Hindi Essay on “Fashion Shringar : Aavashyakta aur Upyog” , ”फैशन-श्रंगार : आवश्यकता और उपयोग” Complete Hindi Essay for Class 10, Class 12 and Graduation and other classes.
फैशन-श्रंगार : आवश्यकता और उपयोग
Fashion Shringar : Aavashyakta aur Upyog
श्रंगार शब्द का सामान्य प्रचलित अर्थ है सजावट-अर्थात शरहर को सजा-संवारकर प्रस्तुत करना। यह सजावट विशेष प्रकार के पाउडर-क्रीम, कंघी-पट्टी, पकड़ों-परिधानों, गहनों आदि के द्वारा संभव हुआ करती है। एक शब्द है फैशन। इस शब्द का सामान्य प्रचलित अर्थ हुआ करता है-चलन या प्रचलित होना। इसइ प्रकार जब हम श्रंगार शब्द के साथ फैशन का मेल कर देते हैं, तब अर्थ और प्रयोजन हुआ करता है, जब जैसा प्रचलन या फैशन हो, तब वैसा ही श्रंगार या सजावट करना उचित होता है। चलन या फैशन के अनुसार श्रंगार करने से व्यक्ति पिछड़ा हुआ तो लगता ही नहीं, उसके सामान्य व्यक्तित्व में भी एक प्रकार का समय के बदलाव के अनुसार निखार आ जाया करता है। तात्पर्य यह है कि मानव-शरीर और व्यक्तित्व के प्राकृतिक सौंदर्य में निखार लाने के लिए सहज स्वाभाविक श्रंगार अच्छा एंव उचित हुआ करता है। व्यक्ति का महत्व भी इससे बढ़ जाता है।
मानव स्वभाव से ही सुंदर दिखना-दिखाना चाहता है। अपने आस-पास के वातावरण में भी मनुष्य सुंदरता चाहता है। अपने को सुंदर दिखाने के लिए जहां मानव समाज के तरह-तरह के वस्त्रों, गहनों, अन्य प्रकार के उपकरणों का अविष्कार किया है वहां वह अपने आस-पास का वातावरण सुंदर रखने के लिए भी अनादि काल से ही प्रयत्न करता आ रहा है। गृहवाटिकांए लगाना, फूलों के गमले सजाना, वन-उपवन लगाना, घरों में रंग-रोगन करना, गलीचे बिछाना, भित्तिचित्र बनाना-लगाना आदि। सभी कुछ आसपास के वातावरण को सुंदर-आकर्षक रखने के लिए ही श्रंगारा या सजाया जाता है। श्रंगार या सजावट कीयह प्रवृत्ति पशु-पक्षियों तक में देखी जा सकती है। पक्षियों के घोंसले कितने सुंदर और कलात्मक हुआ करते हैं, पशुओं की गुफांए भी कितनी सजीली होती हैं, प्रत्यक्ष देखकर इन सबका सहज ही अनुमान किया जा सकता है। मनुष्यों ने घर और किले मार्ग सुरक्षा के लिए ही नहीं बनाए, कलात्मक श्रंगार और सौंदर्य की भूख को शांत करने की भावना भी उनके मूल में विद्यमान कही जाती है। तरह-तरह की वेश-भूषा, बालों की कटाई, अनेक प्रकार के सोने-चांदी आदि धातुओं के गहने सभी श्रंगान प्रसाधन के उपकरण ही तो हैं। यहां तक कि मानव-समाज अपनी सामथ्र्य के अनुसार आरंभव से ही खाने-पीने के बर्तन आदि भी बड़े सुंदर एंव कलात्मक बनाता आ रहा है। यह सब श्रंगार-प्रियता के कारण ही तो किया जाता है। ऊपर जो बातें लिखी गई हैं, उनका सार तत्व यही है कि मानव समेत सृष्टि के हर प्राणी में अपनी-अपनी स्थिति और आवश्यकतानुसार श्रंगारप्रियता की रुचि अनादिकाल से ही विद्यमान है। अनेक पुरातात्विक खोजों ने भी इन तथ्यों को सही प्रमाणित कर दिया है। पुराने स्थानों की खुदाई से मिलने वाले तरह-तरह के उपकरण इस पबात का प्रत्यक्ष प्रमाण हैं। श्रंगार की अनेक प्राचीन वस्तुएं आज अजायबघरों में सुरक्षित हैं।
मानव-स्वभाव में श्रंगार की प्रवृत्ति जन्मजात रूप से विद्यमान रहा करती है। तभी तो घरों में नन्हें-मुन्ने बच्चे तक अपने माता-पिता या बड़ों का सामान उठा, उनकी नकल करते हुए अपने को सजाते-संवारते हुए दिखाई दे जाते हैं। निश्चय ही श्रंगार मानव-जीवन के लिए बहुत आवश्यक एंव उपयोगी भी है। इससे व्यक्तित्व में निखार आता है, सुंदरता में चार-चांद लग जाते हैं। इसी ओर संकेत करते हुए प्राचीन कवि केशव ने कहा है :
‘यद्यपि सुजाति, सुलछणी, सुवरण सुघड़, सुचित।
भूषण बिनु न विराजहिं कविता-वनिता मित्त।।’
अर्थात कविता और नारी कितनी भी उच्च जाति और वर्ग की क्यों न हो, भूषणों अर्थात-प्रसाधन के साधन गहनों के बिना उनकी वास्तविक शोभा नहीं बढ़ा करती। सुंदर लगना और दिखना निश्चय ही अच्छी बात है। इसके लिए सभी प्रकार के उचित ओर समयानुकूल साधनों का प्रयोग करना भी आवश्यक है। समय या प्रचलित फैशन के अनुरूप श्रंगार से ही व्यक्तित्व एंव सौंदर्य में निखार लाया जा सकता है। नारी हो या पुरुष, ऐसा करके दूसरों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित भी कर सकता है। इनका सब होते हुए भी श्रंगार करते समय एक बात का ध्यान रखना बहुत आवश्यक हुआ करता है। याद रहे, श्रंगार के साधनों का उपयोग स्वाभाविक रूप से सुंदर, व्यक्तित्व के उत्कर्ष एंव आकर्षण को ही बढ़ा सकता है, कुरूपता को ढक नहीं सकता। आकर्षण भी तभी बढ़ता है जब श्रंगार के उपकरणों का प्रयोग इतना अधिक न किया गया हो कि वास्तविक व्यक्तित्व छिप जाए। उदाहरण के लिए किसी सुंदरी को ले सकते हैं। यदि उसके हर अंग को गहनों से लाद दिया जाएगा, तो उसकी स्वाभाविक सुंदरता दब जाएगी। गहने मात्र बोझ या साफ-सुथरे दर्पण पर लगे जंग की तरह प्रतीत होंगे। तात्पर्य यह है कि उचित मात्रा में, व्यक्ति के व्यक्तित्व की आवश्यकता के अनुरूप वस्त्र तथा श्रंगार के अन्य उपकरण प्रयोग में लाने से ही उसका वास्तविक प्रयोजन सिद्ध हो सकता है। अन्यथा तो सब बोझ ही सिद्ध होगा।
इस सारे विवेचन-विश्लेषण का निष्कर्ष यही है कि फैशन के अनुसार उचित और सीमित मात्रा में किया गया श्रंगार ही उपयोगी है। जो श्रंगार प्राकृतिक सौंदर्य को दबा या ढक दे, या फिर एकदम नज्न ही कर दे, उसे श्रंगार न कहकर महज चोंचलेबाजी ही कहा जा सकता है। वास्तविक श्रंगार वही है, जो व्यक्तित्व में निखार लाकर देखने वाली आंखों को सौंदर्य-बोध से भर दे, भडक़ा या उत्तेजित न कर दे। महज उत्तेजना पैदा करने वाले श्रंगार से बचकर ही सौंदर्य-साधना से तृप्ति पाई जा सकती है।