Hindi Essay on “Shath Sudhrahi Satsangati Pai” , ”शठ सुधरहिं सत्संगति पाई” Complete Hindi Essay for Class 10, Class 12 and Graduation and other classes.
शठ सुधरहिं सत्संगति पाई
Shath Sudhrahi Satsangati Pai
मानव एक सामाजिक प्राणी है। वह संगति की अपेक्षा करता है। मानव को संगति चयन में जल्दबाजी नहीं करनी चाहिये। बडा सोच-विचार कर साथियों का चयन, बच्चे को बचपन ही से कराना चाहिए। एक बार जो संस्कार पड़ जाते हैं वे फिर आसानी से समाप्त नहीं होते हैं।
“सत्संग ‘ शब्द सत+संग से बना है। सत् का अर्थ सज्जन एवं संग का अर्थ है साथ। अतः सज्जन लोगों की संगति ‘सत्संगति’ या ‘सत्संग’ कहलाता है। शिष्ट, सहृदय एव परोपकार आदि से यक्त जो सज्जन होते हैं, उन्हीं का साथ करना चाहिए। संगति लिए प्रेम का होना परमावश्यक है। यदि मनष्य सच्चे अर्थ में संगति की कामना करना चाहते हैं, तो उन्हें प्रेमभाव को अपनाना होगा।
जहाँ दुर्जन अवगुणों की खान एवं नर्क दर्शन कराने वाले होते हैं वहीं सज्जन गुणा का भण्डार होते हैं तथा वे स्वर्ग के दर्शन इसी भू पर करते हैं। सज्जन अपने हानि या लाभ की चिन्ता न करके दसरों का हित साधन करते हैं। सज्जनों का धन व पकारार्थ होती है। ये दूसरों को सुखी देखकर मुदित और दूसरों को दुःखी देखकर सयुक्त होते हैं। दष्ट व्यक्ति स्वयं अपनी प्रशंसा अपने मुख से करता है; किन्तु सज्जन अपने मुख पर अपनी प्रशंसा दूसरों से सुनने के अभ्यस्त नहीं होते हैं और मन “भमान होते हुए भी अभिमान नहीं करते तथा सर्वदा दूसरों के सम्मुख अपने को छोटा एवं अज्ञानी ही बतलाते हैं। ये लोग अपने मुँहमियाँ मिठू नहीं बनते तथा सर्वदा प्रिय सत्य बोलते हैं। यह सर्वदा सत्यं शिवं सुन्दरम् का ध्यान रखते हैं। ये शब्दों का संचय करते है, यश के प्रति अभिरुचि रखते हैं और सभा में जहाँ बोलना आवश्यक समझते है, बोलते हैं। ये प्रत्येक व्यक्ति को आत्म-स्वरूप एवं मित्र समझकर अपने प्रति जो दुर्व्यवहार करता है उसको भी क्षमा कर देते हैं। सदगुणों के भण्डार सज्जनों में अग्रगण्य कर्मयोगी कृष्ण ने तो अपने पेट पर लात मारने वाले भृगु ऋषि को कटु वचन न कहकर उनके पैर को सहलाते हुए मुस्करा कर पूछा, ‘प्रभु, आपके पैर में चोट तो नहीं लगी?’ इसी प्रकार सज्जनता के पुतले राष्ट्रपिता बापू का सिद्धांत था कि यदि तुम्हारे गाल पर कोई थप्पड मारता है तो तुम्हें उसे दो थप्पड़ न मारकर अपना दूसरा गाल भी उस मारने वाले के सामने कर देना चाहिए।
संगति के प्रभाव से ही दोष व गुण उत्पन्न होते हैं। दुष्टों की संगति करने से दुर्गुण आते हैं और सज्जनों के सम्पर्क से हम महान् बन जाते तथा हमारा महत्त्व बढ़ जाता है। एक छोटा-सा पैरों तले कुचला जाने वाला कीट भी पुष्प की संगति से महान् पुरुषों तथा देवों के सिर पर वास पाता है। काँच का टुकड़ा सोने के आभूषण में मरकत मणि जैसी द्युति को धारण करता है। इसी प्रकार कमल के पत्तों के ऊपर पड़ा जल मोती के समान शोभायमान होता है। पवन के संग से धूल आकाश पर चढ़ जाती है और वही नीचे जल के सम्पर्क से कीचड़ में मिल जाती है। कुसंग के कारण धुआँ कालिख कहलाता है, वही धुआँ सुसंग से सुन्दर स्याही होकर पुराण लिखने के काम में आता है। वही धुआँ जल, अग्नि और पवन के सुसंग से सुन्दर बादल का रूप धारण करके जगत् को जीवन देने वाला बन जाता है। ग्रह, औषधि, जल, वायु और वस्त्र आदि ये सभी कुसंग और सुसंग से ही संसार में भले और बुरे पदार्थ बन जाते हैं। स्वाति नक्षत्र में बादल से पतित होने वाली जल की एक ही बूंद संगति के प्रभाव से पृथक्-पृथक् रूप धारण करती है, वही केले में कपूर, हाथी के मस्तक पर गजमुक्ता, समुद्र की सीपी में मोती और सर्प के मुख में विष का रूप धारण करती है। सुन्दर तीर्थों के सत्संग से दुष्ट मनुष्य भी संसार सागर से तर जाते हैं। इस प्रकार सत्संग का महत्त्व अनंत है। सत्संग से व्यक्ति कुछ का कुछ बन जाता हैं। सत्संग में रहने से मानव को उसकी ही वृत्तियाँ नहीं सता पाती हैं।
सत्संगति की महत्ता बड़ी ही अद्भुत है। सत्संग के प्रभाव से प्रवृत्तियों वाले बड़े-बड़े दानव भी देवता बन जाते हैं। कौन नहीं जानता कि कुख्यात व दुर्दान्त डाकू अंगुलिमाल महात्मा बुद्ध की संगति से ही सहृदय तथा महान् बन गया था। महान् आदिकवि वाल्मीकि के नाम से कौन अनभिज्ञ है ? यही वाल्मीकि प्रारम्भ में कुख्यात तथा दुर्दान्त लुटेरे थे। सज्जन मुनियों के उपदेश से उनको वैराग्य हुआ और घर-बार छोड़ कर उन्होंने राम के उल्टे नाम ‘मरा-मरा’ का जाप किया और महर्षि कहलाए।
निरक्षर कबीरदास सत्संग के प्रभाव ही से न केवल कवि अपित महान रहस्यवादी बन गए और उन्होंने सत्संग का बड़ा ही सूक्ष्म विश्लेषण कुसंग की बराई व्यक्त करते हुए किया है :
‘नारी की झाँई पडै अन्धा हॉट भुजंग।’
ते नर कैसे जियें जे नित नारी के संग।
जिस प्रकार सत्संगति की महिमा अनन्त है, उसी प्रकार कुसंगति का प्रभाव भी कम नहीं है। कुसंगति ऐसा ज्वर है जो लोगों को घुन की तरह धीरे-धीरे नष्ट करता है। यह मीठा विष है जिसका परिणाम दारुण यन्त्रणा है। दुर्जन बिना प्रयोजन के ही अपना हित करने वाले के भी प्रतिकूल आचरण करते हैं। दूसरों की हानि देखकर उन्हें बड़ी प्रसन्नता होती है। इन दुष्टों का उदय पुच्छल केतु के समान अनिष्टकारी होता है। ये दुष्टजन अपना शरीर त्याग करके भी दूसरों का अहित करने का पाठ पढ़ाते हैं। अत कुसंगति से दूर ही रहना चाहिए।
सत्संगति से हमारे चरित्र का निर्माण होता है। हमें सर्व प्रकार के सुख भी सत्संगति से ही प्राप्त होते हैं। सन्तोष रूपी धन हम सत्संगति से ही प्राप्त करते हैं। सत्संगति से हमारे अनुभव तथा ज्ञान की वृद्धि होती है। सत्संगति हमें बताती है कि प्रत्येक चमकने वाली वस्तु सोना नहीं होती। हम सत्संगति से ही सच्चे मित्र की पहचान का ज्ञान प्राप्त करते हैं। हमारी बुद्धि ही मूर्खता का हरण करती है, सत्य बोलना सिखाती है, हमारे सम्मान को दिशाओं में बिखेरती है, पापों को दूर करती है, चित्त को प्रसन्न रखती है तथा सम्पूर्ण दिशाओं में हमारे यश का विस्तार करती है।
सज्जन स्वयं कष्ट सहन कर के भी दूसरों के दोषों को छिपाते हैं। सज्जन सभी श्रेष्ठ गुणों की खान हैं। इस भौतिकवादी युग में भी विवेकजन ही ख्याति पाते हैं। अतः सत्संगति जीवन है और कुसंगति मृत्यु।