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Hindi Essay on “Bharat aur Panchvarshiya Yojana ” , ”भारत और पंचवर्षीय योजनाएं” Complete Hindi Essay for Class 10, Class 12 and Graduation and other classes.

भारत और पंचवर्षीय योजनाएं

Bharat aur Panchvarshiya Yojana 

देश की स्वतन्त्रता के बाद हमारे महान् राष्ट्रीय नेताओं की सबसे अधिक रुचि इस बात में थी कि भारत विकास के पथ पर नियोजित रूप में अग्रसर हो। इसीलिए पंचवर्षीय योजनाओं का प्रारूप अस्तित्व में आया । उनका मुख्य लक्ष्य राष्ट्र का चतुर्मुखी विकास और आर्थिक असमानता को दूर करना था। दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि औद्योगिक प्रगति एवं कृषि-सुधार पंचवर्षीय योजनाओं के आधारभूत बिन्दु थे, ताकि देश को आत्मनिर्भर बनाया जा सके और एक सर्वसाधन-सम्पन्न राष्ट्र के रूप में विश्व मंच पर प्रस्तुत किया जा सके। विचारों से बहुत सीमा तक समाजवादी, भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने ही सबसे पहले राष्ट्रीय स्तर पर पंचवर्षीय योजनाओं की उपयोगिता को अनुभव किया था और उन्हें साकार रूप देने में अपनी सारी क्षमता लगा दी थी। फलतः सन 1950 में केन्द्रीय स्तर पर योजना आयोग की स्थापना की गई और पंडित नेहरू की ही अध्यक्षता में पहली पंचवर्षीय योजना को लेकर कार्य की शुरुआत हुई।

पहली पंचवर्षीय योजना का प्रारम्भ सन 1951-52 में हुआ था। बाद में अबाध गति से सिलसिला चलता रहा। विगत पंचवर्षीय योजनाओं के लक्ष्यों और मुद्दों में तो विभिन्नता देखी जा सकती है। किन्तु मुख्य मानदण्ड सभी योजनाओं का एक ही रहा है कि देश का सार्वजनिक व निजी क्षेत्रों में समान रूप से आवश्यकतानुरूप विकास हो। इसीलिए यह नहीं कहा जा सकता कि भारत में पंचवर्षीय योजनाओं का लक्ष्य अर्थतन्त्र को राज्य के नियंत्रण में लाना है। अपने देश की मिश्रित अर्थव्यवस्था में पूंजी के स्पष्टतया दो स्वरूप हैं – सार्वजनिक एवं निजी; और प्रत्येक योजना में दोनों ही क्षेत्रों के लिए लक्ष्य निर्धारित रहे हैं। ऐसे भारी उद्योगों को, जिनके लिए विपुल पूंजी-निवेश की जरूरत थी और जो राष्ट्र के लिए अनिवार्य जैसे थे, समग्र रूप में उन्हें सार्वजनिक क्षेत्र में रखा गया और उनका प्रबन्ध सरकार स्वयं संभाल रही है।

पहली दो योजनाओं – 1951-52-1955-56 तथा 1956-57-1960-61 – का अभिप्राय खाद्यान्नों तथा अन्य कृषि-उत्पादनों के क्षेत्र में आत्मनिर्भर बनने की दिशा में आधारभूत तैयारी करना था। तब तीसरी योजना (1961-62-1965-66) तक जाकर कहीं ये परिस्थितियां बन पाईं कि प्रगति व राष्ट्रीय आय में वृद्धि के लिए खाद्यान्नों में आत्मनिर्भरता, औद्योगिक विस्तार तथा श्रमशक्ति के उपयोग आदि पर ध्यान केन्द्रित किया जा सका। तीसरी योजना की सफलता व सार्थकता का अनुमान सिर्फ इसी से लगाया जा सकता है कि राष्ट्रीय विशेषज्ञों ने उसे देश की प्रगति का मील-स्तम्भ माना है, क्योंकि जब तक आयातित खाद्यान्नों पर हमें निर्भर रहना होगा और उद्योग-धन्धों की आवश्यक सामग्री हेतु अन्य देशों का मुंह देखना होगा, हम तब तक स्वेच्छया, स्वात्मबल से संचालित नहीं हो सकते।

चौथी योजना (1966-67-1971-72) में मुख्य बल 16 प्रतिशत वार्षिक की दर से प्रतिव्यक्ति आय में वृद्धि पर था। यह योजना भी अपने मुख्य उद्देश्यों में सफल रही। किन्तु दुर्भाग्यवश, पांचवीं पंचवर्षीय योजना को, उसकी अवधि के दौरान कुछ विप्लवकारी राजनीतिक परिस्थितियों से पड़े विध्न के कारण, संकट व कठिनाइयों के बीच से गुजरना पड़ा। हुआ यह कि व्यवसाइयों व उद्योगपतियों के विरोधी रवैये व आर्थिक घपलों के भण्डा-फोड़ के परिणामस्वरूप सन् 1975 में आपातस्थिति की घोषणा की गई और जमाखोरी, कालाबाजारी, करों की चोरी व चोरबाजारी से निपटने के लिये एक विशिष्ट प्रकार का 20-सूत्रीय कार्यक्रम प्रस्तुत किया गया। सन् 1977 के मध्यावधि चुनावों के परिणामस्वरूप सत्ता कांग्रेस (इ) से ‘जनता पार्टी को हस्तांतरित हो गई। चूंकि नए राजनेताओं का योजना सम्बन्धी दृष्टिकोण भिन्न था, अतः उन्होंने योजना के मानदण्डों व अवधि में संशोधन करना चाहा। नए नेताओं की धारणा थी कि सीधे व ठोस परिणामों के लिए वार्षिक योजनाएं अधिक प्रभावी सिद्ध होंगी। लेकिन आगे चलकर यह स्पष्ट तौर पर प्रकट हो गया कि उनकी सोच सुनियोजित और अन्तः

स्फर्त नहीं थी बल्कि अनमने भाव वाली थी। इसलिए न केवल पांचवीं योजना निरर्थक साबित हुई, बल्कि एक प्रकार के गतिरोध का कारण भी बनी।

छठी पंचवर्षीय योजना भी जनवरी 1980 में कांग्रेस (इ) के सत्ता में आने से पूर्व तक खटाई में ही पड़ी रही। ने तो समुचित रूप में उसका ढांचा ही तैयार किया जा सका और न व्यावहारिक रूप ही दिया जा सका। कांग्रेस (इ) के पुनः सत्ता में आ जाने के बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी का ध्यान योजना की ओर गया।

छठी पंचवर्षीय योजना में ऐसी पद्धतियों पर खसतौर से जोर दिया गया जो लोगों के सामने ठोस व प्रभावी परिणाम प्रस्तुत करें। सबसे ज्यादा महत्त्व रोजगार सम्बन्धी परियोजनाओं का था। ग्रामीण विकास सम्बन्धी स्कीमों को भी प्रमुखता दी गई और इस बात का संकल्प भी सामने था कि विदेशी स्रोतों से आर्थिक ऋण या सहायता ने लेनी पड़े।

सातवीं पंचवर्षीय योजना पर 32 खरब, 23 अरब, 66 करोड़ रुपये की धनराशि व्यय हुई जिसमें से 94 प्रतिशत धनराशि घरेलू स्रोतों से अर्जित हुई तथा शेष धनराशि विदेशी स्रोतों द्वारा प्राप्त की गई।

आठवीं योजना को 1990 में आरम्भ होना था लेकिन दो वर्ष तक देश में राजनीतिक अस्थिरता रहने के कारण इसमें विलम्ब हो गया और वर्ष 1990 और 1992 को दो वार्षिक योजनाओं के तौर पर लिया गया। इस योजना में 7,98,000 करोड़ रुपये की धनराशि व्यय की जायेगी। सार्वजनिक क्षेत्र में 4,34,000 करोड़ रु. खर्च होंगे – विशेषकर ऊर्जा, परिवहन एवं संचार के क्षेत्र में। यह योजना 1 अप्रैल, 1992 से आरम्भ हो गई है। योजना का उद्देश्य, देश-विदेश में हो रहे परिवर्तनों के अनुसार आधारभूत ढांचे को मजबूज करना तथा जनसंख्या, बेरोजगारी और निरक्षरता से जुड़ी समस्याओं का निराकरण करना है।

पैकेज रोजगार में व्यावसायिक शिक्षा, स्वास्थ्य तथा परिवार कल्याण सम्मिलित होंगे तथा उसे ग्रामीण क्षेत्रों में पनपती हुई निर्धनता के उन्मूलन हेतु योजना का मुख्य उद्देश्य माना जाएगा।

पंचवर्षीय योजनाओं के दौरान देश ने निर्विवाद रूप में उल्लेखनीय प्रगति की है। बहुउद्देशीय विशाल बांधों का निर्माण हुआ है, जिनसे सिंचाई में तो मदद मिली ही है, साथ ही, विद्युत उत्पादन में भी प्रगति हई है जिनकी कृषि तथा उद्योगों के क्षेत्र में नितान्त आवश्यकता है। अब हमारे पास इस्पात उत्पादन के भी बेहतर और पर्याप्त साधन हो गए हैं। एक ओर जहां निजी क्षेत्र में टाटा इस्पात संयंत्र हैं, वहीं दूसरी ओर सार्वजनिक क्षेत्र में अद्भुत उत्पादन क्षमता वाले राउरकेला, दुर्गापुर व बोकारो इस्पात संयंत्र भी हैं। ये संयंत्र हमारे देश में स्थित टाटा स्टील संयंत्र के अतिरिक्त हैं। कषि प्रधान देश होने के नाते उर्वरकों का स्थान हमारी मूलभूत आवश्यकताओं में आता है। उक्त क्षेत्र में भी हम लगभग आत्मनिर्भर बन चुके हैं। हमारे पास अब अपने उर्वरक संयंत्र हैं जो कृषि उत्पादन क्षमता में संतोषजनक वृद्धि करने के लिए आवश्यक हैं। पंचवर्षीय योजनाओं के परिणामस्वरूप ही किसी सीमा तक अब हम यह कह पाने की स्थिति में हैं कि कृषि और उद्योग, दोनों ही क्षेत्रों में हमारा देश आधनिकीकरण की राह पर है। प्रतिरक्षा उत्पादन (defence production) में भी हमारी प्रगति आशानुरूप है।

इन सबके बावजूद भी कुछ ऐसे लोग हैं जो पंचवर्षीय योजनाओं की आलोचना करते हैं। हालांकि रोजगार जुटाने जैसी कुछ समस्याएं जरूर हैं, जो बेशक देश के आर्थिक ढांचे को गड़बड़ा सकती हैं। यह भी वास्तविकता है कि पंचवर्षीय योजनाओं के द्वारा उनसे निपटा नहीं जा सका है, लेकिन इसका यह अर्थ नहीं निकलता कि पंचवर्षीय योजनाएं निरर्थक हैं और उनके माध्यम से राष्ट्रीय स्रोतों व समय का दुरुपयोग हो रहा है। तथापि, हमें किसी भी तरह अत्यावश्यक राष्ट्रीय समस्याओं को प्राथमिकता के आधार पर सुलझाना होगा और अपनी पूरी ताकत के साथ बेरोजगारी, चोरबाजारी व तस्करी का निवारण करना होगा।

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