Hindi Essay on “Hadtal” , ”हड़ताल” Complete Hindi Essay for Class 9, Class 10, Class 12 and Graduation and other classes.
हड़ताल
Hadtal
औद्योगिक प्रगति और मजदूर-जागृति के कारण आज हर दिन हमें किसी-न-किसी तरह की हड़ताल का सामना करना पड़ता है। हड़ताल-यानी बंद! काम-काज ठप्प ओर जीवन की सभी प्रकार की गतिविधियां एक निश्चित-निर्धारित समय के लिए समाप्त। जी हां, आज इस प्रकार होना आम बात हो गई है। सुना है, पहले केवल कल-कारखानों या मिलों में काम करने वाले मजदूर ही हड़ताल किया करते थे। वह भी उचित और जायज मांगों को लेकर। परंतु आज? आज तो बात ही और है। आप काम नहीं करते या करना नहीं चाहते, परंतु सब प्रकार की सुविधंए सबसे पहले चाहते हैं। यदि आपसे काम करने को कहा जाता है, तो आप स्वंय तो काम-धाम क्या करना, अन्य सबका काम करना भी बंद करवा देते हैं। यानी हड़ताल करवा देते हैं। पहले हड़ताल सामूहित लाभ या प्रश्न को लेकर की जाती थी, पर आज किसी कामचोर, मुंहजोर या सीनाजोर को भी उसकी बुराइयों से रोको, तो एक बेगार एंव बोझ जैसे व्यक्ति के लिए भी हड़ताल-काम बंद! इस प्रकार आज हड़ताल का अर्थ, महत्व और प्रयोजन सभी कुछ बदल गया है। अपकर्षित होकर व्यर्थता का बोध बनकर रह गया है। यों कहना चाहिए कि उसकी सोद्देश्य पवित्रता तो नष्ट हो ही गई है, उसमें वास्तविक आस्था भी नहीं रह गई। इसी कारण कोई भी समझदार व्यक्ति आज हड़ताल यानी कामबंदी को उचित एंव आवश्यक नहीं मानता। उसे महज निहित स्वार्थों की प्रेरणा ही स्वीकार कर उसका विरोध करता है। उस पर पाबंदी की मांग भी की जाती है।
आज हड़ताल का क्षेत्र भी विस्तृत होकर असीम हो गया है। महानगरों में शायद ही कोई दिन ऐसा बीतता हो, जब कहीं-न-कहीं हड़ताल न चल रही हो। मिलों, कारखानों, छोटी-बड़ी फैक्टरियों में तो कहीं-न-कहीं हड़ताल का दौर चलता ही रहता है, जहां कहीं भी पांच-दस आदमी इकट्ठे काम करते हैं, जरा-जरा सी बात पर प्राय हड़ताल हो जाया करती है। कभी सरकारी दफ्तरों, अस्पतालों, स्कूलों, कॉलोजों या अन्य सार्वजनिक-हित के प्रतिष्ठानों में हड़ताल को न केवल गैर-कानूनी, अमानवीय एंव अनैतिक ही माना जाता था, बल्कि एक प्रकार का मानवता-विरोधी कार्य भी स्वीकार किया जाता था। परंतु आज? आज शायद सबसे पहले अधिक हड़तालें ऐसे ही स्थानों पर होती हैं। इस प्रकार के स्थानों में चलने वाली हड़ताल कई बार तो हफ्तों-महीनों तक खिंच जाती है। तब सारी नैतिकतांए, मानवीय भावनांए भुला दी जाती है। देश और मानवता गड्ढे में जाते हैं तो जांए, चिंता नहीं। कैसी विडंबना है यह आज के निहित स्वार्थों वाले राजनीतिज्ञ मानव की। पढ़े-लिखे, समझदार बुद्धिजीवी वर्ग भी इस बीमारी का शिकार हो जाया करते हैं।
कैसी नियति है यह कि जीवन और समाज के चारों ओर हड़ताल के दौर निरंतर चलते रहते हैं। कभी बिजली वाले हड़ताल कर रहे हैं तो कभी पानी वाले। कभी बस वाले हड़ताल कर रहे हैं तो कभी टैक्सी-स्कूटर वाले। कभी डॉक्टर हड़ताल कर रहे हैं तो कभी नर्सें। कभी पहले दर्जे वाले और कभी दूसरे-तीसरे दर्जे वाले।
यह ठीक है कि हड़ताल या कामबंदी दबाव का, अपनी मांगें मनवाने का एक कारगार और अंतिम हथियार है। जनतंत्र प्रणाली में इस हथिायर के प्रयोग का अधिकार भी प्राय: सभी को रहता है। महात्मा गांधी जैसे प्रबुद्ध नेताओं ने भी समय-समय पर इस हथियार का प्रयोग और समर्थन किया था। परंतु क्या स्वतंत्र राष्ट्रों के नेताओं और जनता का यह कर्तव्य नहीं हो जाता कि इस प्रकार के कदम उठाने से पहले वे लोग यह अच्छी प्रकार सोच लें कि इससे राष्ट्र और आम आदमी के हित को कितनी हानि पहुंचेगी? परंतु नहीं, कौन सोचता है यह सब? नेताओं की तो मुट्ठी भर लोगों को चुल्लु भर लाभ दिलवाकर अपनी नेतागिरी की दुकान चमकानी होती है। अत: चंद लोगों के हितों की रक्षा या मांगें मनवाने के नाम पर हड़ताल करवाकर आम लोगों को राष्ट्र के हितों को सूली पर चढ़ा दिया जाता है। आज जो हड़तालें होती हैं, उनके मूल में अक्सर ऐसी ही मानसिकता काम कर रही होती है। इस प्रवृत्ति को कभी भी उचित नहीं ठहराया जा सकता। नव-निर्माण की राह पर चल रहे भारत जैसे राष्ट्र के लिए यह बहुत घातक बात है।
यह सब कह या लिखकर हम यह नहीं चाहते कि जनतंत्र में मनुष्यों को इस अधिकार से ही वंचित कर दिया जाए। हमारा अभिप्राय केवल यह स्पष्ट करना है कि हड़ताल जैसे कदम उठाने से पहले पहले सौ बार, सौ तरीकों से सोचना चाहिए। यदि हड़ताल से देश के बहुसंख्यक लोगों का, राष्ट्र का कोई बड़ा हित सिद्ध होता है, तो अवश्य इस प्रवृत्ति को बढ़ावा दिया जाना चाहिए। परंतु ऐसा प्राय: होता नहीं। अक्सर वैयक्तिक या कुछ व्यक्तियों के अहंपीडि़त दुर्भाव की रक्ष्शा के लिए ही यहां हड़तालें हुआ करती हैं। आम जन और राष्ट्र-हित में इस प्रकार की दूषित प्रवृत्तियों पर अंकुश लगाना आवश्यक है। अन्यथा निहित स्वार्थी राजनेता, स्वार्थों और समर्थ अधिकारी एंव कामचोर कर्मचारी आम लोगों को तो उल्लू बनाते ही रहेंगे, देश-जाति का भी बड़ा अहित करेंगे। हड़ताल का भूत समूची व्यवस्था को ही निगलकर तहस-नहस कर देगा। ऐसा निश्चित है।
Excellent Composition