Hindi Essay on “Anekta mein Ekta” , ”अनेकता में एकता” Complete Hindi Essay for Class 10, Class 12 and Graduation and other classes.
अनेकता में एकता
Unity in Diversity
निबंध नंबर :01
भारत की संस्कृति विविधारूप है। भारत एक विशाल देश है। यहां अनेक धर्म और जातियों के लोग रहते हैं। सनातन धर्म, वैदिक धर्म, बौद्ध धर्म, और जैन धर्म, ईसाई, इस्लाम आदि अने धर्म हैं। और हूण, तुर्क, पठान, पुर्तगाली, फे्रंच, मुगल, अंग्रेज, डच, पारसी अनेक जाति के निवासी हैं। वहां मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारा, मठ, चर्च आदि पूजा-स्थल है। इसी प्रकार यहां विविध पोशाकें पहनने वाले लोग रहते हैं। वे अलग-अलग भाषाएं-बोलियां बोलते हैं। यहां आस्तिक भी। सब अलग-अलग प्रकार के उत्सव, पर्व, त्यौहार आदि अलग-अलग महीनों में मनाते हैं। कभी रथ यात्रांए निकलती है तो कभी शोभायात्रा का मनमोहक दृश्य सामने आता है। कभी परिक्रमा का धूम मचाती है तो कभी ईद की बधाईयां दी जाती हैं। यहां दीपों का पर्व भी है और बैशाखी व हुड़दंग का महोत्सव भी इस प्रकार यहां का प्रत्येक दिन एक त्यौहार है या पर्व अथवा उत्सव।
इस सबसे यह सोचा जा सकता है कि यहां एकता कैसे है? यहां तो धर्म, रीति, पद्धति, पहनावा, बोली, रहन-सहन आदि सबमें भिन्नता है। यह सही है परंतु यह इससे ज्यादा सही है कि इस विविधता के बाद यहां एकता है, परस्पर प्रेम और त्याग की भावना है। जैसे अनेक वाद्य मिलकर अत्यंत मधुर वातावरण बना देते हैं ठीक उसी प्रकार यहां अनेकता एकता में मिलकर प्रयाग के आनंद की अनुभूति कराती है।
यह इस धरती की माटी की अपनी विशेषता है कि आक्रामक उसे जीतने आता है और कू्ररता, घृणा, और आतंक से भरा होता है, कत्लेआम कराता है, फिर भी वह बहुत जल्दी अपनी धरती को भूलकर हमेशा-हमेशा के लिए यहां का हो जाता है। जैसे ऋर्षि आश्रम में पहुंच डाकू, शैतान, शेर, सर्प आदि अपने दु:स्वभाव को भूलकर संत स्वभाव धारय कर लेते हैं। उसी प्रकार आक्रामक कौंमें भी अपने पैने दांतों और नापाक इरादों को छोडक़र इस मिट्टी को अपनी मां मानती रही हैं।
वास्तव में इस धरती ने संस्कृति की ऊंचाईयों को जिया है। तप से यह धरती-पावन हुई है। इस धरती ने मां की ममता को अपने से व्यक्त होने दिया। यहां स्नेहहीन को स्नेह मिला है, घृणा को प्यार मिला है, दस्यु को सन्तता और कू्ररता को दया व सहानुभूति। इस कारण यहां की संस्कृति ओर सभ्यता अन्यतम ऊंचाईयों को अपने से सूर्योदय सी व्यक्त कर सकती है।
यहां की धरती हृदय है। यहां का समीर मन है। यहां का वातावरण मनुज समर्पित है। यहां का जीवन उसकी सुगंध है। यहां हर मौसम में उत्सव, पर्व और त्यौहार है। यही कारण है कि यहां का निर्धन से निर्धन चैन से जीता है और झोपड़ी में रहकर जीवन का सुगंध से भरपूर रहता है। सच्चा सुख क्या है, यहां का जन-जन यह जानता है। त्याग उसके लिए गौरव की बात है और अपनाना चाहे वह शत्रु ही क्यों न हो, विशालता व महानता की।
भारत करुणा, दया, सहानुभूति, प्रेम, अहिंसा और त्याग का देश है और इसकी संस्कृति इस बात की साक्षी है। संस्कृति ने अपने को त्यौहार पर्व और उत्सव के रूप में प्रकट किया है। यह देश अपने में महोत्सव मन को जाता है।
संस्कृति किसी देश का हृदय व मस्तिष्क दोनों ही होती है। जनमानस प्रसन्नता, आहाद और आनंद से जीवन-यापन कर सके, जीवन का यही लक्ष्य है इस लक्ष्य को प्राप्त कराने का उत्तरदायित्व उस देश की संस्कृति पर है। यह बात भारतीय संस्कृति से स्वंय सिद्ध हो जाती है कि यहां का जन-जीवन पर्वों के उल्लास, उमंग से प्रसन्न रहता है।
रक्षा-बंधन, बुद्ध पूर्णिमा, जन्माष्टमी, गणेश चतुर्थी, क्रिसमस, दशहरा, दीपावली, शिवरात्रि, नौ-दुर्गा, बसंत पंचमी, होली, जयंतियां, परिक्रमांए, मंदिर-दर्शन, तीर्थ यात्रांए, कुंभ, अद्र्धकुंभ, भैया दूज आदि अनेक उत्सव और त्यौहार हैं जिनसे समाज में ममता और आनंद की अनुभूति होती है और जीवन में एक उल्लास भरा परिवर्तन परिलक्षित होता है जन-मन एक हो जाता है।
हरऋतु में उत्सव है, त्यौहार है। उनके पीछे जीवन-दर्शन है, जीने का नवीन दृष्टिकोण है। जीवन एक मेला है, यहा बात यहां के जीवन को देखने से अनुभूत होती है। रानी से यहां के जीवन में उदातर और आदर की भावना है।
उत्सव-त्यौहारों और पर्वों और इस संस्कृति को कुप्रथाओं, ढोंग, अंधविश्वासों, ने गलत दिशा में मोड़ दिया है। आडंबर को इसी कारण प्रधानता दी जाने लगी है और वास्तविकता को नकार दिया है। वैज्ञानिक दृष्टिकोण ने व्यक्ति को अर्थकेंद्रित करने व्यक्तिवादी बना दिया है। फलत: वह आम सामूहिक उत्सवों को छोडक़र पांच-सितारा संस्कृति में भाग लेने लगा है। इस कारण धीरे-धीरे अब संस्कृति अपना जीवन-अर्थ पूर्व की भांति प्रकट नहीं कर पा रही है।
फिर भी भारतीय संस्कृति अध्यात्मवादी है अत: उसका स्त्रोत कभी सूख नहीं पाता है। वह निरंतर अलख जमाती रहती है और प्रतिकूल परिस्थितियों में भी आनंद से जोड़ती रहती है। उसकी चेष्टा मानव-जीवन को नव-से-नव ज्योति, बल, संगीत, स्नेह, उल्लास और उत्साह से भरने की है। यही इस संस्कृति की सबसे सशक्त विशेषता है। वस्तुतया पर्व, उत्सव और त्यौहार ही इस संस्कृति की अन्त: अभिव्यक्ति है।
निबंध नंबर : 02
अनेकता में एकता: हमारी सांस्कृतिक विशिष्टता
यूनान मिस्त्र रोमां सब मिट गये जहां से,
अब तक मगर है बाकह नामो-निशां हमारा।।
इस कथन में दंभोक्ति नहीं है बल्कि हमारी सांस्कृतिक परम्परा का यर्थाथ है, जो युगों-युगांे से स्वच्छ अविरल धारा के समान प्रवाहमान रही है और आगे भी रहेगी। भारत में जो लोग पश्चिम का अंधानुकरण कर रहे हैं वे यह भूल रहे हैं कि जब हम जीवन के हर क्षेत्र में उन्नति के शिखर पर थे, तब ये पश्चिम वाले सभ्य समाज से दूर असभ्य और बर्बर जीवन जी रहे थे। विश्व में भारत ही एक ऐसा देश है जिसकी समृद्ध सांस्कृतिक कहलाती है। लेकिन आचार-विचार तो उसका बाह्म रूप है, भीतरी रूप से मानव का शेष प्रकृति के साथ तादात्म्य है। संस्कृति का समानार्थाक शब्द ’कल्वर’ भी है जिसकी उत्पŸिा लैटिन भाषा के कल्टस और कल्टुरा शब्दों से हुई है जिसका अर्थ है कृषि करना। इस प्रकार ’संस्कृति’ कल्चर से अधिक विकसित है।
संस्कृति को परिभाषित करते हुए डाॅ. राधाकृष्णन ने लिखा है-’’संस्कृति विवके बुद्धि का, जीवन को भली प्रकार जान लेने का नाम है। डाॅ. मंगलदेव शास्त्री के अनुसार-’’किसी देश या समाज के विभिन्न जीवन व्यापारों में या सामाजिक संबंधों में मानवता की दृष्टि से प्रेरणा प्रदन करने वाले उन आदर्शों की सृष्टि को ही संस्कृति समझना वाहिए। संस्कृति के विषय में डाॅ. रामधारी सिंह दिनकर के विचार उल्लेख्य हैं-’’असल में संस्कृति जीवन का एक तरीका है और यह तरीका सदियों से बंधा होकर उस समाजे में छाया रहता है, जिसमें हम जन्म लेते हैं। अपने जीवन में हम जो संस्कार जमा करते हैं वह भी हमारी संस्कृति का अंश बन जाता है और मरने के बाद हम अन्य वस्तुओं के साथ-साथ अपनी संस्कृति की विरासत भी अपनी भावी पीढ़ियों के लिए छोड़ जाते हैं। इसलिए संस्कृति वह चीज मानी जाती है जो हमारे सारे जीवन को व्यापे हुए है तथा जिसकी रचना और विकास में अनेक सदियों के अनुभव का हाथ है। यही नहीं, संस्कृति हमारा पीछज्ञ जन्म-जन्मांतरांे तक करती है। अपने यहां कहावत है, जिसका जैसा संस्कार होता है, उसका वैसा ही पुर्नजन्म होता है। संस्कार या संस्कृति असल में शरीर का नहीं, आत्मा का गुण है।
हमें यह भी जानना चाहिए कि सभ्यता मनुष्य की भौतिक जीवन की उपयोगिता से संबंधित है और संस्कृति मानव की मानवता से। भारतीय संस्कृति वैविघ्यपूर्ण है। भाषा, धार्मिक विचार, जाति, बहुजातीय समाज सभी में विविधता है, किंतु इनमंे प्रारम्भ से ही समन्यात्मकता भी है। भारत में प्राचीन काल से विदेशियों का आना शुरू हो गया था और कुछ अन्तराल के बाद सोलहवीं-सत्रहवीं शताब्दी तक जारी रहा। आर्य, यवन, यूनानी, शक, हूण, कुषाण, अरबवासी, तुर्क, मंगोल, अंग्रेज, फ्रांसीसी, डच आदि भारत आए। लेकिन सभी आक्रमणकारी अन्ततः भारतीय बन गए।
भारत में अब भी अनेक जातियों है, अनेक बोलियां हैं। भारत को प्रायः भाषा का अजायबघर कहा जाता है। यहां लगभग 180 बोलियां बोली जाती हैं। इस सबके बावजूद भारतवासी एक हैं। भारत की समन्वय की भावना एकरूपता की भावना पर आधारित है। अनेकता में एकता का अनुसंधान हमने प्रारम्भ से किया है। भारत की एकता वह सम्पूर्णता है जो मां की तरह सतत काम-दुधा है, नदी की तरह सतत प्रवहमान और प्रगतिशील है। उससे जुड़कर ही हम छोटे-बड़े की भावना को भूलकर अपने को देवता से भी अधिक भाग्यशाली मानते हैं। भारत की अनेकता में जो एकता निहित है, उसको नेहरू ने अपने शब्दों में व्यक्त किया है- श्ज्ीमतम पे नदपजल ंउपकेज कतपअमतेपजल पद प्दकपंण्श्
भारतीय समाज मंे सदा से अनेक धार्मिक मत-मतान्तर साथ-साथ विकसित होते रहे हैं। सनातन धर्म में उपनिषदों के दर्शन थे तथा बाहरी जातियों, धर्मो में ईसाई, यहूदी, इस्लाम आदि प्रमुख हैं। भारत में हिन्दू, बौद्व, जैन, शैव, वैष्णव आदि अनेक मत-मतान्तर रहे हैं। भारतीय संस्कृति की परम्परा में विविधता के मध्य एकता की स्थापना करने की क्षमता है। वेदों में भी कहा गया है-’वसुधैव कुटुम्बकम’ तथा ’सर्वभूते हिते रतः। सभ्यता और संस्कृति के विभिन्न अंगों में इस एकता का प्रतिबिम्ब नजर आता है। यह अनेकता में एकता विभिन्न सांस्कृतिक तत्वों में परिलक्षित होती है।
भारतीय समाज में एकरूपता का पुट है। यद्यपि भारत में हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई, यहूदी, जैन और बौद्ध आदि सामाजिक इकाइयां हैं, जिनके अपने-अपने सामाजिक आचार-विचार, जीवन-दर्शन, धार्मिक विश्वास, परम्परा और रीति-रिवाज हैं, फिर भी उनमें पारस्परिक संबंध उदार तथा सहिष्णु हैं।
Its was really usefull its a good site
Yes it good
aww nice
it was a good answer and helpful too
I love this essay it is too helpful