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Sahitya aur Kala “साहित्य और कला” Hindi Essay, Paragraph in 1000 Words for Class 10, 12 and competitive Examination.

साहित्य और कला

Sahitya aur Kala

साहित्य, संगीत, कला-विहीन मानव साक्षात् पशुवत् है और वह पशु में भी उस पशु के समान है जो पूंछ और सींग से विहीन बिल्कुल कुरूप नजर आता है। साहित्य और कला का मानव विकास के इतिहास में अमूल्य योगदान है। डॉ. हरद्वारी लाल शर्म ने लिखा है- “हमारी अनुभूति का सारा अन्तः प्रदेश मुखर या शब्दमय नहीं होता। जितना भाग शब्दार्थ के माध्यम से ‘शरीरी’ होता है उतना ‘साहित्य’ बन जाता है, किन्तु एक बड़ा भाग अनुभूति गम्य होते हुए भी ‘अर्थ’ Meaning की स्पष्टता को नहीं पहुँचता, उसके लिए हमारे पास ‘शब्द’ की कमी रह जाती है। यह अन्तः प्रदेश का वह भाग है जो ध्वनि, गति, रंग, रेखा आदि के माध्यम से व्यक्त होता है। इन्हीं अभिव्यक्तियों का नाम ‘कला’ है।”

मानव की समग्र अभिव्यक्तियों में से उसकी शाब्दिक अभिव्यक्ति-स्थायित्व एवं सामाजिक अपेक्षाकृत अधिक होने के कारण ज्यादा महत्त्वपूर्ण स्थान रखती है। इसे ही साहित्य कहा जाता है। जैसा कि बाबू गुलाबराय ने लिखा है- “साहित्य संसार के प्रति मानसिक प्रक्रिया अर्थात् विचारों, भावों और संकल्पों की शाब्दिक अभिव्यक्ति है और हमारे किसी-न-किसी प्रकार के हितकर साधन करने के कारण संरक्षणीय हो जाती है।” साहित्य शब्द का अर्थ है-सहित होने का भाव (साहित्य भाव साहित्य)। इसका व्याकरणिक अर्थ भी यही है। आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी के अनुसार – “साहित्य ज्ञान-राशि का संचित कोष है।” डॉ श्याम सुन्दर दास का मत है- “सामाजिक मस्तिष्क अपने पोषण के लिए जो भाव-सामग्री निकालकर समाज को सौंपता है उसी के संचित भण्डार का नाम साहित्य है।” जबकि यूरोपीय समीक्षक साहित्य के सन्दर्भ में दो मत रखते हैं-एक कला जीवन के लिए (Art for like Sake), दो-कला कला के लिए (Art for art sake), वे साहित्य या काव्य को ललित कलायों के अन्तर्गत मानते हैं।

कोई भी कला केवल उसी स्थिति में पूर्ण मानी जाती है जब विश्व के लिए उसकी उपादेयता हो और यह भी सत्य है कि कला के अभाव में व्यक्ति का जीवन नीरस है। साहित्य अन्य कलाओं को एक ओर से विषय प्रदान करता है तो दूसरी ओर वह स्वयं संगीत से भय और छन्द, चित्र से वर्ण, स्थापत्य से स्थानों का विन्यास ग्रहण करता है। कला और साहित्य का परस्पर उपकारी उपकार्य सम्बन्ध है।

कला एक इंगित है ‘प्रकट’ से ‘अप्रकट’ की ओर। हिन्दुस्तान में ‘कला, कला के लिए’ की उक्ति विदेशी है। इस सिद्धान्त के प्रतिपादक ‘प्लेटो’ थे। ‘कला, कला के लिए’ सिद्धान्त के समर्थकों में वाल्टर पेटर, किवलचर कोच, क्लाइव वैल, आस्कर वाइल्ड, ग्रेडले, स्पिन, गार्न, टी. एच इलियट आदि प्रमुख थे। ‘कला जीवन के लिए’ सिद्धान्त के समर्थकों में अरस्तु, मैथ्यू अर्नाल्ड, आई. ए. रिचर्ड्स, रास्किन, एवर काम्बी, कार्लायल, शैली, वईस वर्थ, मिल्स आदि प्रमुख हैं। विख्यात अमेरिकी काव्यवादी आलोचक जे. ई. स्पिन गार्न कला में नैतिकता का विरोध करते हुए लिखते हैं- “शुद्ध कला के भीतर सदाचार या दुराचार ढूंढना ऐसा ही है जैसा कि रेखा गणित के समबाहुत्रिभुज को सदाचार पूर्ण और विषमबाहु त्रिभुज को दुराचारपूर्ण कहना।”

वे सौन्दर्य और सत्य को शिव के बिल्कुल पृथक् मानते हैं । फ्रायड के अनुसार – “साहित्य में अवरुद्ध वासनाओं का चित्रण होता है। कलाकार अपनी कल्पना द्वारा अपनी कलाकृतियों में उन्हीं अवरुद्ध वासनाओं का प्रदर्शन करते हैं।” महात्मा गांधी का विचार था-” कला से जीवन का महत्त्व है। जीवन में वास्तविक पूर्णता प्राप्त करना कला है। यदि कला जीवन को सुमार्ग पर न ले जाए तो वह कला क्या हुई।”

कला जीवन से प्रगाढ़ रूप से सम्बद्ध है। वह जनकल्याणकारी होती है। कला का शुद्ध स्वभाव ‘भोग रूप’ और अभिव्यक्ति के माध्यम से गोचर मूतियों का सृजन और आस्वादन है। कला अपनी स्वतंत्र सत्ता हेतु सजग रहती है और समाज अपनी रुचि के मूल्यों को उस पर सादने की कोशिश करता है। लेकिन कला की उत्कृष्टतम सृष्टियां उस समय हुईं जब दोनों से सामंजस्य संभव हो सका।

ज्ञातव्य है कि आधुनिक कला को आध्यात्मिक गम्भीरता तो नहीं मिली, परन्तु जन-जीवन के तल में उर्मिल अनेक मानसिक गतियों, आदर्शों और समस्याओं से नवीन विधान मिला है, जिसका कला के लिए कम महत्त्व नहीं है। डॉ. हरद्वारी लाल शर्मा ने पुनः लिखा है- “साहित्य के मूलाधार का अर्थ है-जिसकी अभिव्यक्ति के लिए शब्द का पार्थिव महत्त्व स्वीकार किया जाता है। कला के मूलाधार का अभिप्राय होता है जिसके शहरीकरण के लिए स्वर, वर्ण, रेखा से लेकर लकड़ी, पत्थर, मिट्टी आदि का उपयोग किया जाता है। साहित्य और कला सृजन के दो प्रकार है, जहाँ सृजन होता है और वह भी मानव माध्यम के द्वारा वहाँ पार्थिव और अपार्थिव कहीं ‘अन्तर’ और ‘बाध्य’ ‘आत्मा’ और ‘अनात्मा’, जड़ और चेत्य किसी मायिक, अज्ञात और अज्ञेय कारण से मिलते हैं।

इस प्रकार कहा जा सकता है कि कला-कला के लिए है, सिद्धान्त के पोषक का विचार दुराग्रहपूर्ण है। सच तो यह है कि कला मनुष्य को आनन्द की ओर ले जाने वाली अनुपम माध्यम है। यह व्यक्ति के जीवन को न केवल प्रफुल्लित करती है, अपितु कला उसे जीवन के प्रति सजग भी करती है, किन्तु यदि कला या साहित्य केवल उपदेश देने वाली है तो निरर्थक है।

क्रिश्चियाना रोजेटी के शब्दों में-

I plucked pink apples from mine apple free and wove them all that evening in my hair then in due season when I went to see there, I found no apples

इसी तथ्य को डॉ. प्रेम नारायण शुक्ल ने अपने शब्दों में व्यक्त किया है-किसी फलप्रद वृक्ष के प्रारम्भिक फलोद्गम से ही अपना शृंगार करके जो मानव मनोरंजन कर लेता है, निश्चय ही फल प्राप्ति के समय उसे निराशा होती है। यथार्थवादियों का मानना है कि-आहार, निद्रा, भय, मैथुन आदि मानव की मूल वृत्तियां हैं। अतः स्वाभाविक है कि मनुष्य की प्राकृतिक वृत्तियां ही उसकी वृत्तियों में सजीव हो ।

‘क्रोचे’ केवल अभिव्यक्ति को ही कला मानते हैं। भारतीय मत उपरोक्त मतों को एकांगी और अपूर्ण मानता है। भारतीय मनीषियों ने काव्य को जीवन का एक अभिन्न अंग माना है। बंकिम चन्द चट्टोपाध्याय के शब्दों में- ‘कवि संसार के शिक्षक हैं, किन्तु नीति की व्याख्या करके शिक्षा नहीं’ देते, वे सौन्दर्य की चरम सृष्टि करके संसार की चित्र शुद्धि करते हैं। यही सौन्दर्य की चरमोत्कर्ष साधक सृष्टि काव्य का मुख्य उद्देश्य है। एक स्थान पर डॉ. प्रेम नारायण शुक्ल ने लिखा है-हमारे विचार से तो साहित्य का मुख्य कृतित्व इसमें है कि वह ‘स्वादु’ और तेज दोनों प्रदान कर सके। वह ऐसा स्वादु दे सके जा मीठा हो, परन्तु ऐसा मीठा न हो कि उसमें कीड़े पड़ सकें। वह तोष दे सके परन्तु ऐसा तोष हो कि भूख न लगे। जो काव्य या साहित्य इस ‘स्वादु’ और ‘तोष’ को दे सकता है वही सर्वथा साहित्य है। किसी साहित्य की उत्कृष्टता का तारतम्य इन्हीं की माया पर निर्भर है।”

(1000 शब्दों में )

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