Hindi Essay on “Dahej Pratha ” , ” दहेज-प्रथा : एक गंभीर समस्या ” Complete Hindi Essay for Class 10, Class 12 and Graduation and other classes.
दहेज-प्रथा : एक गंभीर समस्या
Dahej Pratha Ek Gambhir Samasya
निबंध नंबर – 01
दहेज का बदलता स्वरूप – भारतीय नारी का जीवन जिन समस्याओं का नाम सुनते ही कॉप उठता है – उनमें सबसे प्रमुख है – दहेज | प्ररंभ में दहेज़ कन्या के पिता दुवरा स्वेच्छा-से अपनी बेटी को दिया जाता था | विवाह के समय बेटी को प्रोमोपहार देना अच्छी परंपरा थी | आज भी इसे प्रेम-उपहार देने में कोई बुराई नहीं है |
दुर्भाग्य से आज दहेज-प्रथा एक बुराई का रूप धारण करती जा रही है | आज दहेज प्रेमवश देने की वास्तु नहीं, अधिकार पूर्वक लेने की वास्तु बनता जा रहा है | आज वर पक्ष के लोग कन्या पक्ष से जबरदस्ती पैसा, वस्त्र और वस्तुएँ माँगते हैं | यह माँग एक बुराई है |
दहेज के दुष्परिणाम – दहेज़ के दुष्परिणाम अनेक हैं | दहेज़ के आभाव में योग्य कन्याएँ अयोग्य वरों को सौंप दी जाती है | दूसरी और, अयोग्य कन्याएँ धन की ताकत से योग्यतम वारों को खरीद लेती हैं | दोनों ही स्थितियों में पारिवारिक जीवन सुखद नहीं बन पाना |
गरीब माता-पिता दहेज के नाम से भी घबराते हैं | वे बच्चों का पेट काटकर पैसे बचाने लगते हैं | यहाँ तक कि रिश्वत, गबन जैसे अनैतिक कार्य करने से भी नहीं चुकते |
दहेज का राक्षसी रूप हमारे सामने तब आता है, जब उसके लालच में बहुओं को परेशान किया जाता है | कभी-कभी उन्हें इतना सताया जाता है कि वे या तो घर छोड़कर मायके चली जाती हैं या आत्महत्या कर लेती हैं | कई दुष्ट वर तो स्व्यं अपने हाथों से नववधू को जला डालते है |
समाधान के उपाय – दहेज की बुराई को दूर करने के सचे उपाय देश के नवयुवकों के हाथ में हैं | अतः वे विवाह की कमान अपने हाथों में लें | वे अपने जीवनसाथी के गुणों को महत्व दें | विवाह ‘प्रेम’ के आधार पर करें, दहेज़ के आधार पर नहीं | कन्याएँ भी दहेज के लालची युवकों को दुत्कारें तो यह समस्या तुरंत हल हो सकती है |
लड़की का आत्मनिर्भर बनना – लड़कियों का आत्मनिर्भर बनना भी दहेज रोकने का एक अच्छा उपाय है | लडकियाँ केवल घरेलू कार्य में ही व्यस्त न रहें, बल्कि आजीविका कमाएँ ; नौकरी या व्यवसाय करें | इससे भी दहेज की माँग में कमी आयगी |
कानून के प्रति जागरूकता – दहेज की लड़ाई में कानून भी सहायक हो सकता है | जब से ‘दहेज निषेद विधेयक’ बना है, तब से वर पक्ष द्वारा किए जाने वाले अत्याचारों में कम आई है | परंतु इस बुराई का जड़मूल से उन्मूलन तभी संभव है, जब से वर पक्ष द्वारा किए जाने वाले अत्याचारों में कमी आई है | परंतु इस बुराई का जड़मूल से उन्मूलन तभी संभव है, जब युवक-युवतियाँ स्वयं जाग्रत हों |
निबंध नंबर – 02
दहेज-प्रथा (दहेज समस्या)
Dahej Pratha (Dahej Samasya)
दहेज से तात्पर्य उस धन, सम्पत्ति व अन्य पदार्थो से है जो विवाह में कन्या पक्ष की और से वर पक्ष को दिए जाते है | यह विवाह से पूर्व ही तय कर लिया जाता है | और कन्या पक्ष वाले कन्या के भविष्य को सुखी बनाने के लिए यह सब वर पक्ष को दे दिया करते है | प्राचीन काल में भारतीय संस्कृति में विवाह को एक आध्यात्मिक कर्म , दो आत्माओ का मिलन, पवित्र संस्कार तथा धर्म –समाज का आवश्यक अंग माना जाता था | उस समय दहेज नाम से किसी भी पदार्थ का लेन-देन नही होता था | बाद में इस प्रथा का प्रचलन केवल राजा –महाराजाओं , धनी वर्गो व् ऊचे कुलो में प्रांरम्भ हुआ | परन्तु वर्तमान काल में तो यह प्रथा प्राय प्रत्येक परिवार में ही प्रारम्भ हो गई है |
दहेज प्रथा आज के मशीनी युग में एक दानव का रूप धारण कर चुकी है | यह ऐसा काला साँप है जिसका डसा पानी नही मांगता | इस प्रथा के कारण विवाह एक व्यापर प्रणाली बन गया है | यह देहज प्रथा हिन्दू समाज के मस्तक पर एक कलंक है इसने कितने ही घरो को बर्बाद कर दिया है | अनेक कुमारियो को अल्पायु में ही घुट-घुट कर मरने पर विवश कर दिया है | इसके कारण समाज में अनैतिकता को बढ़ावा मिला है तथा पारिवारिक संघर्ष बढ़े है | इस प्रथा के कारण समाज में बाल-विवाह, बेमेल-विवाह तथा विवाह –विच्छेद जैसी अनेको कुरीतियों में जन्म ले लिया है |
देहज की समस्या आजकल बड़ी तेजी से बढती जा रही है | धन की लालसा बढ़ने के कारण वर पक्ष के लोग विवाह में मिले दहेज से संतुष्ट नही होते है | परिणामस्वरूप वधुओ को जिन्दा जला कर मार दिया जाता है | इसके कारण बहुत से परिवार तो लडकी के जन्म को अभिशाप मानने लगे है | यह समस्या दिन-प्रतिदिन विकराल रूप धारण करती जा रही है | धीरे-धीरे सारा समाज इसकी चपेट में आता जा रहा है |
इस सामजिक कोढ़ से छुटकारा पाने के लिए हमे भरसक प्रयत्न करना चाहिए | इसके लिए हमारी सरकार द्वारा अनेको प्रयत्न किए गए है जैसे ‘हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम’ पारित करना | इसमें कन्याओ को पैतृक सम्पत्ति में अधिकार मिलने की व्यवस्था है | दहेज प्रथा को दण्डनीय अपराध घोषित किया गया तथा इसकी रोकथाम के लिए ‘दहेज निषेध अधिनियम’ पारित किया गया | इन सब का बहुत प्रभाव नही पीडीए है | इसके उपरान्त विवाह योग्य आयु की सीमा बढाई गई है | आवश्यकता इस बात की है की उस का कठोरता से पालन कराया जाए | लडकियों को उच्च शिक्षा दी जाए , युवा वर्ग के लिए अन्तर्जातीय सके | अंत: हम सब को मिलकर इस प्रथा को जब से ही समाप्त कर देना चाहिए तभी हमारा समाज प्रगति कर सकता है |
निबंध नंबर – 03
दहेज प्रथा : एक कुप्रथा
Dahej Pratha ek Kupratha
तीन वर्णों से मिकर बना ‘दहेज’ शब्द अपने आप में इतना भयानग, डरावना बन जाएगा कभी ऐसा इस प्रथा को प्रारंभ करने वालों ने सोचा तक न होगा। दहेह प्रभा हमारे देश में प्राचीनकाल से चली आ रही है। परंपराएं, प्रथांए, अथवा रीतिरिवाज मानव सभ्यता, संस्कृति का अंग है। कोई भी परंपरा अथवा प्रथा आरंभ में किसी न किसी उद्देश्य को लेकर जन्म लेती है, उसमें कोई न कोई पवित्र भाव अथवा भावना निहित रहती है पर जब उसके साथ स्वार्थ, लोभ अथवा कोई अन्य सामाजिक दोष जुड़ जाता है तो वही अपना मूल रूप खोकर बुराई बन जाती है। इसी प्रकार की एक सामाहिक परंपरा है-दहेज प्रथा।
प्रारंभ में विवाह के समय पिता द्वारा अपनी कन्या को कुद घरेलु उपयोग की वस्तुंए दी जाती थी ताकि नव दंपति को अपने प्रारंभिक गृहस्थ जीवन में कोई कष्ट न हो। कन्या का अपने पिता के घर से खाली हाथ जाना अपशकुन माना जाता था। उस समय दहेज अपनी सामथ्र्यनुसार स्वेच्दा से दिया जाता था।
जैसे-जैसे समय बदलता गया, जीवन और समाज में सामंती प्रथांए आती गई। यह प्रथा भी रूढ़ होकर एक प्रकार की अनिवार्यता बन गई और आज वह प्रथा भारत की एक भयंकर सामाजिक बुराई बन गई। आज वह पिता द्वारा अपनी कन्या को प्रेम वश देने की वस्तु नहीं वरन अधिकारपूर्वक लेने की वस्तु बन गई है।
आज पूरे भारत के सामाजिक जीवन को दहेज के दानव से अस्त-व्यस्त कर रख है। आए दिन समाचार पत्रों में दहेज के कारण होने वाली हत्याओं और आत्महत्याओं के दिल दहलाने वाले समाचार पढऩे को मिलते हैं। दहेज की मांग पूरी न होने के कारण अनेक नवविवाहिताओं को ससुराल वालों की मानसिक तथा शारीरिक कष्ट सहने पड़ते हैं।
दहेज के अभाव में योज्य कन्यांए अयोज्य वरों को सौंप दी जाती हैं तो दूसरी ओर अयोज्य कन्याओं के पिता धन की ताकत से योज्य वरों को खरीद लेते हैं। वन तो एक प्रकार खरीद-फरोख्त की वस्तु बनकर रहा गया है जिसके पास धन है प्रतिष्ठा है पद है वह अपनी कन्या के लिए योज्य से योज्य वर पा सकता है।
दहेज प्रथा के कारण आज परिवार में लडक़ी के जन्म पर दुख मनाया जाता है और पुत्र के जन्म पर बेहद खुशी। भारतीय समाज में जिस दिन से किसी परिवार में लडक़ी का जन्म हो जाता है तो उसके माता-पिता को उसी दिन से उसके विवाह की चिंता होने लगती है तथा वे अपना पेट काटकर अपनी बेटी को दहेज देने के लिए धना जोडऩे लगते हैं। यहां तक अनुचित तरीके से भी धन प्राप्त करने का प्रयास करने लगते हैं।
आश्चर्य तो तब होता है जब कोई पिता अपने पुत्र के विवाह पर दहेज की मांग करता है परंतु जब वही अपनी पुत्री का विवाह करता है, तो दहेज विरोधी बन जाता है।
दहेज एक ऐसी बुराई है जिसने न जाने कितने परिवारों को नष्ट किया है न जाने कितनी नववधुओं को आत्महत्या करने पर विवश किया है और कितनी युवतियों को दांपत्य जीवन के सुख से वंचित किया है।
सरकार ने दहेज विरोधी कानून भी बना रखा है, पर उसमें अनेक कमियां हैं जिनका लाभ उठाकर दहेज के लोभी अपने उद्देश्य में सफल हो जाते हैं और कानून के शिकंजे से साफ बच जाते हैं।
दहेज प्रथा की बुराई को केवल कानून द्वारा रोक पाना संभव नहीं है। इस बुराई को दूर करने के लिए युवा-पीढ़ी को सामने आना होगा तथा दहेज न लेने-देने का प्रण करना चाहिए। साथ ही लड़कियों को आत्मनिर्भर बनाना होगा तथा कन्या को शिक्षित व अपने पैरों पर खड़ी होगी तभी वह दहेज की मांग का विरोध करने में सक्षम होगी।
हर्ष का विषय है कि देश के युवा वर्ग में इस समस्या के प्रति अरुचित का भाव जागृत हुआ है।आज के शिक्षित युवक युवतियां अपने जीवन साथी के लिए चयन में भागीदार हो रहे हैं तथा दहेज का विरोध करने के लिए प्रेम-विवाह भी होने लगे हैं।
दहेज की प्रथा के लिए दीपक है जिसे जन जागरण द्वारा हल किया जा सकता है। समाचार पत्र, दूरदर्शन, चलचित्र आदिइस प्रकार के जनजागरण में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं।
निबंध नंबर – 04
दहेज प्रथा: एक अभिशाप
Dahej Pratha Ek Abhishap
प्रातःकाल जब हम समाचार-पत्र खोलते हैं तो प्रतिदिन यह समाचार पढ़ने को मिलता है कि आज दहेज के कारण युवती को प्रताड़ित किया तो कभी उसे घर से निकाल दिया या फिर उसे जला कर मार डाला। दहेज प्रथा हमारे देश और समाज के लिए अभिशाप बन गई है। यह प्रथा समाज में सदियों से विदय्मान है। सामाजिक अथवा प्रशासनिक स्तर पर समय-समय पर इसे रोकने के लिए निरंतर प्रयास भी होते रहे हैं परंतु फिर भी इस कुप्रथा को दूर नहीं किया जा सका है। अतः कहीं न कहीं इस कुत्सित प्रथा के पीछे पुरूषों का अहंय लोभ एंव लालच काम कर रहा है।
प्रारंभ में पिता अपनी पुत्री के विवाह के समय उपहार स्वरूप घर-गृहस्थी से जुड़ी अनेक वस्तुएँ सहर्ष देता था। इसमें वर पक्ष की ओर से कोई बाध्यता नहीं होती थी। धीरे-धीरे इसका स्वरूप बदलता चला गया और आधुनिक समय में यह एक व्यवसाय का रूप ले चुका है। विवाह से पूर्व ही वर पक्ष के लोग दहेज के रूप में वधू पक्ष से अनेक माँगें रखते हैं जिनके पूरा न होने के आश्वासन के पश्चात् ही वे विवाह के लिए तैयार होते हैं। किसी कारणवश यदि वधू का पिता वर पक्ष की आकांक्षाओं पर खरा नही उतरता तो वधू को उसका दंड आजीवन भोगना पड़ता है। कहीं-कहीं तो लोग इस सीमा तक अमानवीयता पर आ जाते है कि इसे देखकर मानव सभ्यता कलंकित हो उठती है।
दहेज प्रथा के दुष्परिणाम हो सबसे अधिक उन लड़कियों को भोगना पड़ता है जो निर्धन परिवार की होती हैं। पिता वर पक्ष की माँगों को पूरा करने के लिए सेठ, साहूकारों से कर्ज ले लेता है जिसके बोझ तले वह जीवन पर्यंत दबा रहता है। कुछ लोगांे की तो पैतृक संपत्ति भी बिक जाती है। ऐसा नहीं है कि उच्च घरों के लोग इससे अछूत रहे हैं। उधर मनचाहा दहेज न मिलने पर नवयुवतियाँ प्रताड़ित की जाती हैं ताकि पुनः वापस जाकर वे अपने पिता से वांछित दहेज ला सकें। कभी-कभी यह प्रताड़ना बर्बरता का रूप लेती है जब नवविवाहिता को लोग जलाकर मार देते हैं अथवा उसकी हत्या कर देते हैं तथा उसे आत्महत्या का नाम देकर अपने कृत्यों पर परदा डाल देते हैं। कहीं-कहीं तो ऐसी स्थिति बन गई है कि दहेज के भय से अल्ट्रासाउडं द्वारा पता लगाकर लोग कन्याओं को जन्म से पूर्व ही मार देते हैं।
प्रशासनिक स्तर पर दहेज प्रथा को रोकने के लिए अनेक प्रयास किए जा रहे हैं। कानून की दृष्टि मे दहेज लेना व देना दोनों ही अपराध है। इसका पालन न करने वालो को कारावास तथा आर्थि जुर्माना भी वहन करना पड़ सकता है। स्वतंत्रता प्राप्ति से पूर्व एंव इसके पश्चात् भी समय-समय पर अनके समाज सुधारकों व समाज सेवी संस्थाओं ने इसके विरोध में आवाज उठाई है परंतु इतने प्रयासों के बाद भी हमें आशातीत सफलता नहीं मिल सकी है।
दहेज प्रथा की जड़ें बहुत गहरी हैं। यह केवल सरकार या किसी व्यक्ति विशेष के द्वारा नहीं रोकी जा सकती अपितु सामूहिक प्रयासों से ही हम इस बुराई को नष्ट कर सकते हैं। विशेष तौर पर युवा वर्ग का योगदान इसमें अपेक्षित है। युवाओं को इसके दुष्परिणामों के प्रति पूर्ण रूप से जागरूक होना पड़ेगा तथा अपने परिवार व समाज को भी इसके लिए जागरूक करना होगा। इसके अतिरिक्त हमें हर उस व्यक्ति को सामाजिक स्तर पर बहिष्कृत करना होगा जो दहेज प्रथा का समर्थन करता है। निस्संदेह ऐसे प्रयासों से आशा की किरण जागेगी और पुनः हम दहेज प्रथा विहीन समाज को निर्माण कर सकेंगे। युवक-युवतियों को इस मामले में सर्वाधिक सजगता दिखानी होगी।
निबंध नंबर :- 05
दहेज प्रथा: एक सामाजिक अपराध
Dahej Pratha – Ek Samajik Apradh
प्रस्तावना- हमारे देश में दहेज प्रथा एक सामाजिक अपराध माना जाता है। इस प्रथा के कारण विवाह एक व्यापार प्रणाली बन गया है। यह दहेज प्रथा हिन्दु समाज के मस्तक पर एक कंलक है। वैसे अब इस कुप्रथा के शिकार आम भारतीय धर्मोंे के लोग भी होने लगे हैं। आज के भौतिकवादी युग मंे दहेज की समस्या दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही है। विवाह में वर पक्ष द्वारा कन्या पक्ष से अधिक से अधिक दहेज देने की आज होड़ लग चुकी हैं। यदि कन्या पक्ष इतना दहेज देने में असमर्थ रहते हैं तो वर पक्ष द्वारा लड़की पर अत्याचार किया जाता है। उसे यातनाएं दी जाती हैं तथा अपमानित किया जाता है। और तो और उसे जिन्दा जलाने का भी प्रयत्न किया जाता है। या वधू स्वयं तिरस्कृत और ताने सुनते हुए आत्महत्या कर बैठती है। इस प्रथा के कारण बहुत से परिवार लड़की के जन्म को अभिशाप मानने लगे हैं। यह समस्या दिन प्रतिदिन विकराल रूप धारण करती जा रही है। इसके जन्मदाता हम खुद और हमारा समाज है जो सामाजिक स्तर ऊंख उठाने के ध्येय से दहेज देते हैं और उसमें अपनी शान समझते हैं।
समय रहते इस कुप्रथा का निदान आवश्यक है, अन्यथा समाज की नैतिक मान्यताएं नष्ट हो जाएंगी और मानव मूल्य समाप्त हो जायेगा।
दहेज प्रथा का अर्थ
सामान्यतः दहेज प्रथा का अर्थ उस सम्पति तथा वस्तुओं से है जिन्हें विवाह के समय कन्यापक्ष की ओर से वरपक्ष को दिया जाता है। मूलतः इसमंे स्वेच्छा की भावना निहित है लेकिन फिर भी आज दुनिया वालों में दहेज का अर्थ बिल्कुल अलग हो गया है। आज इसे एक आवश्यक नियम के रूप में लिया जाने लगा है। जिसकी गरीब या मध्यम वर्ग के लोग वरपक्ष की मनमर्जी के बिना पूर्ति नहीं कर पाते। परिणामस्वरूप आरम्भ से ही कलह जन्म लेती है।
आज के समय में दहेज प्रथा का अर्थ उस सम्पति अथवा मूल्याकंन वस्तुओं को माना जाने जगा है जिन्हंे विवाह की एक शर्त के रूप में कन्यापक्ष द्वारा वर पक्ष को विवाह से पूर्व या बाद में अवश्य देना पड़ता है। वास्तव मंे इसे दहेज की अपेक्षा इसे वर मूल्य कहना कहीं अधिक उचित है।
दहेज प्रथा के विस्तार के कारण
दहेज प्रथा के विस्तार के अनेक कारण है-
(1) धन के प्रति आकर्षण- वर्तमान समय में वरपक्ष का धन के प्रति आकर्षण बढ़ता ही जा रहा है। वरपक्ष हमेशा अच्छे एवं ऊंचे घराने की लड़कियों को ही देखते है जिससे उन्हें अधिक से अधिक धन प्राप्त हो सकें। ऊंचे घराने की लड़कियों को व्यावहार लाने में वे अपनी शान बढ़ाना और आर्थिक स्तर ऊंचा उठाना चाहते हैं।
(2) जीवन साथी चुनने की सीमित क्षेत्र- हमारा देश में अलग-अलग धर्मों व जातियों के लोग निवास करते है। सामान्यतः प्रत्येक मां-बाप अपनी लड़की का विवाह अपने ही धर्म एवं जाति से सम्बन्धित लड़के से ही करना चाहते हैं। इन परिस्थितियों मंे उपयुक्त वर के मिलने में कठिनाई होती है। परिणामस्वरूप वरपक्ष की ओर से दहेज की मांग आरम्भ हो जाती है, जिसकी पूर्ति वधू पक्ष की ओर से करने की मजबूरी आ जाती है।
(3) शिक्षा और व्यक्तिगत प्रतिष्ठा-वर्तमान समय में शिक्षा प्रणाली मंहगी है। प्रत्येक मां-बाप अपने बच्चे को उच्च शिक्षा प्राप्त कराने का प्रयत्न करते हैं।
लड़के के विवाह के अवसर पर वे इस धन की पूर्ति कन्यापक्ष को करना चाहते हैं। इससे दहेज के लेन-देन की प्रवृति बढ़ती है।
(4) विवाह की अनिवार्यता- हिन्दु धर्म में कन्या का विवाह करना सबसे बड़ा पुण्य का काम कहलाता है जबकि कन्या का विवाह न होना पाप माना जाता है। प्रत्येक समाज में कुछ लड़कियां असुन्दर एवं विकलांग होती है, जिनका विवाह बहुत कठिनाई से होता है। ऐसी स्थिति में लड़की के माता-पिता अच्छा धन देकर अपने कर्तव्य का पालन करते हैं।
दहेज प्रथा के दुष्परिणाम
दहेज प्रथा ने हमारे सम्पूर्ण समाज को धनलोभी एवं स्वार्थी बना दिया है। इससे समाज में अनेक भयानक विकृतियां उत्पन्न हुई हैं-
(1) बेमेल विवाह- दहेज प्रथा के कारण गरीब माता-पिता अपनी बेटी का विवाह किसी भी लड़के के साथ कर देते हैं। क्योंकि उनके पास इतना धन नहीं होता कि वे अपनी बेटी का विवाह किसी उच्च या अच्छे परिवार से कर सकें।
(2) कन्याओं का दुःखद जीवन- यदि वरपक्ष की मांगानुसार दहेज न देने अथवा उसमें किसी प्रकार की कमी रह जाने के कारण वधू को ससुराल में अपमानित किया जाता है। उसकी बेइज्जती की जाती है तथा अनेक प्रकार की यातनाएं दी जाती हैं जिस कारण या तो वरपक्ष द्वारा ही स्त्रियों को जलाकर मार दिया जाता है या स्त्रिंया स्वयं आत्महत्या करके अपना जीवन समाप्त कर देती हैं।
दहेज प्रथा को रोकने के उपाय
(1) दहेज प्रथा को रोकने के लिए बने हुए कानून का सख्ती से पालन कराया जाना चाहिये।
(2) अन्तर्जातीय विवाहों को प्रोतसाहन देना होगा। इससे युवतियों को योग्य वर खोजने में सरला रहेगी।
(3) लड़कियों को उच्च शिक्षा देना आवश्यक है।
(4) लड़कियों को अपना जीवन साथी स्वंय चुनने का अधिकार होना चाहिये।
उपसंहार- इस प्रथा के विरूद्व स्वस्थ जनमत का निर्माण करना चाहिये।
इस प्रकार के उपायों द्वारा दहेज प्रथा जैसी सामाजिक अपराध की समाप्ति संभव है। जब तक समाज में जाग्रति नहीं होगी, तब तक दहेजरूपी दैत्य से मुक्ति कठिन है। राजनेताओं, समाज-सुधारकों तथा युवक-युवतियों को इसके लिए आगे आना चाहिये। हर्ष की बात है कि अब इस ओर युवतियो की जागरूकता बढ़ रही है। अक्सर समाचार-पत्रों तथा मीडिया की खबरों में दहेज-लोभी वर को, वधू द्वारा खरी-खोटी सुनाकर बारात वापस करा दिये जाने का समाचार प्रकाश मंे आ रहा है। इससे अन्य युवतियों में जागरूकता बढ़ेगी।
निबंध नंबर :- 06
दहेज: एक सामाजिक कुप्रथा
Dahej : Ek Samajik Kupratha
हमारे समाज में अनेक कुप्रथाएं व्याप्त हैं। वर्तमान मंे जिस कुप्रथा ने हमारे समाज को अत्यधिक कलंकित किया है वह है आज की दहेज-प्रथा। दहेज शब्द अरबी भाषा के ’जहेज’शब्द का परिवर्तित रूप है। ’जहेज’ का अर्थ होता है-’भेंट या सौगात’। भेंट के यह भाव होता है कि काम हो जाने पर स्वेच्छा से अपने परिजन या कुटुम्ब को कुछ अर्पित करना। लेकिन, आज दहेज-प्रथा की व्याख्या है-कन्यापक्ष की ओर से वरप़क्ष को मुंहमांगा दाम देना। इससे स्पष्ट होता है कि विवाह के पूर्व सशर्त आवश्यक देन को आज का ’दहेज’ एवं विवाह के बाद स्वेच्छा से विदाई के समय की देन को ’भेंट’ कहते हैं।
प्राचीनकाल में भेंट की प्रथा थी न कि आज की दहेज-प्रथा। हमारे धार्मिक एवं ऐतिहासिक ग्रन्थ इसके साक्षी हैं। पार्वती विवाह के बाद विदाई के समय उनके पिता, हिमवान द्वारा अनेक सामग्रियां भेंट के रूप में दी गई थीं। उदाहरण-
दासी दास तुरग रथ नागा।
धेनु बसन मनि वस्तु बिभागा।।
इसी प्रकार, सीताजी की विदाइ्र के समय राजा जनक के अपरिमित भेंट दी थी-
कनक बसन मनि भरि भरि जाना।
महिषी धेनु वस्तु विधि माना।।
वर्तमान समाज में दहेज का रूप अत्यन्त विकृत हो गया है। दहेज एक व्यापार का रूप ले चुका है। स्थिति ऐसी उत्पन्न हो गई है कि जिस पिता के पास धन का अभाव है, उसकी पुत्री का विवाह असंभव प्रतीत होने लगता है। दहेज पिता के लिए सबसे बड़ा दण्ड साबित हो रहा है। लड़के का पिता अपने लड़के का मोल-भाव वस्तु के क्रय-विक्रय के जैसा करता है। वर्तमान समय में हर प्रकार के लड़के का मोल निश्चित है। उपभोक्ता सामग्री की भांति तय कीमत पर कोई भी लड़का खरीद सकता है। कुछ ऐसे भी लाचार पिता हैं जिन्हें दहेज के अभाव में अनमेल विवाह कबूल करना पड़ता है। ऐसा मालूम पड़ता है कि लड़की शादी में इन्हीं कटिनाइयों को देखकर महाकवि कालिदास ने ’अभिज्ञान शाकुन्तलम्’ में लिखा है-’कन्यापितृत्वं-खलु नाम कष्टम्। अर्थात कन्या का पिता होना ही कष्टकारक है।
विवाह के बाद भी दहेज रूपी राक्षस वधू का पीछा नहीं छोड़ता। लोभी और अकर्मण्य दामाद बार-बार वधू को अपने पीहर से धन लाने के लिए प्रताड़ित करता है। वधुएं इससे ऊबकर आत्महत्या तक करने पर विवश हो जाती हैं। आए दिन ऐसी घटनाएं होती रहती हैं। इस सामाजिक व्यवस्था में जामाता को ’दशम ग्रह’ माना जाता है जो बिल्कुल सही और स्वाभाविक है। कहा भी गया है- ’जामाता दशमो ग्रहः।’
प्रश्न यह उठता है कि दहेज-प्रथा को मूल कारण क्या हैं? अशिक्षा दहेज-प्रथा का मूल कारण है। सभी बच्चे-बच्चियों को पढ़ाना-लिखाना होगा। रेडियों, दूरदर्शन, समाचार पत्र एवं स्वयंसेवी संगठनों के सहारे दहेज-प्रथा के कुप्रभावों का समाज में प्रचार करना होगा। लेखक एवं कवियों को भी इस प्रथा के विरूद्ध आग उगलनी पड़ेगी, जैसे-प्रेमचन्द ने अपने उपन्यास ’निर्मला’ में दहेज प्रथा पर चोट की है। सरकार द्वारा इसे रोकने हेतु कानून भी बनाए गए हैं। दहेज विरोधी कानून के अनुसार-’जो भी दहेज लेगा या देगा, उसे न्यूनतम पांच वर्ष की कैद एवं 5000 रूप्ये जुर्माने की सजा दी जाएगी।’ लेकिन, ये कानून कारगर नहीं हो पा रहे हैं। ये कागजी फूल की भांति सिर्फ कार्यालयों की शोभा बढ़ा रहे हैं। इसका कारण यह है कि समाज के शक्तिशाली लोग, नेता एवं बड़े-बड़े पदाधिकारी एक ओर तो खुले मंच पर दहेज-प्रथा की भत्र्सना करते हुए यह नारा लगाते हैं-’दहेज लेना अपराध है’-तो दूसरी ओर वे ही लोग अधिक दहेज देेकर समाज में अपना बड़प्पन दिखाते हैं। मानो कह रहे हैं-’दहेज लेना हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है।’ जनमत तैयार कर ऐसे लोगों का पर्दाफाश करना चाहिए। युवकां एवं युवतियों को इस संघर्ष में आगे आना चाहिए और विवाह के पूर्व प्रत्येक युवक को यह संकल्प करना चाहिए-’दुल्हन ही दहेज है।’
निबंध नंबर :- 07
दहेज की समस्या
Dahej ki Samasya
भारतीय संस्कृति में विवाह को एक आध्यात्मिक कर्म, आत्माओं का मिलन, पवित्र संस्कार और और धर्म-समाज का आवश्यक अग माना गया है। ऐसा भी भारतीय एवं पाश्चात्य नो सभ्यता-संस्कृतियों में माना और कहा जाता है कि Marriages are arranged heaven अर्थात् दो व्यक्तियों (स्त्री-पुरुष) का पारस्परिक विवाह-सम्बन्ध पहले से ही निश्चित एवं निर्धारित रहा करता है। ईश्वर की सृष्टि रचना करते समय किन जोडों को विवाह-संस्कार द्वारा जोड़ना है, ऐसा निर्धारित कर देता है। अब का समाज शास्त्र और समाज-शास्त्री विवाह को एक सामाजिक संस्था और सभी-पुरुष के विवाह के नाम पर मिलन को एक सामाजिक बन्धन एवं सामाजिक समझौता मानता है, ताकि जीवन-समाज में यौनाचार-सम्बन्धी अनुशासन और वंश-परम्परा का रक्त शुद्ध बना रह सके।
हमारे विचार में पहले-पहल जब विवाह नामक संस्था का आरम्भ हुआ होगा, तो मूल भावना वहाँ भी यौनाचार की अराजकता मिटाकर, सम्बन्धों को स्वस्थ स्वरूप देने और जीवन-समाज को एक अनुशासन देने की रही होगी; क्यों कि तब का जीवन अपने सयमित, पवित्र एवं आदर्श हुआ करता था; इस कारण विवाह-कार्य का सम्बन्ध धर्म, अधर्म एवं लोक-परलोक से भी जोड दिया गया होगा, ताकि इन के डर से विवाहित जोडे और भी अधिक अनशासन में नियम में रह सकें। परन्तु विवाह के साथ दान-दक्षिणा और लेन-देन की प्रथा यानि दहेज-प्रथा कैसे जड़ गई. इस सबका कहीं न तो स्पष्ट उल्लेख ही मिलता है और न ही कोई प्रत्यक्ष कारण ही दिखाई देता है। हम एक तरह से सहज-सार्थक अनमान कर सकते हैं कि क्यों कि विवाहित जोड़े को एक नए जीवन में प्रवश करना होता है एक घर बसाना होता है तो ऐसा करते समय उन्हें किसी तरह का आर्थिक असुविधा एवं सामाजिक दुविधा न रहे. इस कारण बिरादरी और बारात के रूप में एक साँझापन स्थापित कर सबके सामने कन्यादान वर-पक्ष और रिश्ते-नाता या बिरादरी वालों की तरफ से इच्छानसार अपनी तथा सभी की सुविधाओं का ध्यान रखत हुए कुछ उपहार देने का प्रचलन हुआ होगा। इसी ने आगे चल कर जहज (मूल फार शब्द, दहेज नहीं) का स्वरूप धारण कर लिया होगा। इस प्रकार सदाशय प्रकार वाली एक अच्छी प्रथा आज किस सीमा तक प्रदूषण और सामाजिक लानत, क समस्या बन चुकी है, यह किसी से छिपा नहीं।
हमें लगता है, बाद में राजा-महाराजाओं और धनी वर्गों ने अपना बड़प्पन जना के लिए बढ़-चढ़ कर उपहार देना और उनका खुला प्रदर्शन करना भी आरम्भ कर दिया होगा, सो यह प्रदर्शन की प्रवृत्ति भी बढ़ कर एक अच्छी प्रथा को लानत बनाने में सहारा हुई। ऐसा हमारा स्पष्ट मानना है। फिर भी जहाँ तक हमें याद है, औरों से सुना और समझा है, देश के स्वतंत्र होने से पहले दहेज देने या कम देने के नाम पर वह सब घटित होता दिखाई या सुनाई नहीं दिया करता था, जो सब आज घट रहा है। साहित्यकारों-कवियों ने भी मध्यकालीन एवं परवर्ती रचनाओं में विवाह के अवसर दान-दहेज देने का बड़ा ही रोचक, व्यापक और बढ़-चढ कर वर्णन किया है, पर कहीं भी किसी ने दहेज के कारण होने वाली हत्याओं की निर्ममता का वर्णन नहीं किया। बीसवीं शती के दूसरे-तीसरे देशक में रची गईं कुछ रचनाओं में इस प्रकार के संकेत मिलने लगते हैं कि कम दहेज के कारण किसी विवाहिता को कुछ उत्पीडन व्यवहार सहन करते हुए जीना पड़ा या दासियों का-सा जीवन बिताना पड़ा; पर किसी पर पैट्रोल अथवा मिट्टी का तेल डालकर उसे जीवित जला दिया गया, ऐसा भी कहीं नहीं मिलता।
स्वतंत्रता-प्राप्ति के बाद से परिस्थितियों में आमल चल परिवर्तन आ गया है। धर्म, समाज, राजनीति आदि किसी भी क्षेत्र में किसी भी तरह का आदर्श नहीं रह गया। सभी क्षेत्रो को नेतृवर्ग भ्रष्टाचार मे आकण्ठ डूब चुका है। धन ही माता-पिता, धर्म, समाज, नीति-नैतिकता, देवता और भगवान् बन चुका है। सो आज हम जो दहेजजन्य हत्याओं के ब्योरों से समाचारपत्रों को भरा हुआ पाते हैं, उसका मूल कारण धन की यह कभी भी समाप्त न होने वाली भूख ही है। कन्यापक्ष से धन ही नकद या उपकरणों के रूप में अधिक-से-अधिक कैश लेने की इच्छा और दबाव ही दहेज-हत्याओं के मूल में विद्यमान है। आज मानवता या मानवीय आदर्शों का कोई मूल्य एवं महत्त्व नहीं रह गया, बल्कि एक प्रकार का व्यापार, वर पक्ष के लिए यह भूल कर एक लाभ कमाने वाले सौदा बन गया है कि उनके अपने घर में भी विवाह योग्य कन्याएँ हैं। कई बार तो उन्हीं कन्याओं के विवाह निपटाने के लिए भी अधिक-से-अधिक दहेज की माँग की जाती है। माँग पूरी न होने पर अपनी कन्या की खातिर दूसरे घर से आई कन्या को बलि का बकरा बना दिया जाता है। ऐसा करने में अक्सर नारियों का हाथ ही प्रमुख रहता है। इस प्रकार आज दहेज के नाम पर नारी ही नारी की शत्रु प्रमाणित हो रही है।
प्रश्न उठता है कि आखिर इस घिनौनी प्रथा से छुटकारे का उपाय क्या है ? उपाय के स्व में सब से पहली आवश्यकता तो सामाजिक मूल्यों और मानसिकता को पूरी तरह बदलने की है। फिर यवा वर्ग को-विशेषकर यवा परुषों को दहेज लेकर विवाह करने। से कदम इन्कार कर देने की जरूरत है। बड़े-बूढ़े लाख चाहते रहें, यदि युवा वर्ग सत्याग्रही बनकर अपने दहेज-विरोधी निर्णय पर अड़ा रहेगा, तभी इस कुप्रथा का अन्त संभव हो पाएगा, अन्य कतई कोई भी उपाय इस सामाजिक कोढ़ से छुटकारा पा सकने का नहीं है ।
निबंध नंबर :- 08
दहेज–प्रथा: एक गंभीर समस्या
Dahej Pratha – Ek Gambhir Samasay
विचार–बिंदु-• दहेज एक कुप्रथा • दहेज के दुष्परिणाम • समाधान • लड़की का आत्मनिर्भर बनना • कानून के प्रति जागरूकता।
दहेज–एक कुप्रथा–दुर्भाग्य से आज दहेज-प्रथा एक बराई का रूप धारण करती जा रही है। आज दहेज प्रेमवश देने की वस्तु नहीं, अधिकार- पूर्वक लेने की वस्तु बनता जा रहा है। आज वर पक्ष के लोग कन्या पक्ष से जबरदस्ती पैसा, वस्त्र और वस्तुएँ माँगते हैं। यह माँग एक बुराई है।
दहेज के दुष्परिणाम–दहेज के दुष्परिणाम अनेक हैं। दहेज के अभाव में योग्य कन्याएँ अयोग्य वरों को सौंप दी जाती हैं। दूसरी ओर, अयोग्य कन्याएँ धन की ताकत से योग्यतुम वरों को खरीद लेती हैं। दोनों ही स्थितियों में पारिवारिक जीवन सुखद नहीं बन पाता। गरीब माता-पिता दहेज के नाम से भी घबराते हैं। वे बच्चों का पेट काटकर पैसे बचाने लगते हैं। यहाँ तक कि रिश्वत, गबन जैसे अनैतिक कार्य करने से भी नहीं चूकते।
दहेज का राक्षसी रूप हमारे सामने तब आता है, जब उसके लालच में बहुओं को परेशान किया जाता है। कभी-कभी उन्हें इतना सताया जाता है कि वे या तो घर छोड़कर मायके चली जाती हैं या आत्महत्या कर लेती हैं। कई दुष्ट वर तो स्वयं अपने हाथों से नववधू को जला डालते हैं।
समाधान–दहेज की बुराई को दूर करने के सच्चे उपाय देश के नवयुवकों के हाथ में हैं। अतः वे विवाह की कमान अपने हाथों में लें। वे अपने जीवनसाथी के गुणों को महत्त्व दें। विवाह ‘प्रेम’ के आधार पर करें, दहेज के आधार पर नहीं। कन्याएँ भी दहेज के लालची युवकों को दुत्कारें तो यह समस्या तुरंत हल हो सकती है।
लड़की का आत्मनिर्भर बनना–लड़कियों का आत्मनिर्भर बनना भी दहेज रोकने का एक अच्छा उपाय है। लड़कियाँ केवल घरेलू कार्य में ही व्यस्त न रहें, बल्कि आजीविका कमाएँ ; नौकरी या व्यवसाय करें। इससे भी दहेज की माँग में कमी आएगी।
कानून के प्रति जागरूकता–दहेज की लड़ाई में कानून भी सहायक हो सकता है। जब से ‘दहेज निषेध विधेयक’ बना है, तब से वर पक्ष द्वारा किए जाने वाले अत्याचारों में कमी आई है। परंतु इस बुराई का जड़मूल से उन्मूलन तभी संभव है, जब युवक-युवतियाँ स्वयं जाग्रत हों।
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