Hindi Essay, Paragraph, Speech on “Bharatiya Cinema ”, ”भरतीय सिनेमा” Complete Hindi Anuched for Class 8, 9, 10, Class 12 and Graduation Classes
भरतीय सिनेमा
Bharatiya Cinema
भारतीय चलचित्र जगत् या सिनेमा का आरम्भ या सिनेमा का आरम्भ मूक चित्र निर्माण से हुआ था। यह आरम्भ सोद्देश्य तो था ही, आदर्शमय भी था अर्थात् तब मनोरंजन की स्वस्थ सामग्री प्रदान करना इस का मुख्य एवं मूल उद्देश्य था। ऐसा करते समय जीवन और समाज से सम्बन्ध रखने वाली तरह-तरह की बातें, प्रश्न और समस्याएँ, मानवीय उदात भावनाएँ, देशभक्ति, जैसी बातें भी उसमें अपने आप ही आ जाया करती थीं। अवाक् के बाद फिर स्वाक् चरतां का निर्माण आरम्भ हुआ, तब भी उस की उपर्युक्त सभी भूमिकाएं बनी रहती हैं। अच्छी सामाजिक कहानियों का चुनाव उनमें सभी कुछ अपने देश का गीत संगीत भी स्वदेशी और स्वस्थ मनोरजन- सभी कुछ अपना, पूर्णतया भारतीय सभी प्रकार से आदर्श एव उद्देश्यपूर्ण रहा। कहा जा सकता है कि लगभग आठवें देशक जाने तक भारतीय सिनेमा का इतिहास अच्छा और विवेकसम्मत रहा। उसके बाद विदेशी सिनेमा और सभ्यता-संस्कृति की भौंडी नकल करने का जो दौर आरम्भ हुआ, भारतीय सिनेमा अपने स्वस्थ रास्ते से निरन्तर भटकता ही गया और उसके अनवरत पतन का दौर लगातार जारी है। यह कहाँ जाकर रुकेगा, कहा नहीं जा सकता। यह सब देख-सुनकर यह प्रश्न स्वाभाविक ही उठाया जाने लगा कि भारतीय सिनेमा आखिर जा किस ओर रहा है।
यों विश्व में फिल्में बनाने वाले देशों में हॉलीबुड के बाद भारत का आज शायद दूसरा स्थान है। कई बार तो यहाँ तक भी कहा जाता है कि आज भारत में विश्व की सर्वाधिक फिल्में बनने लगी हैं। लेकिन उनमें होता क्या है ? उनका उद्देश्य एवं आदर्श क्या रह गया है ? कतई समझ में न आने वाली बात है। उनमें साफ-सुथरा मनोरंजन दे जाने की शक्ति, बात और परम्परा भी तो नहीं रह गई। हाँ, कहा और माना जा सकता है कि तकनीकी दृष्टि से निश्चय ही भारतीय सिनेमा ने बहुत अधिक तरक्की कर ली है। ठीक है, इस कला का शरीर खिन अधिक सुन्दर हो गया है। वह बाहर से स्वस्थ भी दिखाई देने लगा है, पर उसकी आत्मा, उसके मन-मस्तिष्क, किधर जा रहे हैं वे? क्या नितान्त भ्रष्ट एवं निरुद्देश् निरुद्देश्य होकर ही नहीं रह गये हैं वे। निश्चय ही आज स्थिति जो दिखाया जा रहा या जो दिखाई देता है। आज के चलचित्र में कहानी नामक कोई चीज नहीं रह गई। एक ही कहानी थोड़ी सी हिंसा, नग्नता और कामुकताओं, निर्लज्ज हाथों के हेर-फेर के साथ नए बनने वाला प्रत्येक चलचित्र में दोहरा दी जाती है। वैसे ही फूहड़, दृश्य, असंस्कृत वेशभूषा, नग्नता, फूहड़ भाषा, फूहड़ गीत, चिपकने-चिपकाने वाली भड़काऊ योजनाएँ नृत्य के नाम पर बेडौल और बेलोस अश्लील झटके, खलनायकों की कुचेष्टाएँ और सींकिया नायकों को अकेले ही बीसियों गुण्डों को मार गिराने के गिने-गिनाए लटके झटके कुल मिलाकर यहाँ और इतना ही हुआ करता है, नया बन कर आने वाला प्रत्येक चलचित्र । ऐसी दशा में स्वाभानित प्रश्न उठता है कि आखिर भारतीय सिनेमा जा किस ओर रहा है ?
सिनेमा को मास-मीडिया यानि सर्वोत्कृष्ट जन-माध्यम माना गया है। इसके द्वारा आम-विशेष सभी प्रकार के जनों के लिए स्वस्थ मनोरंजन तो प्रस्तुत किया ही जा सकता है; प्रभावी ढंग से जन-शिक्षण, समाज-सुधार, प्रश्नों-समस्याओं के समाधान का व्यापक कार्य भी किया जा सकता है। निकट अतीत में प्रायः ऐसा किया भी गया है, फिर लगा कारण है कि आज सिनेमा ने केवल कल्पित, अयथार्थ और असंभव सपने माल बेचने का कार्य आरम्भ कर दिया है ? क्यों उस का सभी कुछ अप्राकृतिक बनावटी एवं अस्वाभाविक होता जा रहा है ? उसमें दर्शाए जाने वाले स्कूल-कॉलेज, नगर-गाँव, घर-परिवार कुछ भी तो स्वाभाविक, वास्तविक एवं यथार्थ जीवन से मेल खाने वाले नहीं हुआ करते। पता नहीं वे किस देश और राष्ट्र से सम्बंधित रहा करते हैं। आज के सिनेमा में जिस प्रकार के वातावरण, सभ्यता-संस्कृति का, कला और जीवन-दृष्टि का प्रदर्शन किया जाता है. वह भारतवर्ष का तो कतई नहीं हुआ करता। पता नहीं चल पाता कि होता कहाँ का है? फिल्मों में जो अस्पताल, डॉक्टर, नर्से, पुलिस के अफसर और सिपाही आदि दिखाए जाते हैं, उनका हमारे यथार्थ और व्यावहारिक जीवन के साथ क्यों किसी भी प्रकार का सम्बन्ध नहीं दीख पड़ता है? देवता से लगने वाले, शिष्टाचार, सभ्यता और मानवता के दे पुतले यथार्थ जीवन के विपरीत केवल फिल्मों में ही किस स्वर्ग से उतर कर आ जाया करते हैं ? इन सब को तो क्या, हमारे सिनेमा ने देवी देवताओं और भगवान तक को केवल सिनेमाई बना कर रख दिया है। हिन्दू देवी-देवताओं की भद जिस प्रकार फिल्मों में उडाई जाती है, किसी और मजहब की कोई फिल्म वाला उड़ा कर तो दिखाए। कहने का तात्पर्य केवल इतना ही है कि आज भारतीय सिनेमा मात्र एक अस्वाभाविक भदेस बन कर रह गया है।
सिनेमा, यथार्थ का दामन थाम कर जिसे वास्तव में जन-हितकारी और जन-शिक्षण का माध्यम, भारतीय सभ्यता-संस्कृति का प्रतीक और भारतीयता का प्रतिनिधि बनाया। जा सकता है पूँजी लगाने वाले काला बाज़ारियों, तस्करों और भ्रष्टाचारियों के कारण मात्र इन्हीं सब का ध्वजवाहक बन कर रह गया है। इन्हीं की तरह मात्र हिंसा, कामुकता और वहशीपन का सौदागर बन कर रह गया है। कहने को सैन्सरशिप के कठोर नियम और अनुशासन हैं, फिर भी तो हिंसा, मारधाड़, भद्दी कामुकता और सब प्रकार से भदेस ही आज के सिनेमा की वास्तविक परिभाषा है। इस सब का हमारे व्यावहारिक जीवन-समाज पर कैसा प्रभाव पड़ रहा है, यहाँ दोहराने की आवश्यकता नहीं। आवश्यकता है उसे रोक कर सिनेमा को स्वस्थ एवं जीवन व्यवहारों का सुन्दर पथ-निर्देशक बनाने की बस।