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Dhrmnirpekshta aur Bharat “धर्म निरपेक्षता और भारत” Hindi Essay, Paragraph in 800 Words for Class 10, 12 and competitive Examination.

धर्म निरपेक्षता और भारत

Dhrmnirpekshta aur Bharat

धर्म और धर्म-निरपेक्षता का सामान्य अर्थ- ‘धारमति इतिध्सः धर्मः’ कहकर धर्म के स्वरूप की व्याख्या की गई है। तात्पर्य यह है कि धारण करने की शक्ति धर्म की मुख्य विशेषता है। धारण की शक्ति का तात्पर्य है, रक्षा अथवा कर्तव्य पालन। इस प्रकार धर्म कर्तव्य पालन अथवा रक्षा का पर्यायवाची कहना है। धर्म हमकों एक सूत्र में बाँधता है।

वह धर्म निश्चय ही अवरोधों एवं एकता मूलक होता है, जिसमें धैर्य, क्षमता, शक्ति, चोरी न करना, पवित्रता, इन्द्रियों पर विजय, बुद्धि, विधा, सत्यभाषित तथा क्रोध हीनता आदि हों। इन गुणों से मुक्त धर्म की निरपेक्षता का तात्पर्य अवगुणों एवं अधर्म की शरण में जाना है। भारत अब धर्मनिरपेक्षता की बातें करता है, तब वह धर्म के उक्त दस गुणों से रहित होने की बात नहीं करता उसकी धर्म-निरपेक्षता के धर्म दस गुणों का जोरदार समर्थन करती हैं।

धर्म निरपेक्षता से भारत का तात्पर्य, धर्म के श्रम के बाह्य रूप की निरपेक्षता से है। धर्म का बाह्य रूप अंधविश्वासों पर आधारित है। वह जातिगत भेदभाव का समर्थन करता है। वह मानव-समाज को मंदिर, मस्जिद तथा गुरुद्वारों की सीमाओं में बाँटता है। वह आपस में लड़ाना, तथा रक्त बहाना सिखाता है। उसका सन्देश एकतावादी नहीं, अनेकतावादी है। धर्म के इस रूप को भारत स्वीकार नहीं करता। यही भारत की धर्म निरपेक्षता शब्द का अर्थ है। समन्वय वादिता तथा सहनशीलता धर्म-निरपेक्षता का मूलभाव है।

भारत धर्म के बाह्य और विकृत रूप को स्वीकार नहीं करता। उसने स्वाधीन होते ही अपनी धर्मनिरपेक्षता की नीति घोषणा कर दी। इसका एक निश्चित कारण यह है कि भारतीय नेता धर्म के नाम पर किये गए रक्तपात को अच्छा नहीं मानते। उनका मूल सिद्धान्त यह है कि मानव के विकास में धर्म की संकीर्ण मान्यता किसी प्रकार की बाधा न बनें-

इस निर्णय के पीछे महान इतिहास है। एक युग था कि यूरोप में धर्म युद्ध होते थे। सारा यूरोप रोमन कैथोलिक तथा प्रोटेस्टेट नामक दो धर्मों में विभाजित था। धर्म के नाम पर धर्म का स्वामी अत्यचार करता था। स्वयं के अहित बेचता था। अपने विरोधों को नष्ट करके मानता था।

भारत की स्थिति भी कुछ अच्छी न थी। यहाँ शैव और शाक्तों के संघर्ष होते थे। रामोपासक और कृष्णोपासक अलग-अलग बैठते थे। वैष्णों और शैवों में परस्पर संघर्ष होता था। योगी तथा कर्मकाण्डी का रास्ता अलग था एवं भक्त और उपासक महत्त्व बनाते थे। इस प्रकार धर्म के नाम पर, मानव, समाज पृथक-पृथक झुण्डों में बैठ तथा एक-दूसरे को नष्ट करने पर तुला था।

थोड़े समय बाद, एक युग वह आया, जब इस्लाम की भारत पर विजय हुई। फिर दूसरा युग आया। ईसा मसीह के अनुयायी ईसाई भारत में आए। उन्होंने लाड़-प्यार के साथ अन्य धर्मानुयायियों को अपने धर्म में परिवर्तन किया इन्होंने भी धार्मिक विद्वेष एवं पृथकता की खाई चौड़ी की। अरब राष्ट्र और इसराईल का झगड़ा भीषण रूप में इस्लाम और ईसाई धर्म की पारस्परिक प्रतिद्वन्द्विता है। धर्म के नाम पर होने वाले इन अनाचारों को भारत सहन नहीं करना चाहता। यही कारण है कि स्वतंत्र होते ही भारत ने स्वयं को धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र घोषित किया गया।

भारत में धर्मानुसरण से ही अनेक धर्मों और मतों का अस्तित्व रहा है। यद्यपि इनमें एकजुटता विद्यमान है। सभी धर्म एक स्थान पर जाकर मिले हैं। जिसका स्वरूप है, सहिष्णुता और समन्वयवादिता । सम्राट अशोक, बौद्ध था। लेकिन उसने सभी धर्मों का सम्मान किया। अकबर इस्लाम का अनुयायी था, किन्तु उसने ‘दीन-ए-इलाही’ का प्रचार किया। कबीर हिन्दू थे पर उन्होंने सभी धर्मों की एकता का प्रतिपादन किया। तुलसीदास वैष्णव थे, परन्तु समन्वयवादी थे। महात्मा गांधी वैष्णव थे, किन्तु उन्होंने राम और रहीम को एक माना था। स्वाधीन होते ही भारत ने अपने अतीत की धार्मिक आस्था को महत्त्व दिया। 26 जनवरी, सन् 1950 को उसने अपना धनवादी विधान लागू किया तथा स्वयं गणराज्य और धर्म निरपेक्ष राज्य घोषित किया। यह माना गया कि धर्म किसी एक व्यक्ति की वस्तु नहीं है। प्रत्येक व्यक्ति स्वाधीनतापूर्वक अपने धर्म का पालन कर सकता है। राज्य का अपना धर्म में कोई न होगा। जनू, 1968 में, कश्मीर में हुए राष्ट्रीय एकता सम्मेलन में साम्प्रदायिकता पर रोक लगाने का प्रस्ताव पारित करके भारत की धर्म निरपेक्षता की नीति पर मुहर लगा दी ।

धर्म निरपेक्षता की नीति की उद्घोषणा करके भारत ने विश्व के अनेक राष्ट्रों में सम्मानित स्थान प्राप्त किया है, धर्म निरपेक्षता से भारत का मस्तिष्क ऊंचा उठता है। तथा धर्म सापेक्ष होने से पाकिस्तान का गौरव घटता है।

भारत एक धर्म निरपेक्ष राष्ट्र है। इसका तात्पर्य यह नहीं कि भारतीय किसी धर्म में विश्वास नहीं करते। भारतीयों का सदैव से विश्वास, उस धर्म में रहा है, जो मानवता का विकास करता है, जिससे मनुष्य के हृदय का परिष्कार होता है तथा जिसके पालन से मानव वास्तव में मानव बन जाता है। भारत में धर्म का रूप एकांकी न कभी था और न आज है। भारतीय मानते आये हैं, ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरायमा।’ यही धर्म का सही स्वरूप है।

(800 शब्दों में )

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