Hindi Bhasha par English ka Prabhav “हिन्दी भाषा पर अंग्रेजी का प्रभाव” Hindi Essay, Paragraph in 1000 Words for Class 10, 12 Students.
हिन्दी भाषा पर अंग्रेजी का प्रभाव
Hindi Bhasha par English ka Prabhav
मनुष्य स्वभावतः अन्य लोगों से कुछ-न-कुछ सीखने का आकांक्षी होता है। इसके लिए वह उनकी भाषा तथा साहित्य के सम्पर्क में आता है। इस प्रकार वह जहाँ कुछ ग्रहण करता है वहाँ कुछ प्रदान भी करता है। इसके अतिरिक्त जब दो जातियां राजनीति आदि के माध्यम से परस्पर एक-दूसरे के सम्पर्क में आती हैं तब उनकी भाषा तथा साहित्य का परस्पर आदान-प्रदान होता है। जो शक्तिशाली होती. है उसके प्रभाव से दूसरी पूर्णतः प्रभावित होती है। हिन्दी भाषा और साहित्य पर अंग्रेजी प्रभाव की विचारणा के समय यही एक तथ्य समझ में आता है। जब भारत में ईस्ट इण्डिया कम्पनी के प्रवेश से अंग्रेजी सत्ता की जड़ें जम गई, तब उसका प्रभाव जाने-अनजाने रूप में हिन्दी पर पड़ना स्वाभाविक था। पुनः अंग्रेजी के हठपूर्वक लादे गए बोझ से परिस्थितिवश भारतीयों, हिन्दी भाषियों को उसे ग्रहण करना पड़ा। भाषा की दृष्टि से तो हिन्दी-अंग्रेजी परस्पर घुली-मिली है, साहित्य भी अंग्रेजी के प्रभाव से अछूता न रह गया। क्या कविता, नाटक, कहानी, उपन्यास और समालोचना सभी पर उसका प्रभाव पड़ा और समाज ही वैज्ञानिक विवेचना के कारण हिन्दी वाले अंग्रेजी की गतिविधियों को अवश्यमेव अपनाते जा रहे हैं। यह कहने में तनिक भी सन्देह नहीं हैं कि आधुनिकता हिन्दी साहित्य में मूलतः अंग्रेजी प्रवृत्तियों की ही उपज है। अतः हिन्दी भाषा और साहित्य पर अंग्रेजी प्रभाव की अवज्ञा कदापि नहीं की जा सकती।
भाषा की दृष्टि से तो जब अंग्रेजी शासन यहाँ स्थापित हुआ, तब लोग उसे सीखने लगे। कारण, अंग्रेजी पढ़े-लिखे व्यक्तियों के लिए ही अच्छी नौकरियां मिल पाती थीं। कुछ लोग वातावरण के प्रभाव में भी उसके सम्पर्क में आए। फलतः अंग्रेजी के अनेक शब्द हिन्दी भाषा में आकर मिल गए। पढ़े अनपढ़े सभी के लिए वे समान बन गए भाषा, पैकेज, कलैक्टर फौज, आडिट, बैंक स्टेशन, कन्ट्रोल कमेटी, कम्पनी, फोटो, चेम्बर, लैक्चरर, मास्टर, केश, अफसर आदि शिक्षा संस्थाओं में भी हमारे छोटे-छोटे बच्चे उपस्थित श्रीमान न कहकर ‘यस सर’ कहने लगे। घरेलू जीवन में किसी की तबीयत खराब होने पर ‘फीवर’ शब्द का ही अधिकांश प्रयोग होता हैं। इन आगत शब्दों के अतिरिक्त अंग्रेजी भाषा का हिन्दी पर और भी प्रभाव पड़ा। व्याकरण के अन्त में भी पद व्याकरण, क्रिया विशेषण के भेद, कॉमा सीमोकोलन आदि के चिह्नों के लिए हिन्दी अंग्रेजी की ऋणी हैं। आधुनिक अनुवादों में तो वाक्य गठन तक अंग्रेजी के ही अनुकरण पर कर्त्ता, क्रिया और कर्म में देखा जा रहा है। तात्पर्य यह है कि भारत में लम्बे काल तक अंग्रेजी शासन व्यवस्था रहने के कारण उनकी भाषा का प्रभाव हिन्दी पर पड़ना नैसर्गिक है। मैकाले ने तो विशेष रूपे से अंग्रेजी शिक्षा-दीक्षा का प्रबन्ध विद्यालयों में किया था, भले ही उनका दृष्टिकोण कुछ भी रहा हो लेकिन यहाँ इतना ही अभीष्ट है कि इन सब प्रयोग से हिन्दी को अंग्रेजी के रंग में रंग जाना पड़ा।
साहित्य की दृष्टि से आधुनिक हिन्दी कविता, कहानी, उपन्यास, निबन्ध तथा समालोचना सभी पर थोड़ा बहुत अंग्रेजी साहित्य की छाया है। यह बड़े दुःख का विषय है। हमारे कहने का आशय कदापि नहीं कि आज जो कुछ हिन्दी में देख रहे हैं वह सभी अंग्रेजी का अनुकरण हैं। प्रत्युत यह कि हम हिन्दी की मौलिक शिक्षा के लिए उसकी ओर हाथ फैलाये खड़े रहते हैं। तभी तो जो नवीनता वहाँ दीख पड़ी है, उसी का कुछ टेढ़े-मेढ़े शब्दों में हिन्दी में निरन्तर प्रयोग होने लगता है। हिंदी कविता में छायावाद यूरोप के रोमांटिसिज्म की ही तो छाया है। शैले, कीट्स व वर्डसवर्थ आदि रोमानी कवियों की अनेक कविताओं की स्पष्ट छाप हिन्दी की छायावादी कविताओं में द्रष्टव्य हैं। रहस्यवाद में भी दुखानुभूति की अभिव्यक्ति उसी की छाया की प्रतिरूप हैं। प्रगतिवाद तथा आधुनिकतम प्रयोगवाद तो पूर्णतः उसी का अनुकरण हैं। आज कविताएं में अंग्रेजी की शैली से प्रभावित हैं, क्या इस तथ्य को अस्वीकार किया जा सकता है? हिन्दी में प्रगति छन्द परम्परा के मूल में तो अंग्रेजी की ‘लिरिक’ शैली ही है और आजकल तो विदेशी प्रभाव से ही हिन्दी में नयी-नयी विधाएँ जुड़ रही हैं।
जहाँ पद्य अंग्रेजी से दब गया है, वहाँ हिन्दी का पद्य साहित्य भी उसके प्रभाव से अछूता नहीं है। हिन्दुस्तानी की गाथा एवं आख्यायिका का स्थान आज शार्ट स्टोरी ने लिया है। उनमें न घटनाओं का कहीं विस्तार है और न चमत्कारिकता कौशल, अपितु चरित्र-चित्रण के लिए मनोवैज्ञानिक आधार ही प्रमुख हो गया है। उपन्यास के क्षेत्र में भी इसी आधार को अपनाया जा रहा है। पत्रों के अनुभव एक-एक गुत्थी को खोलने के लिए एक उपन्यासकार मनोविज्ञान का आधार ग्रहण करता है। जैनेन्द्र जी के उपन्यास इस रूप में उल्लेख्य हैं। नाटकों का तो वैसे ढांचा ही अंग्रेजों के प्रभाव से परिवर्तित हो गया है। रंगमंचीय लम्बे नाटक का स्थान आज एकांकियों ने ले लिया। ध्वनि एकांकी तथा रेडियो नाटक तो निश्चित रूप से इसी प्रभाव के परिणाम हैं। दुखान्त नाटकों का प्रचलन भी इसी आधार पर है। लक्ष्मीनारायण लाल के नाटकों पर स्पष्टतः इमर्सन और शॉ का प्रभाव है। निबन्ध एवं समालोचना के क्षेत्र में भी आज हिन्दी वाले पश्चिम का अनुकरण कर रहे हैं। यों तो रिचर्ड्स आदि का प्रभाव आचार्य शुक्ल पर भी था। लेकिन वहाँ उनकी मौलिकता उनसे बढ़कर थी, लेकिन आज मौलिकता के नाम पर भी इसी अनुकरनात्मक प्रवृत्ति का विश्लेषण अधिक व्याप्त हो रहा है। आशय यह है कि हिन्दी साहित्य अंग्रेजी का बहुत कुछ ऋणी है। लेकिन यह उचित कदापि नहीं। कारण, प्रत्येक भाषा के साहित्य का अपना अस्तित्व होता है, अपनी नवीनता और मौलिकता होती है। अगर वह अन्य की नकल है तो अवश्य ही नष्ट हो जाएगा। यह ठीक है कि हम अंग्रेजी से कुछ ग्रहण करें लेकिन स्वयं को भुलाएं नहीं, यह भी आवश्यक है और तभी हिन्दी भाषा साहित्य का कल्याण सम्भव है। फिर भी वैज्ञानिक विवेचन की परम्परा को जाग्रत करने के कारण हम अंग्रेजी के ऋणी है।