Home » Languages » Hindi (Sr. Secondary) » Hindi Essay on “Garmi ka Ek Din” , ”गर्मी का एक दिन” Complete Hindi Essay for Class 10, Class 12 and Graduation and other classes.

Hindi Essay on “Garmi ka Ek Din” , ”गर्मी का एक दिन” Complete Hindi Essay for Class 10, Class 12 and Graduation and other classes.

गर्मी का एक दिन

Garmi ka Ek Din

प्राकृतिक नियम के अनुसार मूल रूप से जीवन-संसार में कुछ भी अनावश्यक, बुरा या भयानक नहीं है। प्रकृति का जो चक्र अनादिकाल से चला आ रहा है, वह वास्तव में सभी प्राणियों की सुविध-असुविधा को प्राकृतिक नियम से ही ध्यान में रखकर चल रहा है। परंतु उसमें तरह-तरह की बाधांए पैदा कर कई बार हम स्वंय और हमारी तथाकथित खोजें ही उन्हें भयानक या मारक बना दिया करती हैं। ऋतुओं का गति-चक्र भी वास्तव में प्रकृति का एक सोचा-विचारा नियम ओर क्रम है। सर्दी-गर्मी, बरसात, बसंत आदि सभी ऋतुएं प्राणी-जगत और धरती के लिए आवश्यक हैं। इन्हीं से प्रक्रति, धरती और प्राणी-जीवन का संतुलन बना रहता है। हम वह सब प्राप्त कर पाते हैं, जो जीवित रहने, प्रगति या विकास करने की बुनियादी शर्त है। फिर भी कई बार किसी ऋतु-विशेष का प्रकोम इस सीमा तक बढ़ जाया करता है, कि आम आदमी और प्राणी के लिए प्राय: उसे सह कर पाना कठिन हो जाया करता है। भयावह गर्मी के  ऐसे ही एक दिन का वर्णन-ब्यौरा यहां प्रस्तुत किया जा रहा है।

वह शायद जयेष्ठ का महीना था। रात से ही प्रकृति में भीषण गर्मी का आसार प्रगट होने लगे थे। दिन निकलने तक हवा एकदम बंद हो गई थी। कहीं पत्ता तक भी हिलता नजर नहीं आ रहा था। सूर्य निकलने के साथ गर्मी का ताप भी बढऩे लगा। बार-बार कंठ सूखने लगा। पानी पीते, पर कुछ देर बाद पता चलता कि पसीना बनकर वह बह गया है और फिर पानी की इच्छा हो रही है। बिजली के पंखों की हवा भी निरंतर गरम होती जा रही थी। जैसे ही दोपहर का सूर्य सिर पर आया। अचानक बिजली बंद हो गई। तब दो-चार क्षण बाद ही यह महसूस होने लगा कि अब जैसे हमारी सांसों का चलना भी बंद हो जाएगा। हवा के एक झौंके के लिए भी सभी तरसने लगे। लगता था शरीर का अस्तित्व ही पसीना बनकर, बहकर खत्म हो जाएगा। पानी-पानी और पानी! पर यह क्या? नल खोला कि नहा लें और घड़ों में पानी भर लें, पर नल ने साफ जवाब दे दिया। बिजली के साथ नलों से पानी आना भी बंद हो गया था। कहावत है, करेला और नीम पढ़ा-शायद इसी जैसी स्थिति को कहते हैं।

‘हे राम! अब क्या होगा?’

 

आस-पास के सभी लोग कमरों में बैठ पाना असंभव हो जाने पर बाहर दीवारों-पेड़ों आदि की छाया में चक्कर काटते एक ही बात कह रहे थे ‘उफ! कितना गरम दिन है आज, इस पर पानी, बिजली सभी कुछ बंद। राम अब क्या होगा?’ पर घरों-कमरों के बाहर भी तो कहीं खड़े हो पाना संभव नहीं था। तपिश के मारे वहां भी बुरा हाल हो रहा था। बेचारे बच्चे रो-रोक बेहाल हो रहे थे। बूढ़े हांकने लगे थे और युवक इधर-उधर तड़पने लगे थे। हथपंखे भी चलकर कुछ राहत न दे पा रहे थे। उल्टे थकार ही दिए जा रहे थे। हमने देखा, आस-पास के पेड़ों पर बैठे पक्षी गर्मी और तपिश से झुलसकर धरती पर गिरने लगे हैं। जहां-तहां बैठे कुत्ते और गाय पशुओं की जीभें बाहर निकल आई थीं। लगता था, जैसे सभी हफानी-रोग का शिकार हो गए हों। हमारा जी तो तन का आखिरी कपड़ा तक उतार फेंकने को करता था, पर सभ्यता का तकाजा। पंखे, कागज, अखबार और कुछ नहीं तो हाथों को ही हिला-हिलाकर चेष्टा करते कि हवा का एकाध भूला-भटका झोंका ही कहीं से आ जाए। पर मां प्रकृति उस दिन एकदम निष्ठुर बन गई थी। ऐसा भयानक हो उठा था गर्मी का वह एक दिन। व्याकुलता ओर तड़पन जीवन इन्हीं दो शब्दों में केंद्रित होकर रह गया था।

पता नहीं कैसे दोपहर ढली। बिजली-पानी का अभी तक भी कहीं पता नहीं था। लोगों के घरों में भरा रखा पानी अब तक समाप्त हो चुका था। अब कई लोग बूंद-बूंद पानी को भी  तरसने लगे थे। उस समय ध्यान आने लगा उन इलाकों, उन गांवों का, जहां कि युवतियां सुना है मीलों दूर से पीने का पानी भरकर लाती हैं-वह भी तपती रेत पर चलकर। रोज-रोज इस प्रकार उनका जीवन कैसे चलता होगा? यहां तो एक ही दिन में बुरा हाल हो रहा था। तरस आ रहा था नदियों के देश भारत की अभावपूर्ण जल-व्यवस्था और समूची राज-व्यवस्था पर। खैर, सांझ ढलते-ढलते आकाश मटमैला  होने लगा था। लगा, जैसे धरती की सारी मिट्टी-रेत ने अनजाने ही ऊपर उठकर सारे आकाश को इसी भीषण गर्मी का दंड देने के लिए घेर लिया है। कुछ देर बाद लू जैसे तपते झोंके उठने लगे। पास के वृक्षों के सुस्त पड़े पत्ते हिलने लगे और फिर देखते-ही-देखते धूल-गुबार भरी आंधी ने चारों ओर केवातावरण को घेर लिया। पहले गर्मी का ताप, अब गरम हवा और धूल का कष्ट, आंखें मिंचने लगीं। हाथ उन्हें मलने लगे। हवा-रेत से शरीर भुरभुरा होने लगा। उफ! यह सब आज क्या हो रहा है? प्रकृति का रहस्य कुछ भी तो समझ नहीं आ रहा था।

तभी हवा का एक ठंडा और गीला झोंका आया और एक साथ तड़-तड़ बूंदें धरती पर गिरने लगीं। बे-मौसम ही सही, इस बरसात ने सारी सृष्टि को राहत दी होगी। मैं कूदकर खुले में आकर भीगने लगा। और भी स्त्री-पुरुष कपड़ों समेत घरों से निकल भीगने का आनंद लेते भीषण गर्मी की झुलस मिटाने लगे। रात को गर्मी-वर्षा का दृश्य उपस्थित करते हुए दूरदर्शन ने मोसम विशेषज्ञों के मत से बताया ‘आज का दिन इस मौसम का तो सबसे भयानक गर्मी का दिन था ही, पिछले साठ वर्षों के बाद इतनी भीषण गर्मी पड़ी है।’ वह दिन याद आकर आज भी रौंगटे खड़े कर देता है। उफ! कितना भयानक था गर्मी का वह एक दिन।

About

The main objective of this website is to provide quality study material to all students (from 1st to 12th class of any board) irrespective of their background as our motto is “Education for Everyone”. It is also a very good platform for teachers who want to share their valuable knowledge.

commentscomments

  1. Karan says:

    Very nice essay I thank those who wrote this

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *