Home » Languages » Hindi (Sr. Secondary) » Bharatendu Harishchandra “भारतेन्दु हरिश्चन्द्र” Hindi Essay, Paragraph in 800 Words for Class 10, 12 and competitive Examination.

Bharatendu Harishchandra “भारतेन्दु हरिश्चन्द्र” Hindi Essay, Paragraph in 800 Words for Class 10, 12 and competitive Examination.

भारतेन्दु हरिश्चन्द्र

Bharatendu Harishchandra

अंग्रेजों के भारत आगमन से ही जैसे हिन्दी भाषा और साहित्य का पतन प्रारम्भ हो गया था। दीन भारतीय पेट की खातिर अंग्रेजी पढ़ने लगे थे। इससे पूर्व भी उर्दू-फारसी का ही अत्यधिक प्रयोग होता था। एक नवीन भाषा के रूप का प्रयोग अंग्रेजों ने आरम्भ किया, जिसे ‘हिन्दुस्तानी’ कहा जाता था। जो न पूर्णतः उर्दू-फारसी वाला रूप था न हिन्दी का। परन्तु राज-काज हिन्दी में होने लगा था। लोगों में धीरे-धीरे अंग्रेजी भाषा और सभ्यता के प्रति लगाव बढ़ता जाता था और हम दासता की ओर बढ़ते जा रहे थे। जंजीरों में जकड़े जा रहे थे। ऐसी स्थिति में देश की रक्षा के लिए हिन्दी भाषा की रक्षा आवश्यक थी। यह कोई कवि या साहित्यकार ही कर सकता था। इसी संक्रान्ति-काल में भारत के सपूत भारतेन्दु हरिश्चन्द्र का उदय हुआ। मातृभाषा हिन्दी की रक्षा के लिए उन्होंने अपना सर्वस्व त्याग दिया। अपने पूर्वजों की अमर सम्पत्ति को इसी कार्य में व्यय किया और फिर हिन्दी साहित्य में नवीन युग को जन्म दिया।

हिन्दी-साहित्य के इतिहास में भारतेन्दु हरिश्चन्द्र आधुनिक काल के युग प्रवर्त्तक कहे जाते हैं। परन्तु आज हम जो हिन्दी-भाषा का उन्नत रूप देख रहे हैं, उसके साहित्य की उन्नति से गौरवान्वित हो रहे हैं, उसका श्रेय भारतेन्दु की अमूल्य सेवाओं को ही है। साहित्यिक क्षेत्र में प्रविष्ट होने के समय उन्होंने सर्वप्रथम भाषा के अस्थिर रूप को स्थिर किया। उसकी ढुलमुल स्थिति को एक ठोसपन प्रदान किया जिसके पूर्व भाषा प्राणहीन और रूपहीन थी। राजा शिवप्रसाद सिंह उसे उर्दू प्रधान बनाने के पक्ष में थे तथा राजा लक्ष्मण सिंह उसे संस्कृत निष्ठ बना देने के लिए प्राण-प्रण से चेष्टा कर रहे थे। लल्लू लाल आगरे के होने के कारण ब्रजभाषा से अधिक प्रभावित थे, तो सदल मिश्र की भाषा में पूर्वीपन अधिक था। भारतेन्दु ने ही सर्वप्रथम उसे स्थिरता प्रदान कर सरल तथा साहित्य के उपयुक्त बनाया। विदेशियों की शब्दावली में उसके कोष को सम्बर्द्धित किया। भाषा का प्रश्न गद्य-साहित्य के सम्बन्ध में प्रस्तुत हुआ था, क्योंकि काव्य की भाषा तो बहुत पहले से ब्रजभाषा ही चली आ रही थी। लेकिन गद्य में खड़ी बोली का प्रयोग भारतेन्दु ने ही प्रारम्भ किया और इस प्रकार हिन्दी भाषा के एक नवयुग का प्रवर्तन किया। निज भाषा तथा साहित्य के प्रेम को उन्होंने प्रत्येक भारतीय के हृदय में कूट-कूटकर भरा-

निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल।

बिन निज भाषा ज्ञान के मिटत न हिय को शूल ॥

हिन्दी भाषा के न केवल स्वरूप को ही उन्होंने स्थिर किया प्रत्युत उसे परिष्कृत, व्याकरण–समस्त, व्यवस्थित तथा प्रवाह युक्त भी बनाया। उसके अनेक कर्ण कटु शब्दों को मधुरता प्रदान की। साहित्य के क्षेत्र में भी गद्य साहित्य की विविध विधाओं का प्रणयन कर उसके कलेवर को बढ़ाया। तभी तो यह काल भारतेन्दु युग के नाम से विख्यात हुआ।

साहित्य की दृष्टि से भारतेन्दु ने गद्य के विविध रूपों को नवीन चेतना और गति प्रदान की और काव्य के लिए भी राष्ट्र-प्रेम और समाज-सुधार जैसे विषयों का चलन किया। आधुनिक नाटकों के तो ये जन्मदाता ही थे। भाषा में कहानी, उपन्यास, निबन्ध, इतिहास सभी पर उन्होंने अधिकार के साथ लिखा। उनकी काव्य कृतियों में ‘भारत-वीणा’ ‘सुमनांजलि’ ‘प्रेमालाप’ तथा ‘दोली’ आदि अनेक स्फुट पद उल्लेख्य हैं।

नाटकों में कुछ तो अन्य देशी भाषाओं के अनुवाद हैं और शेष मौलिक अनूदित नाटकों में ‘विद्या सुन्दर’, ‘धनंजय’, ‘कर्पूर मंजरी’, ‘मुद्रा राक्षस’, ‘सत्य हरिश्चन्द्र’ तथा ‘भारत जननी’ आदि हैं और मौलिक नाटकों में ‘चन्द्रावली’, ‘भारत दुर्दशा’, ‘नील देवी’, ‘अंधेर नगरी’, ‘विषस्य विषमौषधम’, तथा ‘वैदिक हिंसा-हिंसा न भवति’ उल्लेखनीय है। ‘शीलावती’ तथा ‘सुलोचना’ आख्यान हैं। ‘काश्मीर कुसुम’ ‘बादशाह दर्पण’, आदि इतिहास सम्बन्धी ग्रन्थ है।

भारतेन्दु जी के काव्य में भक्ति, शृंगार, देश प्रेम और सुधारवादी प्रवृत्ति के दर्शन होते हैं। भक्ति सम्बन्धी रचनाएँ राधाकृष्ण की मधुर भक्ति सम्बन्धित है क्योंकि ये पुष्टिमार्गीय वैष्णव थे। ‘चन्द्रावली’ नाटिका में उनके भक्त हृदय का चित्र उभरा है। भक्त की आँखें भगवान् के दर्शन के लिए व्याकुल है-

देश प्रेम की रचनाओं में उन्होंने अतीत का चित्रण कर वर्तमान की दुर्दशा पर दुःख प्रकट किया है और पुनः उद्धार के लिए प्रभु ने विनय की है।

इन दुनिया अंखियन को न सुख सपने हूँ मिल्यों

यों ही सदा व्याकुल विकल अकुलायेंगी।

देखों एक बार हूँ नैन भरि तोहिं यातें

जौन जौन लोक जैहें तहां पछिताएंगे ॥

बिना प्रान प्यारे भये दरस तिहारी हाय

देख लीजो आँखें ये खुली ही रह जाएंगी।

गायो राज, धन, तेज, रोष, बल, ज्ञान नसाई,

बुद्धि, वीरता, श्री उछाह, सूरता बिलाई।

सब विधि नासी प्रजा कहुं न रहनों अवलम्ब अब।

जागो-जागो करुनायतन फेरी जागिही नाथ कब ॥

नाटकों के माध्यम से इन्होंने समाज सुधार की भावना को तीव्र किया। भाषा और साहित्य की उन्नति के लिए इन्होंने अनेक पत्र- पत्रिकाओं साहित्यिक गोष्ठियां तथा साहित्यकारों को जन्म दिया और इस प्रकार गद्य-पद्य दोनों के मार्ग को प्रशस्त किया।

निष्कर्ष यह है कि भारतेन्दु हरिश्चन्द्र की अद्भुत प्रतिमा ने हिन्दी को सुन्दर स्वरूप और गरिमा प्रदान किया। उसके जर्जर शरीर में प्राण संचार किया। उसे एक नूतन दिशा और विस्तृत क्षेत्र देकर राष्ट्र की सबसे बड़ी सेवा की। आज हिन्दी का उत्कृष्ट रूप उन्हीं की सेवाओं का प्रतिफलन है। इसके लिए समस्त हिन्दी संसार इनका चिरऋणी है और रहेगा।

 

About

The main objective of this website is to provide quality study material to all students (from 1st to 12th class of any board) irrespective of their background as our motto is “Education for Everyone”. It is also a very good platform for teachers who want to share their valuable knowledge.

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *