Hindi Essay on “Mirabai” , ”मीराबाई” Complete Hindi Essay for Class 9, Class 10, Class 12 and Graduation and other classes.
मीराबाई
Mirabai
भारतीय इतिहास के मध्यकाल (भक्तिकाल) मं भक्ति और काव्य को प्रेम की अनन्य पीर एंव विरह की अनन्य वेदना से सजाने वाली विशिष्ट प्रतिभा का नाम है-मीराबाई। इन तत्वों की इस अमर गायिका का श्रीकृष्ण के भक्त कवियों में अपना अन्यतम और महत्वपूर्ण स्थान माना गया है। इनका जन्म-स्थान राजस्थान का मेड़ता नामक स्थान माना जाता है। वहां के राव दूदाजी के चौथे बेटे राव रत्नसिंह के यहां कुडक़ी गांव में मीरा का जन्म सन 1516 में हुआ था। बचपन में ही माता का स्र्वगवास हो गया था। अत: इनका लालन5पालन परम वैष्णव राव दूदाजी की देख-रेख में ही हुआ था। दादा का संस्कार और प्रभाव ही आगे चलकर श्रीकृष्ण भक्ति के रूप में साकार हुआ। बचपन से ही मीरा भगवान श्रीकृष्ण को अपना पति एंव सर्वस्व मानने लगी थी। इस कारण मीरा का ध्यान सामाजिकता की ओर मोडऩे के लिए, जब वह केवल बारह वर्ष की थी, तभी उसका विवाह मेवाड़ के राणा सांगा के बड़े बेटे भोजराज के साथ कर दिया गया। परंतु भक्ति-भाव से वह विमुख न हो सकी और न ही कभी पति के साथ विलास-भावना का निर्वाह ही कर सकी। कुछ ही दिनों बाद जब वह विधवा हो गई, तो अब वह अपने को सभी प्रकार के सांसारिक बंधनों से पूर्ण मुक्त मानकर हर क्षण भक्ति-भाव में लीन रहने लगी।
विधवा होने के बाद मीरा का सारा समय साधु-संतों के सत्संग और भजन-कीर्तन में बीतने लगा। वह घरेलू मंदिर या अन्य मंदिरों में पहुंच श्रीकृष्ण की मूर्ति के सामने खुले बालों नचाने-गाने लगती। इसे अपने वंश-गौरव के विपरीत मान देवर तथा राज्य परिवार के अन्य सदस्य मीरा को पहले रोकने और बाद में अनेक कष्ट देने लगे। यहां तक कि उसे मार डालने तक के कई प्रयत्न किए गए, परंतु प्रेम-दीवानी मीरा के लिए घातक विष भी अमृत और काले नाग भी शालिग्राम बनते गए। अंतमें तंग आकर मीरा ने घर-परिवार का त्याग कर दिया। वृंदावन आदि तीर्थों की यात्रा करती हुई वह द्वारिकापुरी जा पहुंची। वहां से राणा परिवर ने उसे लाने की चेष्टा की, परंतु सफल न हो सका। इनका स्वर्गवास सं. 1603 के आसपास माना जाता है।
भक्ति साधना की दृष्टि से मीरा की कविता में सगुण और निर्गुण दोनों प्रकार की भक्ति-भावना के दर्शन होते हैं। इससे लगता है कि सगुण-साकार श्रीकृष्ण की अनन्य उपासिका होते हुए भी मीरा निर्गुणवादी संतों के सत्संग से प्रभावित हो निर्गुण निराकार की भ्ी उपासना किया करती थी। इस दृष्टि से हम उसे समन्यवादी साधिका और कवयित्री भी कह सकते हैं। मीर की प्रमुख रचनाओं के नाम हैं – ‘नरसी जी का मायरा’, ‘गीत गोविंद का टीका’, ‘मीरा नी गरवो’, ‘रासगोविंद’, ‘राग सोरठ के पद’ आदि। इन रचनाओं में से कुछ तो उपलब्ध नहीं और कुछ संदिज्ध मानी जाती हैं। ऐसा भी हुआ है कि कई अन्य लोगों ने कुछ पद रच, उनमें मीरा का नाम जोड़ दिया और वे उसी के नाम से प्रचलित एंव प्रसिद्ध हो गए। गुजराती, मारवाड़ी आदि भाषाओं में भी मीरा के पद मिलते हैं। मीरा का वास्तविक भाषा हमारे विचार में गुजराती मिश्रित मारवाड़ी ही थी। आज जो हम उसका काव्य पढ़ते हैं उसमें भाषा का सुधार एंव परिवर्तन स्पष्ट देखा जा सकता है। लगता है कि संग्रह करने वालों ने हिंदी-पाठकों की सुविधा के लिए ही ऐसा सरलीकरण किया है।
भगवान कृष्ण के प्रति प्रेम-निवेदन और सर्वस्व-समर्पण ही मीरा की कविता का मुख्य विषय है। उसकी विरह-वेदना अथाह और बहुत धार्मिंक बन पड़ी है। उसमें अनन्य आस्था अनुभूतियों की तीव्रता बनकर प्रगट हुई है। गेयता का गुण इस बात से स्पष्ट हो जाता है कि आज भी महान संगीतकार उसके रचे पद चाव एंव तन्मयता से गाते हैं। मीरा की काव्यात्मक अभिव्यक्ति में जो एक अनोखा दर्द, संवेदना और निजीपन है, वही उसका सर्वस्व है और उसी सरस-सरल निजता के कारण वह तथा उनका काव्य अजर-अमर भी है।