Hindi Essay, Paragraph, Speech on “Ladka Ladki Ek Saman” , “लड़का-लड़की एक समान” Complete Essay for Class 10, Class 12 and Graduation Classes.
लड़का–लड़की एक समान
Ladka Ladki Ek Saman
लड़का–लड़की में असमानताएँ
लड़का-लड़की की समानताओं को समझने से पहले उनकी असमानताओं को समझना अनिवार्य है। उनका जन्म, खान-पान, पाचन-तंत्र, बीमारी, इलाज, मृत्यु आदि लगभग एक-समान हैं। अंतर मात्र प्रजनन-तंत्र का है। उसमें भी वे दोनों सहयोगी हैं। दोनों में से किसी के बिना सृष्टि-तंत्र नहीं चल सकता।
स्वभाव में अंतर
लड़का-लड़की के मन में एक-जैसे भाव होते हैं। नारी में कोमलता, भावुकता, व्यवहार-कुशलता अधिक होती है। पुरुष में कठोरता, उग्रता, तार्किकता अधिक होती है। इस अंतर का मुख्य कारण उनके कर्म हैं। नारी को संतान-पालन का कर्म करना पड़ता है ; इसलिए ईश्वर ने उसे शारीरिक कोमलता और सुकमारता प्रदान की है। पुरुष को रक्षण और पालन का कर्म करना पड़ता है, इसलिए उसमें कठोरता अधिक होती है। परंतु ये अंतर मूलभूत नहीं हैं।
लड़के को महत्त्व मिलने का कारण
भारतीय समाज पुष-प्रधान है। इसमें पुरुषों को अधिक महत्त्व दिया जाता है। कयों को मात्र खर्चा’ माना जाता है। इसलिए वे ‘कामधेनु’ जैसी होती हुई भी ‘बोझ’ मानी जाती हैं। धर्म-क्षेत्र में यह धारणा प्रचलित है कि पुरुष योनि में ही मोक्ष मिल सकता है। इसलिए लड़के को अनिवार्य माना जाता है। परिवारों में यह धारणा भी दिन है कि लड़के से ही वंश चलता है। व्यावहारिक कारण यह है कि लड़की को ‘पराया धन’ माना जाता है। उसे विवाह के पति के घर जाना पड़ता है। अतः हर माता-पिता अपने बुढ़ापे के लिए लड़का चाहते हैं।
लड़की को समान महत्त्व मिलना चाहिए
लड़के को हर प्रकार अपने लिए उपयोगी मानकर अनेक माता-पिता लड़के के लन-पालन, शिक्षा पर अधिक व्यय करते हैं, लड़की पर कम। यह अन्याय है। सौभाग्य से शिक्षित परिवारों में यह अंतर मिटता जा रहा है। आर्थिक दबाव को समझते हुए आज की नारियों ने भी कमाना आरंभ कर दिया है। इसलिए आज वे मात्र ‘बोझ’ या खर्चा नहीं रहीं। अतः लड़का-लड़की का अंतर करके लड़की को दबाना उचित नहीं। दोनों को अपनी-अपनी अभिरुचि के अनुसार फलने-फूलने का अवसर दिया जाना चाहिए।
लड़का लड़की एक समान
Ladka Ladki Ek Saman
एक-दूसरे के पूरक
गुणात्मक अंतर
प्राचीन व आधुनिक काल में नारी
सामाजिक दृष्टि से दोनों में असमानता।
मानव-सभ्यता के विकास में लड़का-लड़की का समान योगदान है। एक के अभाव में दूसरा अधूरा है। स्त्री-पुरुष एक-दूसरे के पूरक हैं। नर के अभाव में नारी का जीवन अपूर्ण है तो नारी के अभाव में नर का अस्तित्व ही कुछ नहीं है। रही समानता की बात तो यह कालक्रम के अनुसार बदलती रहती है। लड़का-लड़की शारीरिक रूप से एक दूसरे से भिन्न हैं। लड़का शारीरिक शक्ति की दृष्टि से लड़की से अधिक शक्तिशाली है। जब कि गुणों की दृष्टि से देखा जाए तो नारी अधिक समर्थ है। नारी में प्रेम, त्याग, सहानुभूति, दया के गुण पुरुष की अपेक्षा अधिक होते हैं। नर क्रोधा-वासना का अवतार है तो नारी सहनशीलता और वात्सल्य की जीती-जागती प्रतिमा है। प्राचीनकाल में भारत में लड़का-लड़की को समान अधिकार प्राप्त थे। उसे गृहलक्ष्मी, सहधर्मिणी, अर्धागिनी आदि अनेक संज्ञाओं से अभिहित किया गया है। उस काल में नारी को पुरुष के समान अधिकार प्राप्त थे। मुगलों के आगमन के साथ ही लडका और लड़की में अंतर किया जाने लगा। भारतीय समाज ने लड़कियों की भूमिका सीमित कर दी। उनका स्थान समाज में गौण हो गया। उन्हें पर्दे के पीछे रहने के लिए विवश किया गया। शिक्षा प्राप्त राजा राममोहन राय, स्वामी दयांनद और महात्मा गांधी जैसे अनेक समाज सुधारकों ने नारी की पीड़ा को समझा और उनको पुरुषों के समान अधिकार देने की आवाज़ उठाई। नारी की स्वतंत्रता के पश्चात शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार मिला, उसे अपनी योग्यता के आधार पर किसी भी पद पर पहुँचने की आजादी मिली। लेकिन यह समानता केवल मात्र ढोंग ही नजर आई। लड़के के जन्म पर खुशियाँ और लड़की के जन्म पर मातम। यही नहीं असंख्य मादा भ्रूणों को गर्भ में ही नष्ट कर दिया जाता है। आज भी पुरुष प्रधान समाज के गले के नीचे लड़कियों को समान मानने की बात नहीं उतरती। स्वयं माता-पिता भी लड़के और लड़कियों में भेदभाव रखते हैं। लड़के को दूसरा विवाह करने को समाज मान्यता देता है, लड़की द्वारा दूसरा विवाह करने पर नाक-भौं सिकोड़ता है। लड़के को वंश संचालक माना जाता है, उसे ही मुक्तिदाता माना जाता है। लड़के को दाह-संस्कार करने का अधिकार है, लड़की को नहीं। हमारे रूढ़िवादी समाज जीवन-मूल्य लड़कियों के लिए अलग और लड़कों के लिए अलग हैं। इस प्रकार कहा जो सवैधानिक दृष्टि से भले हो लड़का-लड़की समान हो, लेकिन सामाजिक दृष्टि से उनमें समान हो, लेकिन सामाजिक दृष्टि से उनमें पर्याप्त असमानता विद्यमान है।