पहुंची और अंग्रेजी सेना से प्रत्येक लड़ाई लड़ते हुए आगे बढ़ रही थी। इसी दौरान जापान की हार होने लगी और फिर सेना को पर्याप्त सहायता न मिल सकी। नेताजी ने अपनी स्वतंत्र सरकार गठित की थी और अपने स्वतंत्र रेडियो से भारतवासियों को संबोधित भी किया। देशवासियों से उन्होंने आह्वान किया- ‘तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हे आजादी दूंगा।’
18 अगस्त, 1945 को एक विमान दुर्घटना में उनकी मुत्यु हो गई।
निबंध नंबर :- 02
सुभाष चंद्र बोस
Subhash Chandra Bose
‘नेताजी’ के नाम से विख्यात सुभाष चंद्र बोस एक महान नेता थे जिनके अंदर देश-भक्ति का भाव कूट-कूट कर भरा हुआ था । राष्ट्र के प्रति उनके समर्पण भाव व बलिदान के लिए राष्ट्र सदैव ही उनका ऋणी रहेगा ।
नेताजी का जन्म सन् 1897 ई0 के जनवरी माह की तेईस तारीख को एक धनी परिवार में हुआ था । उनके पिता एक प्रसिद्ध वकील थे । नेता जी बाल्यावस्था से ही अति कुशाग्र बुद्धि के थे । अपने विद्यारर्थी जीवन में वे सदैव अव्वल रहे । उन्होंने अपनी स्नातिक परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की तथा इसके पश्चात् उच्च शिक्षा के लिए ब्रिटेन चले गए । वहाँ उन्होंने विख्यात कैब्रिज विश्वविद्यालय में प्रवेश ले लिया । अपने पिता जी की इच्छा का सम्मान रखने के लिए उन्होंने ‘आई0 एस0 सी0’ की परीक्षा उत्र्तीण की जो उन दिनों अत्यधिक सम्माननीय समझी जाती थी । परंतु उन्होंने तो देश सेवा का व्रत लिया था अतः उच्च अधिकारी का पद उन्हें रास नहीं आया जिसके फलस्वरूप उन्होंने त्यागपत्र दे दिया और स्वतंत्रता संग्राम में कूद पड़े ।
देश को अंग्रेजी दासता से मुक्त कराने का सपना संजोए नेता जी कांग्रेस के सदस्य बन गए । सन् 1939 ई0 को उन्होंने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की अध्यक्षता सँभाली परंतु गाँधी जी के नेतृत्व के तरीके तथा अन्य वैचारिक मतभेद के चलते उन्होंने अध्यक्ष के पद से त्यागपत्र दे दिया । वे गाँधी जी के अहिंसा के मार्ग से पूरी तरह सहमत नहीं थे । सुभाष चंद्र बोस का मत था कि अनुनय-विनय और शांतिपूर्ण संघर्ष के रास्ते पर चलकर भारत को स्वतंत्र कराने में काफी समय लगेगा और तब तक देश शोषित और पीड़ित होते रहेगा । वे कांग्रेस के माध्यम से देश में एक उग्र का्रंति लाना चाहते थे ।
अंग्रेजो को देश से उखाड़ फेंकने के लिए उन्होंने अन्य राष्ट्रों से सहायता लेने का फैसला किया । द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान वे देश से निकलने में सफल रहे तथा जर्मनी पहुँचकर ‘हिटलर’ के सहयोगियों से अंग्रेजों के विरूद्ध सहयोग पर चर्चा की । ‘‘तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूँगाा ’’ का प्रसिद्ध नारा नेता जी द्वारा दिया गया था । उनकी वाणी व भाषण में इतना ओज होता था कि लोग उनके लिए पूर्ण समर्पण हेतु सदैव तैयार रहते थे ।
जर्मनी से पर्याप्त सहयोग न मिल पाने पर नेताजी जापान आए । यहाँ उन्होंने कैप्टन मोहन सिंह एवं रासबिहारी बोस द्वारा गठित आजाद हिंदी फौज की कमान सँभाली । इसके पश्चात् आसाम की ओर से उन्होंने भारत में राज कर रही अंग्रेजी सरकार पर आक्रमण कर दिया । उन्हें अपने लक्ष्य में थोड़ी सफलता भी मिली थी परंतु दुर्भाग्यवश विश्वयुद्ध में जर्मनी और जापान की पराजय होने से उन्हें पीछे हटना पड़ा । वे पुनः जापान की और हवाई जहाज से जा रहे थे कि रास्ते में जहाज के दुर्घटनाग्रस्त हो जाने से उनकी मृत्यु हो गई । उनकी मृत्यु के साथ ही राष्ट्र ने अपना सच्चा सपूत खो दिया । इस दुर्घटना का स्पष्ट प्रमाण न मिल पाने के कारण वर्षो तक यह भ्रांति बनी रही कि शायद सुभाष जीवित हैं । सत्यता की जाँच के लिए बाद मे एक आयोग गठित किया गया जिसका कोई निष्कर्ष आज तक नहीं निकल पाया है । अतः वायुयान दुर्घटना की बात ही सत्य के अधिक करीब लगती है ।
नेता जी का बलिदान इतिहास के पन्नों पर अजर-अमर है । उन्होंने राष्ट्र के सम्मुख अपने स्वार्थो को कभी आड़े आने नही दिया । उनकी देशभक्ति और त्याग की भावना सभी देशवासियों को प्रेरित करती रहेगी । स्वतंत्रता के लिए उनका प्रयास राष्ट्र के लिए उनके प्रेम को दर्शाता है । हमारा कर्तव्य है कि हम उनके बलिदान को व्यर्थ न जाने दें और सदैव देश की एकता, अखंडता व विकास के लिए कार्य करते रहें ।
निबंध नंबर :- 03
नेताजी सुभाष चन्द्र बोस
हमारी भारत भूमि ने अमर शहीद सरदार भगत सिंह, नेताजी सुभाषचन्द्र बोस और चन्द्रशेखर आजाद आदि अनगिनत ऐसे महान देशभक्तों को जन्म दिया है जो देश की स्वाधीनता की बलिवेदी पर हंसते-हंसते शहीद हो गए। यद्यपि शारीरिक रूप से वे अब हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन उनकी स्मृति भारत की कोटि-कोटि जनता के हृदयों में आज भी सुरक्षित है। इस प्रकार के महान देशभक्त कभी मरते नहीं हैं, वे सदा के लिये अजर-अमर हो जाते हैं।
नेताजी सुभाषचन्द्र बोस का जन्म 23 जनवरी, 1897 को पश्चिमी बंगाल में कुदालिया नामक एक गांव में हुआ। था। उनके पिता श्री जानकीनाथ बोस उडीसा के कटक शहर में वकालत करते थे और अपने समय के एक नामी वकील थे। नेताजी की मां का नाम श्रीमती प्रभावती था।
सुभाष बाबू की प्रारम्भिक शिक्षा-दीक्षा कटक से ही प्रारम्भ हुई और हाई स्कूल की परीक्षा उन्होंने वहीं से पास की। हाई स्कूल के बाद उन्हें कलकत्ता के प्रेसीडेन्सी कॉलेज में भर्ती कराया गया और वहां से उन्होंने इण्टरमीडियेट की परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की। सन 1919 में स्नातकीय परीक्षा पास की और दर्शनशास्त्र में पूरे विश्वविद्यालय में सर्वोच्च स्थान प्राप्त किया। तत्पश्चात् आई. सी. एस. की परीक्षा के लिए वह इंग्लैण्ड गए तथा उस परीक्षा में सफल होने वालों में उनका चौथा स्थान था।
सन् 1921 से उन्होंने राष्ट्रीय आन्दोलन में हिस्सा लेना शुरू किया और कई बार जेल-यात्राएं भी की। सन् 1927 में एक बार पुनः वह गिरफ्तार किए गए। इसके बाद तो स्वाधीनता की ऐसी धुन उन पर सवार हुई कि पूरे जीवन-भर उन्होंने पीछे मुड़कर नहीं देखा। सन् 1938 में नेताजी भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष चुने गए। उन्होंने डॉ. पट्टाभि सीतारमैया को पराजित किया और दोबारा भी भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष बने, किन्तु कांग्रेस के कुछेक बड़े नेताओं के विरोध के परिणामस्वरूप शीघ्र ही उन्होंने कांग्रेस से इस्तीफा दे दिया और सन् 1940 में फारवर्ड ब्लॉक की स्थापना की। सन् 1941 में नेताजी देश छोड़कर काबुल के रास्ते जर्मनी की राजधानी बर्लिन चले गए। वहां से उन्होंने एक जोरदार राष्ट्रीय अभियान शुरू किया और अनेकानेकदेशों से भारतीय स्वाधीनता आन्दोलन के व्यापक प्रचार का सूत्रपात किया। सन 1943 में उन्होंने आई. एन. ए. के नाम से एक सेना तैयार की।
आई. एन. ए. को सुदृढ़ और शक्तिशाली बनाने के उद्देश्य से नेताजी जापान भी गए। इस सेना में उन सैनिकों को भर्ती किया गया था जो बर्मा की सीमा पर जापानियों – के विरुद्ध लड़ने के दौरान भारत की ब्रिटिश सेना को छोड़ गए थे।
कहा जाता है कि सन् 1945 में जब वे एक वायुयान से यात्रा कर रहे थे, तो वे एकहवाई दुर्घटना के शिकार हुए। इस समाचार की यद्यपि जांच-पड़ताल भी की गई. किन्त कोई ठोस तथ्य अब तक सामने नहीं आ सके हैं। फारवर्ड ब्लाक के नेता अभी भी नेताजी के जीवित होने का दावा करते हैं, किन्तु भारत की शासन-व्यवस्था न तो इस कथन का समर्थन करती है और न ही सहमति जताती है।
सुभाष बाबू ने स्वामी विवेकानन्द की अनेक कतियों का गहन अध्ययन किया था और उनकी आकांक्षा थी कि भारतीय संस्कृति का विदेशों में व्यापक प्रचार हो। साथ ही वह यह भी समझते थे कि यह केवल स्वाधीन भारत में ही संभव हो सकता है। वे एक महान लेखक भी थे और उन्होंने ‘दि इण्डियन स्ट्रगल’ नामक एक कृति की रचना की थी।
यह नेताजी के ही प्रयत्नों का परिणाम था कि भारत के स्वाधीनता संघर्ष का विस्तार अन्य देशों तक भी हो सका और उसे विश्वख्याति मिल सकी। उनकी गणना भारत के ऐसे सम्माननीय नेताओं में होती है जिनकी इच्छा थी कि देश के नौजवान विदेशी दासता के नीचे पिसती मातृभूमि को आजाद कराकर एक उदाहरण प्रस्तुत करें।
नेताजी का अपना जीवन अत्यन्त साधारण था। फिर भी, गांधीवाद के सिद्धान्तों से वह पूरी तरह सहमत नहीं थे। उनका सिद्धान्त था कि अंग्रेजों से स्वाधीनता छीनने के लिए हम किसी भी पथ का अनुसरण कर सकते हैं।
नेताजी सुभाषचन्द्र बोस एक महान् राष्ट्रवादी नेता थे। उनकी उत्कट इच्छा थी कि देश शीघ्र स्वतंत्र हो। वर्ष 1992 में भारत सरकार ने उन्हें देश के सर्वोच्च सम्मान ‘भारत रत्न’ से मरणोपरान्त अलंकृत किया।