Hindi Essay on “Sahitya se Apekshaye” , ” साहित्य से अपेक्षाएँ” Complete Hindi Essay for Class 10, Class 12 and Graduation and other classes.
साहित्य से अपेक्षाएँ
Sahitya se Apekshaye
‘साहित्य’ शब्द की व्युत्पत्ति या बनावट ‘सह’ और ‘हित’ इन दो शब्दांशों से हुई स्वीकार की जाती है। सह का अर्थ साथ, सहयोग, सम्मिलित कुछ भी हो सकता है। ‘हित का अर्थ भलाई, लाभ, उपयोग आदि कुछ भी किया और लिया जाता है। इस प्रकार सब का या सामूहिक स्तर पर सारे जीवन समाज का हित साधन करने वाली रचना को साहित्य जा सकता है। अब क्योकि साहित्य में हित साधना का व्यापक भाव विद्यमान है, इस सीजन-समाज, देश-राष्ट्र और इन सब से भी आगे बढ़ कर या ऊपर उठकर सारी लता का या लिए हो सकती है।
हमारा यह पक्का विश्वास है कि अच्छा साहित्य पर बताए सभी की, सब प्रकार की उचित अपेक्षाएँ पूरी कर पाने में समर्थ हो सकता है इस के लिए अपेक्षित शर्त एक ही है या हो सकती है कि उस का सर्जक साहित्यकार मीन-समाज और सारी मानवता को खुली आँखों से देखने वाला, इस सब के दुःख-दर्द को समझ पाने में समर्थ, व्यापक एवं सभी प्रकार के विषयों का अच्छा-गहरा जानकार. सम्वेदनशील और सच्चे अर्थों में अपने आप में विकसित मन-मस्तिष्क वाला पूर्ण मानव होना चाहिए। ऐसा होकर वह निश्चय ही सबकी सब प्रकार की अपेक्षाएँ पूर्ण कर सकता है।
आम तौर पर सामान्य व्यक्ति एक तो साहित्य से स्वस्थ मनोरंजन चाहा करता है. दसरे उसे मित्र के समान मान कर अपने जीवन में आने वाली छोटी-बड़ी समस्याओं पर प्रश्नों के समाधान या उत्तर उसी प्रकार चाहता है, जैसे अच्छे-सच्चे मित्र से चाहा करता है। हमारा यह अनुभव है कि इस प्रकार की अपेक्षा अच्छे साहित्यकारों की रचनाएँ निश्चय ही पूर्ण कर दिया करती हैं। इसमें दो राय नहीं हो सकतीं। घर-परिवार के सदस्य अपने साहित्यकार सदस्य से अपनी सभी प्रकार की आवश्यकताओं की पूर्ति करने की अपेक्षा प्रायः रखा करते हैं। हमारे विचार में इस देश में, विशेषकर हिन्दी-साहित्य के क्षेत्र में इस प्रकार की पारिवारिक अपेक्षाएँ पूर्ण कर पाने में समर्थ एक-आध प्रतिशत साहित्यकार हो सकते हैं।
अतः अच्छा एवं उचित यही है कि इस प्रकार की अपेक्षाएँ न रखी जाएँ। साहित्यकार भी जीविका के लिए अन्य उपयुक्त कार्य व्यापार करते रहे। भगवती प्रसाद वाजपेयी जैसा अच्छा साहित्यकार घर-परिवार की अपेक्षाएं पूरी करने के चक्कर में ही औसत दर्जे का साहित्य रच पाने में भी अक्षम हो कर रह गया था। सामाजिक स्तर पर जीवन-समाज की ललित साहित्य से सभी प्रकार की अपेक्षाएँ प्रायः उचित ही हुआ करती हैं। समाज कई बार साहित्य की अगवानी करता है और कई बार उस का अनुसरण किया करता है।
अगवानी इस दृष्टि से कि अपनी विराटता, सत्स्वरूप से वह साहित्य को भी प्रभावित कर देता है कि छिछलापन या केवल मनोरंजक कहानियाँ गढ़ना छोड़कर वह उच्च ज्ञान-ध्यान उच्च मानों-मूल्यों, मानव के महान् आदर्शों की बातें अपने पिघात्मक साहित्य रूपों में लिखे अन्य कुछ नहीं परन्तु वस्तु स्थिति यह है कि एसा बहुत कम कहा जा सकता है कि नहीं के बराबर ही हुआ करता है। वास्तव में समाज और जीवन साहित्य से अपनी अगवानी करने की अपेक्षा रखा करते हैं। स्पष्ट है कि साहित्य ने ऐसा किया भी है। दूर जाने की आवश्यकता नहीं, यह देश जब स्वतंत्रता-स्वाधीनता प्राप्ति के लिए अपना संघर्ष कर रहा था, तब निश्चय जागरुक साहित्यकारों ने समय-स्थिति की अपेक्षाओ के अनुरूप अपने कलेवर और आत्मा का निर्माण कर जन भावना का सम्मान और आवश्यकताएँ पूरी की। बन्दे मातरम्’, ‘विजयी विश्व तिरगा प्यारा, झण्डा ऊँचा रहे हमारा: सरफरोशी की तमन्ना है, तो सर पैदा करो और इस प्रकार के अनेक गीत उस समय पूरे राष्ट्रीय समाज के कण्ठ का हार बने हुए थे। माखन लाल चतुर्वेदी का एक पुष की चाह नामक गीत उस युग के जीवन-समाज की राष्ट्रीय अपेक्षाओं की तो देन था की-
मुझे तोड लेना वनमाली, उस पथ पर तुम देना फेंक,
मातृभूमि पर शीश चढाने जिस पथ जावें वीर अनेक।
साहित्य से यह अपेक्षा की जाती है कि वह जन-जागरण का कार्य तो करता ही रहे. जीवन और समाज को उसके कर्त्तव्यों और अधिकारों का बोध भी कराता रहे। जीवन क्योंकि प्राकृतिक नियम से ही निरन्तर गतिशील, परिवर्तनशील और प्रगतिवादी हुआ करता है। ऐसी दशा में साहित्य का यह कर्त्तव्य तो हो ही जाता है, उससे अपेक्षा भी यही की जाती है कि वह समय स्थिति को पहचान कर, उसकी आवश्यकता के अनुसार औचित्य का ध्यान रखते हुए जीवन-समाज में, समाज के प्रत्येक अंग (व्यक्ति) में उचित परिवर्तन, परिवर्द्धन, प्रगति और विकास का सक्रिय भाव जगाने का सतत प्रयास करे। परिवर्तन और नव प्रगति-विकास के कारण जीवन-समाज की अच्छी परम्पराओं, सांस्कृतिक मूल्यों-मानों की रक्षा करते हुए युगानुकूल उन्हें नवीन एवं उपयुक्त साँचे में ढालने का प्रयास भी करे। दूसरे शब्दों में युग के अनुकूल नए मानों-मूल्यों को बनाने और उनकी रक्षा करते रहने, आवश्यकतानुसार उन्हें नया और सधा हुआ स्वरूप देते रहने की अपेक्षा भी साहित्य से ही की जाया करती है।
अनेक विद्वानों ने ऐसा माना और लिखा भी है कि तीर, तोप, तलवार यानि कि भयानक से भयानक मारक शस्त्राशस्त्र में भी जो शक्ति नहीं रहा करती; वह शक्ति केवल साहित्य में ही संभव हुआ करती है। अन्य सभी प्रकार की शक्तियाँ तो केवल दिलों में। दरार डालने का काम ही किया करती हैं, उन्हें पाटने या भरने का नहीं। साहित्य से ही । यह अपेक्षा की जा सकती है कि वह देशों, राष्ट्रों, मनुष्यों आदि सभी के मन में किसी। भी कारण से पड़ गई दरार को पाट या भर सके। साहित्य इस अपेक्षा की पूर्ति तभी कर सकता है कि जब उसका निर्माण विशुद्ध मानवतावादी दृष्टि से, शाश्वत मानवीय भावों और मूल्यों से समन्वित करके रचा जाए। वह किसी भी वाद विशेष से बन्ध कर न चले।। उसका दृष्टिकोण आरंभ से अन्त तक शुद्ध मानवतावादी अपेक्षाओं के अनुरूप रचा हुआ होने के कारण ही सारे संसार में सम्मान के साथ देखा, पढ़ा और सुना जाता है। आज दुखी, पीडित और खेमो में विभाजित मानवता की रक्षा के लिए वैसा ही साहित्य अपेक्षित है।
कुछ राजनीतिक दल साहित्य और साहित्यकारों से यह अपेक्षा करने लगते हैं कि उनके सिद्धान्तो का प्रचार करने वाला साहित्य रचा जाना चाहिए। ऐसा साहित्य अपना
सीमित और मात्र सामयिक प्रभाव ही रखा करता है। यह अलग बात है कि कई बार मैक्सिम गोर्की की मौ’ जैसी अमर, शाश्वत मानों-मूल्यों वाली रचनाएँ भी इस प्रकार के प्रचार साहित्य में से स्वरूपाकार पा लिया करती हैं, पर अधिकतर प्रचार साहित्य को घटिया कहा-माना जाता है।
इस कारण टुटपुंजिए किस्म के लेखक ही इस प्रकार का साहित्य रचने की ओर प्रवृत्त हुआ करते हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि प्रत्येक मानव अपने गुण-स्वभाव के अनुरूप साहित्य से तरह-तरह की अपेक्षाएँ रखा करता है। परन्तु फ्रॉयडवादी साहित्य को छोड़ कर शेष सभी प्रकार का साहित्य व्यक्ति नहीं, बल्कि समूह या समाज की अपेक्षाएँ ध्यान में रखकर ही सिरजा जाता है। फ्रॉयडवादी या मनोविश्लेषणवादी साहित्य भी वास्तव में व्यक्ति के माध्यम से समाज को देखने परखने का प्रयास उसी प्रकार किया करता है, जैसे एक दाना देख कर पूरी हाण्डी के कच्चा-पक्का चावल होने का अनुमान कर लिया करता है।
कुल मिलाकर यही कहा जा सकता है कि प्रत्येक समझदार मानव साहित्य से एक सच्चे मित्र और पथ-प्रदर्शक के समान मनोरंजन ढंम से अपना पथ-प्रदर्शक करने की अपेक्षा रखता है ताकि उसका जीवन निश्चित होकर, सुख-शान्तिपूर्वक व्यतीत ह्ये सके। व्यक्ति से लेकर घर-परिवार, समाज, प्रान्त, देश, राष्ट्र और मानवता के प्रति उस का क्या दायित्व है, सत्साहित्य हमेशा इस बात का बोध कराता रहे। आवश्यकता पड़ने पर अच्छे मित्र की तरह कान मरोड़ कर भी सीधी, निष्कण्टक और उच्च मानवीय भावों की और अग्रसर कर सके। बहुत जरूरी हो, व्यक्ति और समाज की गफलत दूर करने के लिय कमर पर कोड़े का-सा प्रहार भी कर सके यानि कि हित-साधन का अलम्बरदार हाने के कारण उसका जो साहित्य नाम पड़ा है, जिस किसी भी तरह अपने इस नामकरण का सक्षम-सार्थक कर सके। इससे बढ़कर कोई व्यक्ति, कोई समाज, कोई देश और राष्ट्र किसी साहित्य से अन्य किसी प्रकार की कोई अपेक्षा कर भी क्या सकता है?