साहित्य में रस का परिचय, रस के अंग, रस के भाव इत्यादि कर वर्णन करो। Sahitya mein Ras ka Parichay, Ras ke Ang, Ras ke bhav ityadi ka varnan.
रस शब्द का अर्थ है आनंद । साधारण बोलचाल की भाषा में हम कहा करते हैं – बहुत आनंद आया। खूब मजा आया। साहित्य में इसी भाव को गहरे अर्थों में रस कहा गया है।
परिभाषा – काव्य को पढ़ने, सुनने या देखने से जो आनंद प्राप्त होता है, उसे रस कहते हैं।
काव्य – यहाँ यह जान लेना जरूरी है कि गद्य एवं पद्य दोनों प्रकार के साहित्य को काव्य कहा जाता है। ऐसी धारणा बन गई कि काव्य अर्थात् कविता, परंतु यह गलत धारणा है। इसीलिये परिभाषा में काव्य शब्द का प्रयोग किया गया है, साहित्य शब्द का नहीं।
सहृदय व्यक्ति – जो व्यक्ति काव्य के रस को ग्रहण कर पाने में समर्थ होता है, उसे काव्य की भाषा में सहृदय व्यक्ति कहते हैं। हृदय तो सभी के पास होता है, किंतु काव्य के आनंद को ग्रहण करने की क्षमता सभी के पास नहीं होती। जिनके पास यह क्षमता होती है, उन्हें साहित्य की भाषा में सहृदय माना जाता है।
रसानुभूति – एक व्यक्ति जो सहृदय की श्रेणी में आता है, वह किसी कविता, कहानी या नाटक का आनंद ले सकता है। किंतु दूसरा व्यक्ति जो सहृदय की श्रेणी में नहीं आता, वह कविता, कहानी या नाटक का आनंद ग्रहण नहीं कर पाता। यही ग्रहण क्षमता रसानुभूति या रस की अनुभूति कहलाती
रस के अंग
रस के चार अंग होते हैं –
(1) स्थायी भाव
(2) विभाव
(3) अनुभाव
(4) संचारी भाव
(1) स्थायी भाव – सहृदय व्यक्ति में जो भाव जन्मजात होते हैं और सदा बने रहते हैं, उन्हें स्थायी भाव कहा जाता है। जैसे- प्रेम, क्रोध, हास, शोक आदि। स्थायी भाव सहृदय व्यक्ति में सुषुप्त अवस्था में होते हैं, जो कारणों और परिस्थितियों के प्रभाव में जाग्रत हो जाते हैं।
कभी-कभी हम देखते हैं कि कोई व्यक्ति आनंद में डूबा हुआ गीत गुनगुना रहा है, तभी कोई उसके पैर पर गलती से अपना जूता रख देता है। उस व्यक्ति के भावों में परिवर्तन होता है और वह क्रोधित हो जाता है। इसका तात्पर्य यह हुआ कि क्रोध का स्थायी भाव उस व्यक्ति में है, परंतु कारण न होने पर वह शांत है। जैसे ही कारण और परिस्थितियाँ उपस्थित हुईं, वह स्थायी भाव जाग कर सामने आ गया।
इन स्थायी भावों की संख्या पहले नौ मानी गई थी, अब वात्सल्य को मिलाकर इनकी संख्या दस हो गई है।
(2) विभाव – जो भाव सहृदय व्यक्ति में सोये हुए स्थायी भावों को जगाने में सहायता करते हैं, उन्हें विभाव कहा जाता है।
विभाव के दो भेद हैं-
(क) आलम्बन विभाव – जिन्हें देखकर या सुनकर सहृदय व्यक्ति में रसानुभूति होती है, उसे आलम्बन विभाव कहते हैं।
आलम्बन विभाव को दो भागों में बाँटते हैं –
(i) आश्रय- सहृदय व्यक्ति के हृदय में जो स्थायी भाव सुषुप्त अवस्था में रहते हैं, उन्हें जाग्रत करने के लिये यह आवश्यक है कि वे भाव काव्य या नाटक के पात्रों में उत्पन्न हों। काव्य के जिस पात्र या जिस व्यक्ति के मन में स्थायी भाव उत्पन्न होते हैं, उसे आश्रय कहते हैं।
(ii) विषय – जिस व्यक्ति या वस्तु के प्रति आश्रय के मन में स्थायी भाव उत्पन्न होते हों, उसे विषय कहते हैं।
(ख) उद्दीपन विभाव – आलंबन की चेष्टाएँ, क्रियाकलाप, आसपास का वातावरण, जो स्थायीभाव को जाग्रत करने, बढ़ाने व उत्तेजित करने में सहयोग करता है, उसे उद्दीपन विभाव कहते हैं।
उद्दीपन विभाव के दो भेद हैं-
(i) विषय की बाहरी चेष्टाएँ,
(ii) बाहरी वातावरण
पुत्र के परदेस चले जाने पर दुःखी माँ उसके कपड़े या चित्र या जैसे किसी घटना के कारण और भी दुःखी हो जाये।
(3) अनुभाव – विभावों के पीछे-पीछे चलने वाले भाव अनुभाव कहलाते हैं या आश्रय की बाहरी चेष्टाएँ अनुभाव हैं। अनु का अर्थ है पीछे या बाद में। जैसे – दुःखी व्यक्ति के आँसुओं का बहना। क्रोधित व्यक्ति का हाथ-पैर पटकना। खुशी में उछलना-कूदना। साँप देखकर चीख मारना।
(4) संचारी भाव – बाहरी कारणों के अतिरिक्त आश्रय के मन में कुछ मनोविकार भी उत्पन्न होते हैं। ये अस्थायी मनोविकार कुछ समय के लिये आते-जाते रहते हैं। आना जाना यानी संचरण करना, इसी से इन्हें संचारी भाव कहा जाता है। इनकी संख्या 33 मानी गई है।
संचारी भाव के नाम – निर्वेद, ग्लानि, शंका, भ्रम, धृति, जड़ता, हर्ष, दैन्य, उग्रता, चिन्ता, त्रास, असूया, अमर्ष, गर्व, स्मृति, मरण, मद, स्वप्न, निद्रा, विबोध, ब्रीड़ा, अपस्मार, मोह, मति, अलसता, आवेग, तर्क, अवहित्या, व्याधि, उन्माद, विवाद, औत्सुक्य और चपलता ।
रस की निष्पत्ति – सहृदय के हृदय में स्थित स्थायी भाव का जब विभाव, अनुभाव और संचारी भाव से संयोग होता है, तब रस की निष्पत्ति होती है। दूसरे शब्दों में विभाव, अनुभाव और संचारी भावों की सहायता से पुष्ट होकर जब स्थायी भाव परिपक्व होता है, तो उसे रस कहते हैं।
एक उदाहरण से चारों भावों को समझना आसान होगा –
‘घनघोर अँधेरे वाली रात में चम्बल के बीहड़ वनों में रास्ता भूला हुआ एक राहगीर अपने सामने बंदूकधारी डाकुओं को देखकर काँपने लगा और उसे समझ में नहीं आया कि अब वह क्या करे।’
यहाँ रास्ता भूला राहगीर – आश्रय है। डाकू – विषय है। चम्बल के बीहड़ वन – उद्दीपन, डाकुओं को देखकर काँपना- अनुभाव है। राहगीर में चिंता, आशंका, त्रास आदि संचारी भावों का आना-जाना जारी रहा ही होगा। यह वृत्तांत पढ़कर, सुनकर या देखकर सहृदय के हृदय में भय नामक स्थायी भाव जाग्रत होता है, तब भयानक रस की निष्पत्ति होती है।
प्रत्येक स्थायी भाव पर आधारित एक रस माना गया है –
रस स्थायी भाव
- श्रृंगार रस रति
- अद्भुत विस्मय
- हास्य हास
- करुण शोक
- रौद्र क्रोध
- वीभत्स जुगुप्सा
- भयानक भय
- शांत निर्वेद
- वीर उत्साह
- वात्सल्य वात्सल्य
स्थायी भाव और संचारी भाव में अंतर
स्थायी भाव
- स्थायीभाव सहृदय के हृदय में उत्पन्न होकर अंत तक बने रहते हैं।
- एक रस का एक ही स्थायी भाव होता है।
- स्थायी भावों की संख्या 10 है।
संचारी भाव
- संचारी भाव आश्रय के क्षणिक मनोकार हैं, जो बनते-बिगड़ते रहते हैं।
- एक संचारी भाव अनेक रसों के साथ आ सकता है।
- इनकी संख्या 33 है।
विभाव और अनुभाव में अंतर
विभाव और अनुभाव के प्रमुख अंतर निम्न हैं-
(1) स्थायी भाव का कारण विभाव कहलाता है जबकि आश्रय के हाव-भाव अनुभाव कहलाते हैं।
(2) विभाव रस का मुख्य कारण है, जबकि अनुभाव गौण कारण है।
(3) विभाव वर्णन में भाव की प्रधानता रहती है, जबकि अनुभाव में क्रियाओं की प्रधानता रहती है।