Videsh mein Bharatiyo ki Samasyaye “विदेश में भारतीयों की समस्याएं” Complete Hindi Essay, Paragraph, Speech for Students.
विदेश में भारतीयों की समस्याएं
Videsh mein Bharatiyo ki Samasyaye
आज भारतीय प्रवासी समुदाय विश्व की संस्कृति में एक महत्वपूर्ण और कुछ अंश तक अनोखी ताकत के रूप में संघटित है। अनमान है कि “पूरे विश्व में लगभग 14 मिलियन विदेश में रहने वाले लोग भारतीय जिनमें विदेश से बसे हुए भारतीय नागरिक तथा साथ ही भारतीय मूल के ऐसे व्यक्ति शामिल हैं जिन्होंने विदेशी नागरिकता धारण कर ली है” उदाहरणस्वरूप यदि हम न्यूनतम आंकड़े के रूप में 5000 की संख्या को लेते हैं तो पाते हैं कि विदेशी भारतीय करीब 53 देशों में रह रहे हैं और उन्होंने उन देशों के विकास में अत्यधिक महत्वपूर्ण योगदान दिया है।
भारतीयों के इस छितराव का कारण मुख्यतः ब्रिटिशों द्वारा भारत की अधीनता में निहित है। 19वीं शताब्दी में भारतीयों को करारबद्ध श्रमिकों के रूप में ब्रिटिश साम्राज्य के सुदूर हिस्सों में ले जाया गया, यह एक ऐसा तथ्य है जिसे फिजी, मारीशस, गुयाना, त्रिनिदाद, सुरीनाम, मलेशिया, दक्षिण अफ्रीका, श्री लंका तथा अन्य स्थानों की आधुनिक भारतीय जनसंख्या अपने अपने विलक्षण ढंग से सिद्ध करती है।
दो मिलियन से अधिक भारतीयों ने कई तरीकों से साम्राज्य की ओर से लड़ाई लड़ी, जिनमें से कुछ उस भूखण्ड पर दावा करने के लिए रूक गए जिसे उन्होंने अपना समझते हुए युद्ध लड़ा था। 20 वीं शताब्दी के आरंभ में बहुत से गुजराती व्यापारी बड़ी संख्या में पूर्वी अफ्रीका के लिए रवाना हुए।
द्वितीय विश्व युद्ध के बाद की अवधि में, भारतीय श्रमिकों तथा व्यावसायिकों का विश्वभर में छितराव एक विश्वव्यापी घटना बन गया है। भारतीयों तथा अन्य दक्षिण एशियाई लोगों ने श्रम प्रदान किया जिससे युद्ध ग्रस्त यूरोप विशेषकर यूनाइटेड किंगडम तथा नीदरलैंड के पुनर्निर्माण में सहायता मिली। हाल ही के वर्षों में दक्षिण एशिया के अकुशल श्रमिक मध्यपूर्व के अधिकांश भाग का भौतिक भूदृश्य परिवर्तित करने के मुख्य कारक रहे हैं। इस समय अमेरिका, कनाडा तथा आस्ट्रेलिया जैसे देशों में भारतीयों ने विभिन्न व्यवसायों में अपनी स्पष्ट पहचान बना ली है।
वर्षों से भारतीय समुदाय अपनी पहचान तथा स्थिति से संबंधित बहुत सारी समस्याओं का सामना करता आ रहा है। बहु सांस्कृति समाजों में रहने तथा जातिगत पहचान द्वारा अभिलक्षित किए जाने के कारण विदेशों में भारतीय समुदायों को सदा ही जातिगत समस्याओं के साथ समझौता करने की आवश्यकता पड़ी है। वे सक्रिय आर्थिक तथा सांस्कृतिक स्पर्धाओं में शामिल रहे हैं। कभी-कभी उन्हें जातिगत संघर्षों तथा राजनीतिक झड़पों में भी उलझाया गया है।
विदेशों में भारतीय समुदाय की स्थिति “मेजबान” देश की जातिगत, धार्मिक तथा सामाजिक-आर्थिक संरचना द्वारा पर्याप्त रूप से निर्धारित की जाती है। संघर्ष मुख्यतया सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक तथा सांस्कृतिक क्षेत्रों में विद्यमान स्पर्धात्मक हितों के कारण होता है। जब कभी प्रभुत्वकारी वर्ग यह अनुभव करता है कि अन्य समूह आर्थिक रूप से प्रगति कर रहे हैं और वे भविष्य में शक्ति समीकरण बदल सकते हैं तो वे (प्रभुत्वकारी वर्ग) स्वयं की रक्षा करने हेतु कदम उठाते हैं। यह अधिकांश अफ्रीकी तथा एशियाई देशों में देखा जाता है और यह विभिन्न देशों में विभिन्न रूप धारण करता है। कभी-कभी इसके लिए गंभीर कार्रवाइयां की जाती हैं जैसे कि जातिगत सफाया, प्रतिकल अप्रवास विधियां, जिनसे विभिन्न रूपों में प्रभुत्व तथा शोषण सामने आते हैं।
राजनीति के क्षेत्र में, जहां जनसंख्या की दृष्टि से भारतीय अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं, उनकी जातिगत स्थिति को राजनीतिक शक्ति के लिए संघर्ष करने से जोडा गया है। सरकारी नीतियां तथा कार्रवाइयां जातिगत संदर्भ में देखी जाती हैं और इनपर प्रतिक्रिया की जाती है। कुछ देशों में, राजनीतिक शक्ति के लिए संघर्ष में लोकतंत्र की सीमाओं को लांघा गया है और इससे उग्र लड़ाइयां तथा भारतीय समुदाय का दमन भी हुआ है। इसके परिणामस्वरूप भारतीय समुदाय का निष्क्रमण भी हुआ है।
दक्षिण अफ्रीका जैसे देशों में, जहां भारतीयों की बड़ी तादाद है, उन्हें कठिन स्थिति का सामना करना पड़ता है। इस समुदाय के बारे में बहुत सी भ्रान्तियां हैं। आरंभ से ही भारतीयों को यहूदियों का सजातीय समझा जाता था और इस तरह उन्हें उन संबोधनों से सज्जित किया गया जो यहूदियों की संपदा समझी जाती थी जैसे कि धूर्त, झूठा तथा रूपये-पैसे में प्रवृत्त होना। भारतीय सभी अन्य गैर-श्वेतों की तरह नस्लभेद की यंत्रावली के अधीन थे; और तीनों जातीय समूहों के प्रति भेदभावमूलक बर्ताव की नीति बनाई गई। भारतीय समूह की आर्थिक समृद्धि के और अधिक अवसर सामने आए और इनके तथा स्वदेशी अफ्रीकी समुदाय के बीच खाई और चौड़ी हो गई। भारतीयों के विरूद्ध सामान्यतया यह मान्यता है कि उन्होंने 1944 में प्रथम जातीय चुनाव तथा 1994 में उत्तरवती चुनाव में श्वेतों के प्रमुख वाले पक्षों को मत दिए। उत्तर रंगभेद परिदृश्य में राष्ट्र-निर्माण की मुख्य धारा में शामिल होने में भारतीयों ने निराशाजनक कार्य किया है।
पूर्वी अफ्रीकी देशों, जैसे कि केन्या तथा उगान्डा, में 1960 के दशक के आरंभ में आजादी के पश्चात भारतीय समुदाय के समक्ष कठिनाइयों का एक नया दौर आया क्योंकि नई अफ्रीकी सरकारों ने अफ्रीकीकरण तथा सकारात्मक कारवाई संबंधी कार्यक्रम शुरू किए। कई केन्याई भारतीयों ने ब्रिटिश अथवा भारतीय नागरिकता की इच्छा की। 1972 में राष्ट्रपति इदी अमीन ने भारतीय मूल के सभी उगाण्डावासी नागरिकों पर यह आरोप लगाते हुए उन्हें निर्वासित कर दिया कि भारतीय, काले लोगों से उनकी जीविका छीन रहे हैं और राष्ट्र के खजाने में किसी तरह का योगदान नहीं कर रहे हैं, इसके कारण उनकी संपत्ति बड़े पैमाने पर नष्ट-भ्रष्ट हो गई। उन्हें अपने द्वारा कमाई गई सारी चीजों को छोड़ने तथा देश से निकलने के लिए विवश किया गया।
दक्षिण पूर्व एशिया में म्यांमार तथा मलेशिया में भारतीय, व्यापार के मुख्य माध्यम तथा राष्ट्र के दुकानदारों के रूप में अपरिहार्य तत्व बन गए। वे स्थानीय जनसमूह को अप्रभावी करने तथा अपने स्वयं के हितों एवं समृद्धि को बढ़ाने की भावना से ओत-प्रोत थे। जब 1954 में म्यांमार स्वतंत्र हुआ तो उस समय संपत्ति के प्रमुख स्वामी भारतीय थे तथा व्यावसायिक एवं व्यापारिक समुदायों में वे काफी महत्वपूर्ण थे। परन्तु भारतीयों की संपत्ति राज्य द्वारा विनियोजित कर ली गई, उनकी धन-संपत्ति जब्त कर ली गई तथा बहुत से भारतीयों को निर्वासित कर दिया गया। हालांकि म्यांमार के भारतीय समुदाय ने धीरे-धीरे अपनी अधिकांश पुरानी स्थिति प्राप्त कर ली परन्तु यह कभी-भी अपनी पहले जैसी शक्ति प्राप्त नहीं कर सका। अब इस क्षेत्र में संघर्ष की लम्बी अवधि के कारण भारतीय काफी पीछे रह गए हैं जबकि इंडोनेशिया में आर्थिक अस्थिरता का उनकी उपस्थिति पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है। वस्तुतः म्यांमार में भारतीय समुदाय अत्यधिक गरीब हो गया है, सर्वाधिक उन्नत घटकों ने सेना की सत्ता आने तथा उनकी कठोर कार्रवाइयों, जिनसे उनकी जीविका को क्षति पहुंची, के कारण देश छोड़ दिया।
बहुत से अध्ययनों यह से प्रदर्शित हुआ है कि मलेशिया में भारतीयों के साथ मलाया लोगों तथा उनकी सरकार द्वारा जातिगत भेदभाव किया जा रहा है। बागान क्षेत्र पर भारतीय तमिलों का प्रभुत्व है परन्तु यद्यपि इस क्षेत्र का देश की अर्थव्यवस्था में महत्वपूर्ण योगदान है, तथापि कामगारों की स्थिति दयनीय है। लगभग 80% लोग ऐसे घटिया निवास स्थानों में रहते हैं जहां सफाई, विद्युत तथा स्वास्थ्य के स्तर दयनीय हैं। भारतीय लोग दंगों के दौरान सर्वाधिक प्रभावित हुए हैं तथा शिक्षा, सरकारी सेवा एवं अन्य नियोजन तथा आर्थिक कार्यकलापों में भेदभाव होने से उनकी कठिनाइयां और भी बढ़ गई हैं।
करारबद्ध श्रम के दिनों से लेकर आजादी के बाद के चरण तक, भारतीय समुदाय को समस्याओं का सामना करना पड़ा है। उनकी उच्च आर्थिक स्थिति तथा राजनीतिक सक्रियता ने कई भारतीय विरोधी आन्दोलनों को प्रेरित किया। फिजी वासियों ने भारतीयों के बाध्यकारी देश-प्रत्यावर्तन की मांग करते हुए भारतीय मूल के व्यक्तियों की बढ़ती हुई संख्या पर खुले आम अपनी चिन्ता व्यक्त की। 1987 में सत्ता हथियाने के लिए की गई दो सैन्य बगावतों से अस्थिरता की स्थिति उत्पन्न हो गई जो आज भी जारी है। फिजी जैसे देश में जहां भारतीयों की बहुलता है, लोकतांत्रिक रूप से निर्वाचित सरकार का केवल इस कारण से विघटन हुआ कि इसका नेतृत्व एक भारतीय द्वारा किया जा रहा था, यह भारतीयों की कमजोर स्थिति तथा उन्हें वशीभूत रखने के लिए स्थापित भेदभाव मूलक तथा घोर जातिभेदक तंत्रों को इंगित करता है। बहुसंख्यक समुदाय की संदिग्ध तथा विद्वेषात्मक, एवं जातीय मनोवृत्ति आज भी भारतीय मूल के लोगों को परेशान कर रही है।
1983 के बाद, जब श्रीलंका की सिंहली सरकार ने श्रीलंकाई तमिलों के विरूद्ध सामूहिक हत्या की कार्रवाइयां शुरू की थी, उसके बाद से यह क्षेत्र आन्तरिक संघर्ष की लंबी अवधि से गुजर रहा है, जहाँ दोनों ओर के कई लोग मारे जा चुके हैं, कई मिलियन डालर मूल्य की संपत्ति नष्ट हो चुकी है तथा शान्ति छिन्न-भिन्न हो चुकी है।
कुछ दशक पूर्व भारतीयों, व्यावसायिक तथा निर्धन श्रमिकों ने समान रूप से फारस की खाड़ी में शेखों के तेल सामाज्य की ओर प्रस्थान किया। यह गतिविधि इतनी अधिक हुई कि भारतीय अप्रवासी, स्थानीय अरब जनसंख्या से संख्या में काफी बढ़ते हुए संयुक्त अरब अमीरात तथा कतर में बहुसंख्यक समुदाय बन गए। उनके सामने यहां, अलग तरह की समस्याएं आती हैं। खाड़ी क्षेत्र के अधिकांश देश अपने भारतीय कामगारों को स्थानीय नागरिकता प्राप्त करने की अनुमति नहीं देते हैं। नियोजन की शर्ते तथा परिलब्धियां विभिन्न वर्गों के बीच भिन्न-भिन्न होती हैं। व्यावसायिकों को कुछ प्रतिबंधों सहित अपने परिवारों को लाने की अनुमति दी जाती है जबकि श्रमिकों को यह अनुमति नहीं दी जाती है। उनके शोषण की संभावना होती है। उनकी समस्याएं भर्ती एजेन्टों, बैरक जैसे घटिया आवास स्थान, लंबी कार्यावधि (वैधानिक 8 घंटे कार्य दिवस से अधिक), उनके वेतन से विभिन्न शुल्क काटने, वेतन तथा वापसी का मार्ग रोके रखने तथा घटिया या अस्तित्वहीन चिकित्सा सुविधाओं से संबंधित है। उनके आगमन के समय उनके नियोजक उनके पासपोर्ट को अपने पास रख लेते हैं और उन्हें नियोजकों की दया पर छोड़ देते हैं। इस प्रक्रिया को कानूनों द्वारा सशक्त बनाया जाता है जिनमें नौकरी बदलने अथवा भारत वापस जाने के लिए निर्गम अनुमति हेतु आधिकारिक मंजूरी अपेक्षित होती है। कुछ लोगों के साथ नशीली औषध के तस्करों द्वारा छल-कपट किया जाता है जिससे उन्हें स्थानीय कानूनों के अधीन फांसी दे दी जाती है। नौकरानियों के रूप में भारतीय महिलाओं की भर्ती तथा उसके बाद उनके साथ किए गए दुव्यवहार के मामलों की सूचना मिली है। उपयुक्त राजनीतिक मंच के साथ इस मुद्दे को उठाने के लिए कोई भारतीय संगठन अथवा संघ मौजूद नहीं है। चूंकि प्रवासी इस बात से अवगत हैं कि खाड़ी क्षेत्र में उन्हें कुछ ही समय रहना है, इसलिए वे निराश हो कर भारत लौटने की बजाय वहां रूके रहने के लिए इन असुविधाओं को सहते रहते हैं।
20वीं शताब्दी के आरंभ में भारतीय स्वयं ही अमेरिका, कनाडा, यू.के. जाने लगे। ये भारतीय लोग एक अलग, तकनीकी रूप से अधिक योग्य तथा व्यावसायिक पृष्ठभूमि से संबंध रखते थे। 90 के दशक तक यू.के., कनाडा तथा यू.एस. में बसे भारतीय समुदाय आर्थिक रूप से समृद्ध एवं राजनीतिक रूप से सक्रिय हो चुके थे।
अमेरिका में भारतीय समुदाय को पर्याप्त विशेषाधिकार का स्थान प्राप्त है। किन्तु एक ओर पतनोन्मुख अर्थव्यवस्था तथा दूसरी ओर समूहों में भारतीयों का जमाव, जो प्रत्यक्षतः उन्हें एक दूसरे से विभाजित करता है, भारतीय जातीय प्रहारों का लक्ष्य बन गए हैं। 1980 के दशक से ही जनगणनाओं से यह प्रदर्शित हुआ है कि अमेरिका में जन्में एशियाई भारतीयों में बेरोजगारी की दर अन्य एशियाई अमेरिकी समूहों की अपेक्षा 5 गनी ज्यादा है। यद्यपि भारतीय किसी भी अन्य जातीय समूह की अपेक्षा आनपातिक दृष्टिकोण से अधिक व्यावसायिक थे, जहां छोटी नौकरियों में नियोजित भारतीयों की संख्या प्रत्येक वर्ष बढ़ती जाती थी, तथापि उन्हें काम के समय अथवा घर पर जातीय पक्षपात तथा जातीय उपहासों का आघात बर्दाशत करना पड़ता था। 1980 के दशक के अंत में इस जातिभेद, जिसने पूर्ववर्ती अवसरों पर उग्र रूप धारण कर लिया था, ने प्रणालीबद्ध पैटर्न प्राप्त कर लिया। उदाहरणार्थ न्यू जर्सी में आर्थिक रूप से सफल अनेक भारतीयों को आक्रमण के लिए प्रत्यक्षतः अरक्षित छोड़ दिया गया और युवा श्वेत लोगों जो, “डाट बस्टर” के रूप में जाने गए (बिंदी, जिसे भारतीय महिलाएं कभी-कभी लगाती है, का एक संदर्भ), ने उन लोगों की हत्या कर दी।
प्रायः हर कहीं जहां भारतीय तथा अश्वेत लोग जनंसख्या का एक घटक हैं, वहां ऐसा देखा जाता है कि भारतीय न केवल अश्वेतों से आशंकित रहते हैं बल्कि उनके (अश्वतों के) विरूद्ध जातिगत भेदभाव करने की उनमें संभावना होती है। एक प्रसिद्ध घटना में भारतीय समुदाय ने अकारण ही चार अश्वेत लोगों, जो एक युवा भारतीय लड़की के बलात्कार में फंसे थे, की गिरफ्तारी के लिए लास एंजेल्स पुलिस विभाग का सम्मान किया। यह इस व्यापक रूप से ज्ञात तथ्य के बावजूद भी सामने आया कि लास एंजेल्स पुलिस विभाग घोर जातीयता के कारण विश्वभर में बदनाम है। ऐसी असंवेदनशीलता भारतीय समुदाय को अन्य अल्पसंख्यों, जो जातिभेद तथा पुलिस की क्रूरता का अक्सर शिकार रहे हैं, का प्रियपात्र नहीं बना सकती
भारतीय तथा भारतीय उपमहाद्वीप की आन्तरिक राजनीति भी भारतीय समुदाय को प्रभावित करती है। जब शिकागो के डेवन एवेन्यू के एक भाग का नाम गांधी जी के नाम पर पड़ा तो पाकिस्तानी व्यावसायिक वों ने इसके समीपवर्ती भाग का नाम जिन्ना के नाम पर रखने के लिए सफलतापूर्वक दबाव डाला। विदेशी भारतीय समुदायों द्वारा भारत के विभिन्न राजनीतिक आंदोलनों को प्रदत्त सहायता अत्यधिक प्रभावशाली तथा परिणामों से भरी है। उदाहरणार्थ पंजाब में सिक्ख अलगाववादी आंदोलन को अमेरिका में रहने वाले सिक्ख चरमपंथियों से अत्यधिक सांस्थानिक तथा वित्तीय सहायता प्राप्त हुई। अमेरिका तथा यू.के. में भी देशी भारतीय पोशाकों की एक बिल्कुल ही अलग ढंग से सार्वजनिक जांच की गई है तथा इन पर चर्चा हुई है। सिक्खों ने आग्रह किया है कि उन्हें उस कानून से मुक्त कर दिया जाए जिसमें साइकिल चालकों तथा मोटर साइकिल चालकों को हैलमेट पहनने के लिए बाध्य किया जाता है, क्योंकि ऐसे हेलमेट पगड़ियों पर नहीं पहने जा सकते हैं और उनके धार्मिक मत में सिक्खों के लिए पगड़ी पहनना अपेक्षित होता है। कैलिफोर्निया स्कूल में कृपाण विवाद का एक विषय रहा है। द्वितीय पीढ़ी के अधिकांश मातापिता द्वारा ‘व्यवस्थित विवाह’ पर बल दिया जाना भारतीयों द्वारा अपने मेजबान देशों की संस्कृति अपनाने में उत्पन्न समस्याओं का एक और उदाहरण है। समाचार-पत्रों में वैवाहिक विज्ञापन भारतीयों को एक दूसरे का पता लगाने में मदद करते हैं परन्तु भिन्नता के बारे में कठिन प्रश्न भी पेश करते हैं।
इस तरह हम देखते हैं कि भारतीयों के समक्ष आने वाली कुछ समस्याएं एक भिन्न भूभाग में उनके विदेशी होने के कारण आती हैं, परन्तु अधिकांश समस्याएं स्थानीय निवासियों की तुलना में उनके द्वारा अधिक सफलता प्राप्त कर लेने के कारण आती है, जबकि कुछ अन्य समस्याएं स्वयं सृजित हो जाती हैं।