Hindi Essay on “Bandhua Majdoor” , ”बंधुआ मजदूर ” Complete Hindi Essay for Class 9, Class 10, Class 12 and Graduation and other classes.
बंधुआ मजदूर
Bandhua Majdoor
जी हां, जनाब! मजदूर और मजदूरी भी बंधुआ हुआ करते या हो सकते हैं। जमीन, जायदाद, घर, मकान और सोने-चांदी के आभूषण। यहां तक कि रसोई के बर्तन-भांडे और घरेलु सामान के बंधुआ हो जाने अथवा बंधक रख देने की बात तो हम शुरू से ही सुनते आ रहे हैं। कई बार यह सुनने-पढऩे को भी मिलता रहता है किकिसी जुआरी महोदय ने जूए में पराजित होकर रुपए-पैसे के अभाव में अपनी पत्नी को ही बंधक बना दिया। परंतु मजदूर ओर मजदूरी भी बंधुआ या बंधक हुआ करते हैं, यह बात पिछले कुछ वर्षों से ही सुनने में आने लगी और अपनी संपूर्ण अंतरंग भयंकरता के साथ उजागर होने लगी है। इतिहास में हम आदमी को गुलाम बनाकर बेचने और फिर उन पर मनमाने अत्याचार करने, खरीदार द्वारा उन्हें भूखे-प्यासे रखकर अमानुषिक स्तर तक कठोर कार्य लेने की बातें भी पढऩे को मिल जाती हैं। यों तो समस्त यूरोपीय देशों में मानव बिक्री का यह काला धंधा और अमानवीय व्यापार चलता रहा पर रोम का नाम इस क्षेत्र में सबसे बढ़-चढक़र लिया जाता है। वहां तो बेचारे बंधकों गुलामों को खूंखार जानवरों के साथ या आपस में ही तब तक लड़ाया जाता था, जब तक कि दोनों में से कोई एक मर न जाए। भारत में इस सीमा तक तो नहीं, पर गुलाम-प्रथा रही अवश्य। आज का बंधुआ मजदूर या बंधुआ मजदूरी शायद उसी ऐतिहासिक परंपरा का नवीन एंव आधुनिक संस्करण है। आज के युग में, मानवाधिकारों के पोषक और दुहाई देने वाले, सभ्यता-संस्कृति के उच्च मान-मूल्य स्थापित करने वाले आधुनिक वैज्ञानिक युग में निश्चय ही यह प्रथा या परंपरा एक घोर कलंक है। मानवता का घोर अपमान है। अपनी हदयहीनता के कारण अत्याधिक लज्जाजनक बात एंव व्यवहार भी है।
मजदूरी या श्रम बेचना न तो नई बात है और न बुरी ही। आरंभ से ही मनुष्य रोटी-रोजी की समस्या के समाधान के लिए अपना श्रम बेचना आया है, आज भी बेच रहा है। बुरा तब होता है, जब श्रम के साथ श्रमिक को भी चंद पैसों का गुलाम बनाकर मध्यकालीन सामंतवादी मानसिकता का परिचय दिया जाए। बंधुआ प्रथा के मूल में वस्तुत: यह सामंती और बर्बर युग की मानसिकता ही काम कर रही है। होता यों है कि कुछ समर्थ ओर पैसे वाले लोग विशेषकर जमींदार और ठेकेदार आवश्यकता पडऩे पर बेचारे निर्धन लाचारों को कुछ रुपया ऋण के रूप में दे देते हैं। ब्याज के रूप में उनसे घरेलू या अन्य प्रकार के काम लेने लगते हें। यह ऋण और उसका ब्याज पीढ़ी-दर-पीढ़ी बढ़ता ही जाता है, समाप्त कभी नहीं होता और इस प्रकार ऋणग्रस्त की मात्र अपनी ही नहीं आने वाली पीढिय़ां भी बंधुआ बनकर रह जाया करती है। उनकी बहू-बेटियों तक को ब्याज के रूप में अपनी कुवासनाओं का शिकार बनाया जाता है। बच्चों का बचपन, युवकों का यौवन और वृद्धों का बुढ़ावा सभी कुछ बेरहमी से कुचल काम लिया जाता है। बदले में सुविधांए तो क्या, पेट-भर रूखा-सूखा खाना तक नहीं दिया जाता। इनके बच्चे-बच्चियां और पत्नियां तक भी ऋण के कारण बंधुआ हो जाती हैं। गंदी झोंपडिय़ों में रहते हुए बीमारी-गर्मी में इनका कोई पूछने वाला नहीं होता। एक फटी-पुरानी धोती-साड़ी में इनका पूरा जीवन व्यतीत हो जाता है। जैसा कि ऊपर कह आए हैं, यहां तक कि इनकी युवा औरतों पर भी ऋण देने वाले मानववेशी दरिंदे अपना अधिकार मानते हैं। इस प्रकार बंधुआ मजदूर और मजदूरी की समस्या एक भयानक कोढ़ बनकर भीतर-ही-भीतर मानवता का जाने कब से शोषण करती आ रही है और आज भी निरंतर कर रही है।
अब विगत कुछ सहदय नेताओं और उनके आंदोलनों-अभियानों के माध्यम से सरकार का ध्यान इस भयावह मानवीय समस्या की ओर गया है। अत: बंधुआ-मुक्ति का प्रयास जोरों से चल रहा है। सरकार ने इनको दिए गए ऋण अवैध और माफ या मुफ्त घोषित कर दिए हैं। जिन क्षेत्रों में बंधुआ होने की तनिक भी संभावना हो सकती है, उन सबका गहन सर्वेक्षण कर इन्हें मुक्त कराया जा रहा है। उनके लिए विभिन्न क्षेत्रों में रोजगार की व्यवस्था भी की जा रही है। यदि कोई अपना परंपरागत उद्योग-धंधा करना चाहता है तो उसके लिए अनुदान या नाममात्र के ब्याज पर सरकारी ऋण की व्यवस्था भी की जाती है। आवास आदि की सुविधांए भी जुटाई जा रही हैं। लगता है, इनका भविष्य उज्जवल हो सकेगा। परंतु तभी, जब पूरी ईमानदारी और सतर्कता से इस ओर ध्यान दिया जाएगा, जो कि अभी तक नहीं दिया जा सका है।
स्वतंत्रता हर प्राणी का जन्मसिद्ध अधिकार तो है ही, सभी की अच्छी भी लगती है। फिर मनुष्य? इन बंधुआओं को किन पराधीन परिस्थितियों में जीवन का बोझ ढोना पड़ता था, उनके मुख से उनकी कहानियां सुनकर वास्तव में तन-मन में रोंगटे खड़े हो जाते हैं। सारी प्रगति और विकास की बातें घिघयाती हुई सी प्रतीत होने लगती हैं। अत: मानवता के सुखी-समृद्ध भविष्य के लिए उसके माथे पर लगा यह कलंक शीघ्र मिटाया जाना चाहिए। ऐसी व्यवस्था भी की जानी चाहिए कि एक बार छुटकारा पाने के बाद उन्हें फिर बंधुआ होने को विवश न होना पड़े, जैसा कि कुछ मामलों में होना पड़ा है। तभी बंधुआ-मुक्ति-आंदोलन वास्तव में सार्थक बन पाएगा।