Meri Ruchiya “मेरी रुचियां ” Complete Hindi Essay, Paragraph, Speech for Class 9, 10, 12 Students.
मेरी रुचियां
मनुष्य के जीवन में रुचियों का बड़ा महत्वपूर्ण स्थान है। रुचियाँ उसे रूखेपन से मोड़कर एक सहृदय और कोमल इंसान बनाने में सहायता करती हैं। एक व्यक्ति की अनेक रुचियाँ हो सकती हैं। किताबें पढ़ना, टहलना, तैरना, खेलना, डाक टिकिट संग्रह करना, डायरी लिखना, बागवानी करना, पक्षियों का अवलोकन करना, वन्य प्राणियों की जानकारी एकत्र करना, माचिस के लेबल एकत्र करना, प्राचीन सिक्कों का संग्रह, लोक गीतों का संग्रह, जड़ी-बूटियों का संग्रह, चित्रों का संग्रह, महत्वपूर्ण व्यक्तियों के हस्ताक्षरों या पत्रों का संग्रह आदि आदि।
मैंने भी जब रुचियों के प्रति अन्य लोगों के प्रेम के बारे में जाना, तो मेरे मन में भी यह भाव उत्पन्न हुआ कि मैं भी किसी रुचि को अपनाऊँ। प्रारंभ में तो यह समझ ही नहीं आया कि किस रुचि को मैं अपने लिये निश्चित करूँ। मचियाँ इस तरह निश्चित भी नहीं की जा सकतीं, क्योंकि प्रयलपूर्वक निर्धारित की गई रुचि, रुचि हो ही नहीं सकती। वह तो सहज स्वाभाविक तरंग होती है। मैंने यही तय किया कि सभी प्रकार की रुचियों में दिलचस्पी लेकर देखा जाये, जिसमें आनंद और संतोष मिलने लगे, उसे मैं अपना लूँगा।
मैंने किताबें पढ़ना शुरु किया, क्योंकि वे मुझे अपने घर पर ही उपलब्ध थीं। किताबों का अध्ययन ज्ञानवर्धक रहा। फिर मैंने पक्षियों पर ध्यान केंद्रित किया। उनका बोलना, फुदकना, चलना, उड़ना, खाना-पीना, किलोलें करना मैं ध्यान से देखता।
पक्षियों को मैं बचपन से देखता आ रहा हूँ, किंतु अब यह ज्ञान हुआ कि उनका जीवन कितना अनोखा है। उनकी आदतें कितनी मनोहारी हैं। घर की चहार-दीवारी के अंदर जितने पक्षी हमारे पेड़-पौधों पर आते थे, उन्हीं को मैं देख पाता था। शहरी जीवन में इससे अधिक की गुंजाइश भी न थी। इसलिये पक्षी अवलोकन में मन तो रमा, किंतु एक सीमा के आगे कुछ करने का अवसर नहीं था।
पक्षियों को लुभाने के लिये मेरे मन में अधिक से अधिक पेड़-पौधों को लगाने की इच्छा उत्पन्न हुई। घर का एक हिस्सा मैंने चुन लिया और जब माँ को मैंने बताया कि उस हिस्से में मैं पेड़-पौधे लगाऊँगा, तो वे भी खुश हुई। उन्होंने एक ताकीद भी की कि पेड़-पौधे लगाना तो सरल है, परंतु उनकी देखभाल करना जरा कठिन है। यदि देखभाल करने की तैयारी हो, तभी लगाओ। यह बात मेरे मन में बैठ गई कि पेड़-पौधों की देखभाल उसी तरह जरूरी है, जैसे एक माँ अपने बच्चे की देखरेख, प्रेम और चिंता करती है।
मैंने आँगन के कोने में ऐसी जगह का चुनाव किया, जहाँ अधिक से अधिक धूप आती थी, क्योंकि पौधों को ज्यादा से ज्यादा सूर्य का प्रकाश चाहिये। मैंने जो पैसे इकट्ठे किये थे, उनसे एक खुरपी, कुदाली व फावड़ा खरीदा।
मैं चाहता था कि अपनी रुचियों के लिये माता-पिता पर कोई बोझ न डालू। मैने 20 फुट गुणित 20 फुट का एक घेरा बनाया। कुदाल से जमीन खोदी। ईंट के टुकड़े-अद्धे गड़ा-गड़ा कर सीमा बनाई। ये सारे काम में प्रातः 6 से 7 बजे तक करता था। जब भूमि तैयार हो गई, तो पौधों का चुनाव करने, लाने और लगाने की बारी आई।
किसी अवसर पर गेंदे के फूलों की मालाएँ घर लाई गई थीं और उपयोग हो जाने पर उन्हें आँगन में लगे अमरूद के पेड़ पर टाँग दिया गया था। फूल पूरी तरह सूख चुके थे। नये पौधे खरीदकर लाने के लिये मेरे पास पैसे भी न थे।
ऐसे में मैंने यही उचित समझा कि गेंदे के फलों को झराकर लगा दिया जाये। मैंने फूलों का चूरा जमीन में बिखरा दिया और उन्हें मिट्टी से ढंक दिया। पानी देने के लिये मेरे पास हजारा न था, सो मैंने एक पुराना डिब्बा लिया और उसके ढक्कन में खब सारे छिद्र कर दिये। डिब्बे में पानी भरकर ढक्कन लगाया और उसे उलटकर सिंचाई करने लगा। यह उपाय बहत कारगर रहा। इससे हल्की फुहारें निकलीं और हल्की सिंचाई हो गई। गेंदे के बीज बहुत बारीक होते हैं। यदि उन्हें बाल्टी या मग से पानी दिया जाता, तो वे बहकर निकल जाते या एक ही कोने में एकत्र हो जाते।
मैं नियम से सिंचाई करता और अंकुरण का बेताबी से इंतजार करता रहा। इस बीच घर की पुताई से बचा हुआ चूना और गेरू एक कोने में पड़े हुए मुझे मिल गये। मैंने उनसे अपने बाग के ईंटों को रंगकर आकर्षक बना दिया। पिताजी की नजर पड़ी, तो उन्होंने मुझे शाबासी दी।
दस-बारह दिनों के बाद पौधों के अंकुर जमीन से उठते हुए दिखाई दिये – ढेर सारे अंकुर। मैं उन्हें देखकर ऐसा आनंदित हुआ जैसे मुझे दौलत मिल गई हो। मैंने दौड़-दौड़कर माँ, पिताजी और भाई-बहनों को यह दृश्य दिखाया।
जब पौधे बड़े हुए और उनमें ढेर सारे पीले-पीले गेंदे खिले, तो मैं अपने आप पर गर्वित हुआ, क्योंकि वह मेरा सृजन था। शाम को पूरा परिवार बगीचे के निकट बैठकर चाय पीता और गपशप चलती। तब मैं और भी खुश होता, क्योंकि मेरे कारण ही ऐसी जगह निर्मित हुई थी।
हजारों फूलों से जब मेरी बगिया भरी हुई थी, तब एक दिन एक माली मेरे पास आया। उसने कहा कि वह मुझे तीन रुपये प्रति पौधा देगा, यदि मैं उसे अपने फूल पूरे मौसम भर तोड़ लेने दूं। मुझे यह बात पसंद नहीं आई, मैंने तुरंत ही उसे मना कर दिया।
उसने मुझे समझाया कि फूल परिपक्व होने पर सूख जाएँगे, उनकी भी एक जीवन अवधि है। ऐसे में परिपक्व फूलों का यदि कोई और प्रयोग हो सके, तो वह किसी काम आ सकेगा और कुछ आमदनी भी देगा। इससे बगिया की देखरेख बेहतर तरीके से हो सकेगी।
माँ ने भी इससे सहमति जतायी। मैं अंततः तैयार हो गया। मेरी बगिया में 300 से अधिक पौधे थे। मुझे एक हजार रुपये मिले। माली रोज आता और केवल उन्हीं फूलों को ले जाता, जो परिपक्व हो जाते।
इस तरह पूरे मौसम बगिया में फूल भी रहे आये और मुझे आमदनी भी हो गई। इन्हीं रुपयों से मैंने अपनी किताबें भी खरीदीं और बाकी रुपयों से बगिया में सुधार किया। नये पौधे भी लगाये। अब तो बागवानी ही मेरी रुचि और मेरी आत्मनिर्भरता बन चुकी है।