Hindi Essay on “Jaishankar Prasad” , ”जयशंकर प्रसाद” Complete Hindi Essay for Class 9, Class 10, Class 12 and Graduation and other classes.
जयशंकर प्रसाद
Jaishankar Prasad
निबंध नंबर :- 01
महाकवि और नाटककार ‘प्रसाद’ वस्तुत: मां सरस्वती के अमर प्रसाद ही थे। हिंदी काव्य के क्षेत्र में गोस्वामी तुलसीदास के बाद सशक्त एंव महान गंभीर प्रतिभा वाले किसी व्यक्ति का अगर नाम लिया जा सकता है, तो वह नाम है महाकवि जयशंकर प्रसाद। इनका जन्म सन 1889 में काशी के प्रसिद्ध ‘सुंथनी साहू’ परिवार में हुआ था। पिता श्री देवीप्रसाद सुंगधित तंबाकू के व्यापारी होने के कारण ‘सुंथनी साहू’ के नाम से प्रसिद्ध थे। प्रसाद जी के पिता साहित्यकार तो नहीं थे, पर कला-रसिक और कलाकारों का सम्मान बहुत किया करते थे। घर पर कवियों-कलाकारों का जमघट लगा रहता था। बालक प्रसाद पर निश्चय ही उस कवित्वमय और कलात्मक वातवरण का गहरा प्रभाव पड़ा। उस प्रभाव के फलस्वरूप बचपन में ही प्रसाद कवितांए रचकर सभी को चकित करने लगे एंव अपनी प्रतिभा का परिचय देने लगे थे।
इन्होंने घर पर ही शिक्षा प्राप्त कर साहित्य, दर्शन, वेद, उपनिषद, बौद्ध-साहित्य तथा इतिहास-पुराण का गहन अध्ययन किया। पहले पिता और बाद में बड़े भाई का स्वर्गवास हो जाानेे के कारण घर-परिवार और व्यापार का सारा बोझ इन्हीं पर आ पड़ा। उस सबका अच्छी प्रकार से निर्वाह करते हुए यह काव्य साधना कैसे करते रहे होंगे, आश्चर्य का विषय है। इन्होंने हार नहीं मानी। कविता के अतिरिक्त सशक्त कहानियां और नाटक, उपन्यास और निबंध रचकर इन्होंने आधुनिक हिंदी साहित्य-निर्माण और विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया। जीवन की कठोरताओं, विषमताओं से संघर्ष करते हुए अंत तक साहित्य-साधना में डटे रहे। इनका स्वर्गवास सन 1937 में हुआ।
उस युग की परंपरा ओर समकालीन अन्य कवियों के समान प्रसाद जी ने ब्रजभाषा मे ंही काव्य-रचना प्रारंभ की थी। परंतु जल्दी ही खड़ी बोली हिंदी के क्षेत्र में आ गए। हिंदी में इन्हें छायावादी काव्यधारा का प्रवर्तक कवि माना जाता है। इसके साथ आधुनिक नाटक-साहित्य के भी यह प्रवर्तक स्वीकारे जाते हैं। चित्रधारा नामक रचना में इनकी ब्रजभाषा में रची गई कवितांए संकलित हैं। खड़ी बोली हिंदी में क्रम से इनकी ये रचनाए प्रकाशित हुई-
कानन कुसुम, महाराणा का महत्व, मरुणालय, प्रेम पथिक। इन सभी को प्रसाद जी की आरंभिक रचनांए ही कहा जा सकता है। भाव, विचार और शिल्प आदि हर स्तर पर ये प्रारंभिक ही हैं। इनकी अलग पहचान तो अगली रचनाओं में ही बन सकी। उनके क्रम से नाम हैं – झरना, आंसू, प्रेम-पथिक, लहर, कामायनी। ‘लहर’ और कामायनी ही वास्तव में प्रसादजी की कीर्ति का आधार स्तंभ हैं। दोनों रचनांए आज तक बेजोड़ बनी हुई हैं। ‘कामायनी’ को गोस्वामी तुलसीदास के ‘रामचरित मानस’ के बाद हिंदी भाषा ओर विश्व-साहित्य का सर्वाधिक महत्वपूर्ण काव्य माना जाता है। कवि के बाद प्रसादजी का दूसरा सशक्त रूप है नाटककार का। इन्होंने क्रम से – सज्जन एक घूंट, कल्याणी-परिचय, करुणालय, प्रायश्चित राज्यश्री, बिशाख अजातशत्रु, कामना, जनमेजय का नागयज्ञ, स्कंदगुप्त, चंद्रगुप्त और धु्रवस्वामिनी नामक नाटक रचकर हिंदी नाटक का जीर्णोद्धार तो किया ही, उसे समृद्ध भी किया। नया स्वरूप ऐव आयाम दिया। पूर्ववर्ती द्विवेदी युग के विपरीत एक नई नई नींव रखी।
प्रसादजी ने ‘कंकाल’ और ‘तितली’ नाम से दो उपन्यास भी रचे। ‘इराबती’ नामक तीसरा उपन्यास का उनका स्वर्गवास होने के कारण अूधरा ही रह गया। छायावादी भायाबिल कविता के विपरीत इनके उपन्यासों का यथार्थवादी स्वरूप सभी को चकित कर देता है। इन्होंने 90 के लगभग कहानियां भी रचीं। वे कहानियां-छाया, प्रतिध्वनि, आकाशदीप, आंधी, इंद्रजाल-नाम संकलनों में संकलित और प्रकाशित हैं। नाटकों और कहानियों के माध्यम से इन्होंने अतीीत भारत का गौरव-गान कर वर्तमान के उन्नत, स्वतंत्र और समृद्ध बनाने को प्रेरणा दी है। उपन्यासों में वर्तमान जीवन के भदेस का सजीव अंकन किया है। इन्होंने कुछ समालोचनात्मक-सैद्धांतिक निबंध भी रचे, जो प्रर्याप्त महत्वपूर्ण स्वीकारे जाते हैं।
इस प्रकार स्पष्ट है कि महाकवि प्रसाद बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। वे अच्छे पत्रकार और व्यापारी भी थे और सबसे बढक़र वे एक महान मानव थे। जब तक यह धरती, चांद, सूर्य आदि हैं, अपने उपर्युक्त सभी महान गुणों के कारण वे हमेशा सम्मान के साथ स्मरण किए जाते रहेंगे। कवि साहित्यकार के रूप में और मानव के रूप में उनकी प्रतिभा एंव कार्यकुशलता अजोड़ थी। अब भी हिंदी साहित्य के क्षेत्र में उनका जोड़ मिल पाना दुर्लभ बना हुआ है।
निबंध नंबर :- 02
जयंशकर प्रसाद – व्यक्तित्व और कृतित्व
Jaishankar Prasad – Vyaktitva aur Krititva
मधुर भावनाओं के चितेरे आधुनिक छायावादी और रहस्यवादी कवि जयशंकर प्रसाद का जन्म माघ शुक्ल द्वादसी स० 1946 वि० में काशी के सुप्रतिष्ठित धनी, महादानी सेठ सूचनी साहू के वैश्य वंश में हुआ था। आपका जीवन विशेष सुखी न रहा। आपकी अवस्था बारह वर्ष ही की थी कि पिता श्री देवीप्रसाद का स्वर्गवास हो गया। पन्द्रह वर्ष की स्था में माता तथा सत्रह वर्ष की अवस्था में बड़े भाई का देहान्त आपको अपनी आँखों आगे देखना पड़ा। उस समय आप सातवीं कक्षा के छात्र थे। इन सब की मृत्यु हो जाने पर आपको घर पर ही दत्त-चित्त होकर अध्ययन प्रारम्भ करना पड़ा। आपने थोडे ही समय में हिन्दी, संस्कृत, बंगला, फारसी, अंग्रेजी, उर्दू आदि का आवश्यकीय-ज्ञान प्राप्त कर लिया। संस्कृत साहित्य में आपकी विशेष अभिरुचि थी। आपके नाटकों में वैदिककाल तथा गप्त काल के कथानक ही विशेषकर मिलते हैं तथा काव्यों में उपनिषदों के दार्शनिक अंशों की छाया मिलती है। उन्नीस वर्ष की अवस्था से ही आपने ऐतिहासिक खोजों तथा छायावादी रचनाओं का प्रारम्भ कर दिया था। हिन्दी साहित्य की आपने ठोस सेवायें की। साहित्याराधना के कारण आपके व्यापार की स्थिति बिगड़ गई। आप स्वभाव से बड़े दयालु थे। पान के अतिरिक्त आपको कोई भी व्यसन न था। महान् पारिवारिक चिन्ताओं से रोगग्रस्त हो जाने के कारण अल्प जीवन संवत 1994 ही में आपकी अकाल मृत्यु हो गई।
रचनाएँ-काव्य-(1) चित्राधार, (2) कानन कुसुम, (3) करुणालय, (4) महाराणा का महत्त्व, (5) प्रेम पथिक, (6) झरना, (7) आँसू , (3) लहर, (9) कामायनी।
नाटक-(1) राज्यश्री, (2) अजातशत्रु, (3) स्कन्दगुप्त, (4) चन्द्रगुप्त, (5) ध्रुवस्वामिनी, (6) विशाख, (7) कामना, (8) जनमेजय का नागयज्ञ, (9) एक चूंट, (10) परिणय, (11) कल्याणी आदि।
कहानी-संग्रह-(1) आकाशदीप, (2) इन्द्रजाल, (3) प्रतिध्वनि, (4) आँधी, (5) छाया आदि।
उपन्यास-(1) कंकाल, (2) तितली, (3) इरावती (अपूर्ण)।
आलोचना तथा निबन्ध-काव्य और कला तथा अन्य निबन्ध।
सम्पादन-‘इन्दु’ नामक मासिक पत्रिका का।
जयशंकर प्रसाद जी ने हिन्दी साहित्य में नवीन युग की चेतना का प्रादुर्भाव किया। अपनी प्रतिभा के बल से आपने काव्य के विशेष तथा क्षेत्र में मौलिक परिवर्तन किए। प्राचीन तथा अर्वाचीन का अद्भुत समन्वय करके एक नवीन धारा को अवतरित किया। आपने नारी को केवल भोग-विलास की ही वस्त न समझकर उसके आन्तरिक सौन्दर्य के दर्शन किए। आपने रीतिकालीन कवियों की भाँति नारी को केवल नायिका रूप ही में न देखकर प्रेममयी दयिता, त्यागमयी, बहिन तथा श्रद्धामयी माता के रूप में भी देखा। नारी का श्रद्धामय रूप दृष्टव्य है:
नारी तुम केवल श्रद्धा हो, विश्वास रजत नग पद तल में ।
पियूष स्त्रोत सी बहा करो, जीवन के सुन्दर समतल में।।
प्रसाद जी की दार्शनिकता की झलक आपकी प्रत्येक रचना में दिखाई पड़ती है। ‘कामायनी’ तो पूर्णरूपेण रहस्य एवं दार्शनिकता ही से ओत-प्रोत है। अज्ञात प्रियतम से मिलन की आशा इन पंक्तियों में दार्शनीय है :
‘ले चल मुझे भुलावा देकर, मेरे नाविक धीरे-धीरे।
जिस निर्जन में सागर लहरी, अम्बर के कानों में गहरी,
निश्चल प्रेम कथा कहती हो, तज कोलाहल की अवनी रे।।
हिन्दी में छायावादी कविता का प्रारम्भ ही प्रसाद जी से हआ। आपने न केवल जन्म अपितु छायावाद को प्राण भी दिये। छायावाद का चित्र प्रसाद की इन पंक्तियों में दृष्टव्य है:
‘रजनी रानी की बिखरी है म्लान कुसुम की माला।
अरे भिखारी । तू चल पड़ता लेकर टूटा प्याला ।।
गूंज उठी तेरी पुकार, कुछ मुझको भी दे देना।
कन-कन विभव दान करके, तू अपना यश ले लेना।।‘
प्रसाद जी पहले कवि थे जिन्होंने द्विवेदी यग की शष्क कविता को सरसता प्रदान की। आपके समस्त साहित्य में रस की अटूट धारा प्रवाहित हुई है। रस के प्रतीक प्रकी झाँकी प्रसाद के शब्दों में देखिए :
‘उसको कहते ‘प्रेम‘ अरे । अब जाना।
लगे कठिन कठिन नख रद, तभी पहचाना ।।
छायावादी कवि होने के कारण प्रसाद जी को प्रकृति से स्वाभाविक प्रेम है । आपका प्रकृति निरीक्षण सूक्ष्म है और प्रकृति चित्रण अति अनुपम है। आपकी सभी गद्य-पद्य रचनाओं में भारतीय संस्कृति की झलक मिलती है। इसीलिए आप के नाटकों का विषय पौराणिक है। देश के प्रति अनुराग पग-पग पर प्राप्त होता है:
‘अरुण यह मधुमय देश हमारा,
जहाँ पहुँचे अनजान क्षितिज को मिलता एक सहारा।।
कलापक्ष की दृष्टि से यदि प्रसाद जी के साहित्य को देखें, तो आप एक महान् कलाकार प्रतीत होते हैं। कला का आपके साहित्य में सुन्दर विकास हुआ है। आप ने प्रारम्भ में ब्रजभाषा में लिखना प्रारम्भ किया; किन्तु बाद में खड़ी बोली में लिखने लगे और अन्त तक उसी में लिखते रहे। उनकी प्रौढ़ रचनाओं में संस्कृत गर्भित हिन्दी का प्रयोग हुआ है। उसमें कहावतों, मुहावरों एवं विदेशी शब्दों का पूर्ण अभाव है। लक्षण एवं व्यंजना के बहुत प्रयोग से भाषा में साहित्यिकता आ गई है। प्रसाद जी की भाषा की मुख्य रूप से चार विशेषताएँ हैं- ध्वन्यात्मकता, लाक्षणिक वक्रता, उपचार वक्रता और प्रतीक विधान। कहीं-कहीं व्याकरण की त्रुटियाँ अवश्य प्राप्त होती हैं। भार हुए भी कोमलता एवं प्रसाद गुण से युक्त है।
प्रसाद जी ने गद्य तथा पद्य दोनों में ही अधिकांशतः भावा किया है। ‘कामायनी’ के ‘लज्जा’ सर्ग का चित्र इसी शैली में दृष्टव्य है:
‘मैं रति की प्रतिकृति लज्जा हूँ, मैं शालीनता सिखाती हूँ।
मतवाली सुन्दरता पग में, नूपुर सी लिपट मनाती हूँ।
चंचल किशोर सुन्दरता को, मैं करती रहती रखवाली।
मैं वह हलकी सी मसलन हूँ, जो बनती कानों की लाली।
आपकी गद्य-पद्यमय सभी रचनाओं में अलंकारों के पर्यात मात्रा में दर्शन हो आपने उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा आदि भारतीय अलंकारों तथा मानवीकरण, विशेषण वित ध्वनि-चित्रण आदि पाश्चात्य अलंकारों का सुन्दर प्रयोग किया है। आप की छन्द-या भी अति सुन्दर तथा आकर्षक है। आपके काव्य में अतुकान्त छन्द भी प्रयुक्त हुए हैं। संगीत तथा लय की सुन्दर योजना है। हिन्दी के अनेक प्रचलित छन्दों के साथ अ संस्कृत छन्दों का भी प्रयोग किया है।
इन सब विशेषताओं के आधार पर कहा जा सकता है कि प्रसाद जी एक मह काव, नाटककार, दार्शनिक तथा सच्चे राष्ट्र-प्रेमी थे। आपकी कतियों ने हिन्दी साथ के एक बहुत बड़े भाग की पूर्ति की। आधुनिक काल के साहित्यकारों में विशेष रूप छायावादी काव्यधारा में प्रसाद जी का स्थान अन्यतम है।