Bharat mein Saman Civil Sanhita “भारत में समान सिविल संहिता” Hindi Essay, Paragraph in 1000 Words for Class 10, 12 and competitive Examination.
भारत में समान सिविल संहिता
Bharat mein Saman Civil Sanhita
संविधान के अनुच्छेद 14 से 18 तक में समानता के मूल अधिकार के लिए प्रावधान किया गया है। इस अनुच्छेदों में यह भावना निहित है कि राज्य किसी शक्ति के साथ धर्म, भूलवंश लिंग, जाति तथा निवास स्थान के आधार पर भेद नहीं करेगा। भारत में निवास करने वाले धार्मिक तथा भाषायी अल्पसंख्यकों को भी अपने धर्म तथा भाषा एवं लिपि के सम्बन्ध में अनुच्छे 25-28 द्वारा अधिकार प्रदान किया गया है। व्यक्तियों के लिए समान नागरिक संहिता का निर्माण नहीं किया जा सकता है। जबकि संविधान के अनुच्छेद 49 में राज्य को संविधान के प्रवर्तन अर्थात 26 जनवरी, 1950 के समय से ही निर्देश दिया गया है कि ‘राज्य भारत के समस्त राज्य क्षेत्र में नागरिकों के लिए एक समान सिविल संहिता प्राप्त करने का प्रयास करेगा।’
वर्तमान में संविधान में दो अनुच्छेद काफी विवाद के विषय बने हुए हैं। एक तो संविधान का अनुच्छेद 356 है, जिसके सम्बन्ध में यह कहा जा सकता है कि संविधान के इस अनुच्छेद का अब तक इतनी बार प्रयोग किया जा चुका है, जितना की नहीं किया जाना चाहिए था। दूसरा अनुच्छेद 94 है। इसके सम्बन्ध में यह कहा जा रहा है कि सरकार जानबूझकर इस अनुच्छेद का प्रयोग नहीं कर रही है। तथा वह तुष्टिकरण की नीति अपना कर नीति-निर्देशन के इस अनुच्छेद की भावना का अनादर कर रही है।
भारत के समान सिविल कानून निर्माण की माँग तो की जाती है। लेकिन दुःखद स्थिति यह है कि यह माँग पवित्र भावना से नहीं की जा रही है बल्कि इस माँग को साम्प्रदायिक रंग दे दिया जाता है। भारत में सामान सिविल सहिंता के निर्माण की माँग अधिकतर हिन्दू संगठन या हिन्दुवादी राजनैतिक संगठनों द्वारा की जाती है। लेकिन इन संगठनों के द्वारा की गई माँग को समर्थन इसलिए ही नहीं मिलता कि ये केवल साम्प्रदायिक भावना से यह माँग करते हैं। और अपनी माँग में ये अपने धर्म या सम्प्रदाय की महिलाओं को शामिल नहीं करते। इन संगठनों द्वारा ‘मुस्लिम स्त्री’ (तलाक पर अधिकार का संरक्षण) अधिनियम, 1985, रजो शाहबानो मामले में उच्चतम न्यायालय के निर्णय को बदलने के लिए बनाया गया था, का विरोध तो किया गया था या अभी हाल में इलाहाबाद उच्च न्यायालय की खण्डपीठ द्वारा यदि न मान लेने में दिए गए निर्णय का स्वागत किया जा रहा हैं। लेकिन ये संगठन अपने समाज में महिलाओं की स्थिति के बारे में उदासीन रवैया अपनाते हैं या कभी-कभी सुधारवादी आन्दोलन या कार्यक्रमों का विरोध करते हैं। इसी कारण समान सिविल कानून के निर्माण की माँग को बल नहीं मिलता तथा यह केवल संविधान की पुस्तक तक ही सीमित हो गया है।
समान सिविल संहिता के निर्माण की सबसे सुखद विरोधी मुस्लिम संगठनों द्वारा किया जाता है। इस संगठनों की ओर से यह माँग की जाती है। कि भारत के ज्यादातर राज्य क्षेत्र में समान सिविल कानून के निर्माण की जो, जो निर्देश संविधान के अनुच्छेद 44 द्वारा दिया गया है, यह मुसलमानों पर लागू नहीं होना चाहिए तथा मुसलमानों पर उनकी व्यक्तिगत विधि के रूप में शरियत लागू होनी चाहिए- जमायत उल उलेमाए। हिन्दू तो यहाँ तक कहते हैं. कि अनुच्छेद 44 को संविधान से निकाल देना चाहिए या मुसलमानों को इसमें प्रवर्तन से छूट दी जानी चाहिए। भारत सरकार ने कुछ समय पूर्व विधि आयोग को विवाह तथा विच्छेद के लिए समान कानून बनाने का निर्देश दिया था। अब आयोग ने समान कानून बनाने का कार्य प्रारम्भ किया, तब मुलमानों द्वारा तथा ईसाईयों द्वारा इसका विरोध किया गया। इस विरोध के परिणामस्वरूप सरकार ने अपना निर्देश वापस ले लिया।
संविधान के अनुच्छेद 44 में जब सामान सिविल संहिता के निर्माण का निर्देश दिया गया है, उसका मुख्य लक्ष्य आधुनिक तथा समतामूलक समाज की स्थापना का है, जिनमें विभिन्न धर्मावलम्बियों तथा विभिन्न धर्मावलम्बियों के पुरुषों एवं स्त्रियों के मध्य को विभेदन न हो। इस अनुच्छेद को संविधान में अन्तर्विष्ट करते समय संविधान निर्माताओं को यह विश्वास था कि प्रत्येक धार्मिक सम्प्रदाय के अन्तर्गत स्त्री-पुरुष की बराबरी के लिए व अन्यायपूर्ण सामाजिक कुरीतियों को समाप्त करने के लिए सुधारवादी आन्दोलन प्रारम्भ किया जाएगा। लेकिन संविधान निर्माताओं की यह आकांक्षा पूरी नहीं हो सकी। सुधारवादी आंदोलन के बजाए भारत में सामाजिक एवं साम्प्रदायिक तनाव एवं विद्वेष बढ़ गया, जिसका एक समान सिविल कानून के निर्माण की नीम डाली गई।
मुस्लिम, ईसाई तथा हिन्दू विधवा महिलाओं की स्थिति अत्यन्त दयनीय है। इन विधियों ने महिलाओं के वास्तविक अधिकार की संकल्पना नहीं की गई। है, जो भी थोड़ा बहुत दिया गया है। वह वास्तविकता के धरातल पर न के बराबर है। मुस्लिम विधि में तो 1985 में कानून बनाए हुए तलाक के बाद महिलाओं के भरण पोषण के अधिकार को वापस ले लिया गया है।
समान सिविल संहिता के पक्षधरों का तर्क है कि देश को एक सूत्र में पिरोने के लिए आवश्यक है कि सभी नागरिकों के लिए एक समान कानून हो, तुर्की, बांग्लादेश, पाकिस्तान तथा कई मुस्लिम देशों में मुस्लिम वैयक्तिक विधि में संशोधन किया जा रहा है तथा नये कानूनों का निर्माण करके शरीयत को अमान्य किया जा रहा है, जबकि भारत के मुसलमान शरीयत पर आधारित अपने धार्मिक अधिकार को बनाए रखने पर जोर दे रहे हैं और यह भी चाहते हैं कि भारत के संविधान के मूल अधिकार को बनाए रखने पर जोर दे रहे हैं और यह भी चाहते हैं कि भारत के संविधान में मूल अधिकार के रूप में इसकी रक्षा की जाए, लेकिन बहुत मुसलमान न्यायधीशों ने इसका विरोध किया है।
समान सिविल संहिता के विरोधी पक्षकारों का कथन है कि भारत में समान सिविल संहिता लागू नहीं की जा सकती क्योंकि यहाँ भिन्न-भिन्न धर्म के लोग रहते हैं। वे यह भी कहते हैं कि विभिन्न धर्मों के मध्य ही नहीं, बल्कि हिन्दू समाज के मध्य एक समान कानून लागू नहीं किया जा सकता है। क्योंकि हिन्दू समाज में प्रचलित प्रथाओं तथा रूढ़ियों में अंतर है।
इसके अतिरिक्त हिन्दू धर्म के अनुयायी जनजातियों में हिन्दू विधि का दूसरा रूप प्रचलित है जो कभी एक समान सिविल संहिता को नहीं मानेंगे।
उपर्युक्त विवेचन से तो यह स्पष्ट होता है, भारत में एक समान सिविल संहिता का निर्माण तो किया जा सकता है। लेकिन उसे लागू नहीं किया जा सकता क्योंकि कुछ धार्मिक सम्प्रदायों के पुरुष तथा महिलाओं के लिए समान कानून का निर्माण किया गया है। लेकिन उसे कार्यान्वित नहीं किया गया है। लेकिन इस तर्क को मान कर यह नहीं कहा जा सकता कि भारत में एक समान सिविल संहिता व्यर्थ है। इसके लिए आवश्यक है कि भारत के सभी धार्मिक सम्प्रदायों में सुधारवादी आन्दोलन चलाया जाए तथा इस सुधार आंदोलन के दौरान समान सिविल संहिता के निर्माण पर विशेष जोर दिया जाए। समान सिविल संहिता देश की पहली आवश्यकता है और इसके द्वारा नागरिकों में एकता तथा बन्धुत्व की भावना का विकास किया जा सकेगा। अभी तक भारत के विभिन्न सम्प्रदायों में जो विद्वेष हैं वह केवल वैयक्तिक कानून तथा धार्मिक रूढ़िवादिता के कारण है। यदि वैयक्तिक कानून के अन्तर को दूर करके धार्मिक रूढ़िवादिता को दूर किया जा सके, तो यह देश के हित में होगा और एक समान सिविल संहिता के निर्माण के लिए पथ-प्रशस्त होगा, जो भारत को एक सूत्र में पिरोने के लिए अनिवार्य है।