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Bharat mein Badhta Bhrashtachar “भारत में बढ़ता भ्रष्टाचार” Hindi Essay, Paragraph in 1000 Words for Class 10, 12 and competitive Examination.

भारत में बढ़ता भ्रष्टाचार

Bharat mein Badhta Bhrashtachar 

जब से रक्षा सौदों में दलालों की बात सामने आई है और विदेशी मुद्रा विनियमन अधिनियम का उल्लंघन करके विदेशी खातों में पूंजी जमा करने के मामले प्रकाश में आए हैं, तब से भ्रष्टाचार पर देश-व्यापी बहस छिड़ गई है और यह हम शुभ लक्षण है। भ्रष्टाचार का जो नासूर भीतर ही भीतर पनप रहा था, उसके विषय में जानकारी तो मिली। लोग स्वीकार करने लगे हैं कि नासूर है। रोग का पता लग जाने पर उसके उपचार की भी आशा की जा सकती है। यह बात बहुत महत्त्वपूर्ण नहीं है कि इस रोग में कौन-कौन लिप्त है। महत्त्वपूर्ण यही है कि रोग है और वह भारत को धीरे-धीरे ग्रस रहा हैं। निश्चय ही बोफोर्स कम्पनी से दलाली पाना भ्रष्टाचार का मामला है, जिससे भारत की सुरक्षा व्यवस्था भी खतरे में पड़ सकती है, किन्तु भ्रष्टाचार का यह रोग देश-व्यापी बन चुका है और जीवन का कोई क्षेत्र इससे अछूता नहीं रह गया है। अपने निधन से पूर्व स्वर्गीय विनोबा भावे ने बड़े दुःखी स्वर में कहा था कि अब तो भ्रष्टाचार्य ही शिष्टाचार बन गया है।

भ्रष्टाचार ने जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में अपनी गहरी जड़े जमा ली हैं। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद जैसे ही भारतीयों के हाथ में सत्ता आई वैसे ही भ्रष्टाचार ने ही जन्म लिया। भाई-भतीजावाद की प्रवृत्ति बढ़ी और अब तो यह स्थिति है। कि भ्रष्टाचार जीवन के हर क्षेत्र को जीतने के लिए आतुर दिखलाई पड़ता है। कोई कार्यालय, कोई विभाग, कोई मंत्रालय, कोई संस्था और यहाँ तक कि भ्रष्टाचार विरोधी समितियों तक के भ्रष्टाचार का बोलबाला है। कार्यालयों में बिना रिश्वत दिये फाइलें आगे नहीं खिसकतीं। यहाँ तक कि यदि भ्रष्टाचार के मामले में आप कहीं पकड़े जायें तो भी मुक्त हो सकते हैं काका हाथरसी हास्य-हास्य में कभी-कभी बड़ी महत्त्वपूर्ण बात कह जाते थे, उन्हीं की पंक्ति है- रिश्वत पकड़ी जाय, छूट जा रिश्वत देकर’ ।

भ्रष्टाचार का अर्थ है-भ्रष्ट आचरण। आचरण के सामान्य या सर्वमान्य स्तर से गिरा हुआ आचरण। प्रत्येक जाति, देश एवं समाज के कुछ जीवन मूल्य होते हैं, नैतिक मूल्य होते हैं जो हजारों वर्ष की परम्परा से प्राप्त होते हैं। युग परिवर्तन के समय इन मूल्यों में भी परिवर्तन आवश्यम्भावी हैं। किन्तु व्यक्ति, समाज और देश हित में इन मूल्यों के प्रति एक सर्वमान्य धारणा बन जाती है। उसको तोड़ना ही भ्रष्टाचार है। किसी भी क्षेत्र के लिखित अथवा मौखिक उन नैतिक मूल्यों से गिरना, जो किसी भी व्यवस्था के लिए आवश्यक होते हैं। भ्रष्टाचार कहलायेगा। आज मुनाफाखोरी, मिलावट, रिश्वत, काला धन, लालफीताशाही, भाई-भतीजावाद, आदि भ्रष्टाचार के संगी साथी हैं।

भारत एक विकासशील देश है। विकसित देशों की अपेक्षा यहाँ भ्रष्टाचार अधिक है। वस्तुतः जैसे-जैसे भारत विकसित होता गया है वैसे-वैसे यहाँ के निवासियों के मन में बेहतर जीवन-स्तर की होड़ ने जन्म लिया है। बेहतर जीवन-स्तर के लिए धन की आवश्यकता होती है। जब सही साधनों से उसकी प्राप्ति नहीं होती तो वह गलत साधनों का प्रयोग करने लगता है। वैज्ञानिक करिश्मों ने आज दुनिया को बहुत छोटा बना दिया है। देश-विदेश में आपसी सम्पर्क बढ़ा है। जन-संचार के साधनों में वृद्धि हुई है। अतः विकासशील देश का नागरिक जब विकसित देश में मिलने वाली जन-सुविधाओं को देखता है तो उसके मन में भी वैसी सुविधा प्राप्त कर जीने का लालच बढ़ता है। भारत के साथ भी यही हुआ है। यहाँ अनेक नागरिक दुनिया के अनेक विकसित देशों में जाते हैं। कुछ तो वहीं बस गए हैं और कुछ वहाँ की भौतिक उन्नति के चकाचौंध से विस्मयाभिभूत होकर लौटते हैं और यहाँ भी वे उसी प्रकार का जीवन जीना चाहते हैं। इस प्रकार बेहतर जीवन-स्तर पाने की लालसा भी भ्रष्टाचार को जन्म देती है। पड़ोसी के घर में टी.वी., फ्रिज, मखमली कालीन आदि देखकर पड़ोसी का मन ललचा जाता है।

भारत में भ्रष्टाचार का एक कारण यह भी है कि अभी तक हमारा कोई राष्ट्रीय चरित्र निर्मित नहीं हो पाया। हम अपने स्वार्थ के लिए सब कुछ कर सकते हैं। हर व्यक्ति एक-दूसरे को नीचा दिखाने, उसका माल, पद एवं कुर्सी हड़प करने में लगा है। लोग देश का पैसा विदेशी खातों में जमा कर रहे हैं। देश हित को हानि पहुँचाने वाले कुकृत्यों में लिप्त हैं। जिसका कारण है, जापान जैसे राष्ट्रीय चरित्र का आभाव।

तब कैसे मुक्ति मिले इस भ्रष्टाचार से? रोग इतना बढ़ चुका है कि उससे मुक्त होने की आशा कम ही है ? फिर भी कोई कार्य असम्भव नहीं होता। यदि आज भी हम सब यह प्रण कर लें कि हमको हर स्तर पर भ्रष्टाचार से मुक्त होना है तो हमें मुक्ति मिल सकती है। भ्रष्टाचार ऊपर से नीचे की ओर फैलता है। बड़े-बड़े राजनेता, उद्योगपति, अधिकारी, प्रोफेसर, वकील, डॉक्टर आदि । यदि अपने आपको भ्रष्टाचार से मुक्त कर लें तो कोई कारण नहीं है कि जनसाधारण पर उनके निर्मल आचरण का प्रभाव न पड़े। राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक एवं धार्मिक जीवन से भ्रष्टाचार को समूल उखाड़ने के लिए हमें अपने समाज में व्याप्त धारणाओं और उसकी मानसिकता को भी बदलना होगा। व्यक्ति की प्रतिष्ठा का कारण यदि पैसा न होकर उसकी योग्यता, कर्मठता, ईमानदारी और सज्जनता बन जाए तो झूठी लिप्सा के लिए वह भ्रष्ट आचरण अपनाना छोड़ सकता है। हमारी शिक्षा भी इस प्रकार की हो, जिससे इन मूल्यों की स्थापना हो सके। लोगों के मन से असुरक्षा जैसी भावन को समाप्त करना होगा। बहुत से व्यक्ति नौकरी से अवकाश प्राप्त हो जाने की चिन्ता में भ्रष्ट साधनों से धन का एकत्रीकरण करना चाहते हैं, जिससे वे शेष जिन्दगी अच्छी तरह गुजार सकें। यदि प्रत्येक बूढ़े-बूढ़ी के लिए रूस की भांति हमारी सरकार भी जीवन-यापन के साधन अपनी ओर से प्रदान करें तो बुढ़ापे के प्रति उनकी असुरक्षा की भावना समाप्त हो जाए और उसके लिए अतिरिक्त धन एकत्रित करने की उन्हें आवश्यकता न हो। सामाजिक कुरीतियों पर भी पाबंदी लगानी चाहिए। हमारे यहाँ दहेज का दानव न जाने कितने लोगों को भ्रष्ट होने के लिए मजबूर करता है। इस कुप्रथा की समाप्ति के लिए कानून भी बनाया गया है, किन्तु इसका कोई असर दहेज की इस कुप्रथा पर पड़ता नजर नहीं आता। वह दिन दूना रात चौगुना बढ़ता ही जाता है। चुनाव प्रक्रिया में सुधार लाना बहुत ही आवश्यक है। चुनाव लड़ने के लिए सरकार को स्वयं पैसे की व्यवस्था करनी चाहिए। रेडियो एवं दूरदर्शन के प्रचार माध्यम का मंच बनाकर प्रचार कार्य में होने वाले बहुत सारे अपव्यय एवं अन्य बुराइयों से बचा जा सकता है। मिलावट, जमाखोरी, रिश्वत आदि अपराधों में लिप्त व्यक्तियों के लिए कड़े दण्ड की व्यवस्था होनी चाहिए। राजनीतिक सत्ता प्राप्ति का साधन नहीं, बल्कि देश-सेवा का साधन बने तो भ्रष्टाचार से बड़ी सीमा तक मुक्ति मिल सकती है।

भारत ने लोकतांत्रिक शासन-प्रणाली स्वीकार की है। एडवर्ड गिब्बन के अनुसार- ‘भ्रष्टाचार सांवैधानिक आजादी का सबसे बड़ा मर्ज है।’ यह लोकतांत्रिक पद्धति तभी जीवित रह सकती है, जब उसका प्रत्येक सदस्य ईमानदार हो। आजादी बड़ी भारी जिम्मेदारी लेकर आती है। यदि समय रहते हमने उस जिम्मेदारी को नहीं समझा, उसे नहीं निभाया तो यह आजादी हमसे छीन भी सकती है। अतः एक स्वतंत्र देश का स्वाभिमानी नागरिक बने रहने के लिए भ्रष्टाचार से जितनी जल्दी सम्भव हो सके, मुक्ति पाना जरूरी है।

(1000 शब्दों में )

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