Hindi Essay on “Swami Vivekanand ” , ”स्वामी विवेकानन्द” Complete Hindi Essay for Class 10, Class 12 and Graduation and other classes.
स्वामी विवेकानन्द
Swami Vivekanand
11 सितम्बर 1893 ई0, दिन सोमवार को अमेरिका के शिकागो शहर में आयोजित विश्व-धर्म सम्मेलन भारत के लिए चिरस्मरणीय है; क्योंकि इस महासम्मेलन में मात्र 29 वर्षीय गौर वर्ण, उन्नत ललाट और दिव्य मुखमण्डल वाले एक भारतीय संन्यासी ने ऐसी धूम मचायी कि उसके सामने अन्य सभी प्रतिनिधि धूमिल पड़ गये। इनके सम्बोधन- ’भाइयों एवं बहनों।’ से विश्व बन्धुत्व की अनुभूति पहली बार साकार हो उठी। सारी सभा ’स्वामीजी की जय’ से गूंज उठी। विश्व-विजय का सेहरा स्वतः स्वामीजी के माथे पर बंध गया। इसके बाद लोगों को कहना पड़ा-’’ भारत परतन्त्र अवश्य है, लेकिन अब भी आध्यात्मिक क्षेत्र में विश्वगुरू है’’
भारत के ऐसे विश्व विजयी भारत के लाल स्वामी विवेकानन्द का जन्म बंगाल प्रान्त के कोलकता महानगर में भुवनेश्वरी देवी की पुण्य कुक्षि से 12 जनवरी 1963 ई0 को हुआ था। इनके पिता का नाम विश्वनाथ दŸा था। इनके माता-पिता भी धर्मपरायण थे। प्रारम्भ से ही बालक ’नरेन्द्र’ ब्रह्य-खोजी थे। इसी क्रम में इनकी मुलाकात उस समय के जाने-माने ब्रह्यवेŸाा स्वामी रामकृष्ण परमहंस से हुई। स्वामी रामकृष्ण परमहंस ने इन्हें तराशकर स्वामी विवेकानन्द बना दिया। विवेकानन्द का अर्थ है-विवेकजनित आनन्द में सदा निमग्न रहने वाला व्यक्ति।
स्वामी विवेकानन्द का व्यक्तित्व बहुआयामी था। इनके व्यक्तित्व में अध्यात्म की सामुद्रिक गहराई, राष्ट्रीयता की हिमाद्रिक ऊंचाई और ब्रह्यचर्य की सौर प्रखरता थी। शिकागो के स्वामी विवेकानन्द में अध्यात्म की सामुद्रिक गहराई थी, तो भारत के विभिन्न स्थानों में नवयुवकों के जागरण हेतु दिये गये उनके व्याख्यान में सौर प्रखरता और राष्ट्रीयता की हिमाद्रिक ऊंचाई सन्निहित थी।
उनके व्याख्यानों में भारतीयों के लिए एक सन्देश होता था-’’ अगले पचास वर्षाें के लिए देश की सेवा से ही तुम्हारी साधना हो, राष्ट्र-देवता ही तुम्हारे एकमात्र आराध्य हों।’’ स्वामीजी के इस आह्नान का महान् फल हुआ। हम जागृत हुए और पचास वर्षाें के भीतर ही हमने अपनी परतन्त्रता की बेड़ियां काट डालीं। महासमाधि के समय भारत के लिए उनके श्रीमुख से जो उद्गार निकले, वे राष्ट्रीयता की भावना से ओत-प्रोत थे। उनके उद्गार थे-’’ अपने देशवासियांे की आत्मा को जगाने में मुझे सैकडो़ं बार जन्म-मृत्यु की दुःसह यातना सहनी पड़े, तो मैं पीछे नहीं हटुंगा।’’
विवेकानन्द ने प्राच्य और पाश्चात्य संस्कृति के बीच सेतु का कार्य किया। पश्चिम के समुन्नत विज्ञान को वे भारत लाये और भारत की आध्यात्मिक समर्पित को ढोकर पश्चिम ले जाते थे। यही कारण था कि भौतिकता में आकण्ठ निमग्न पश्चिमी देशों में किये गये उनके व्याख्यानों में अध्यात्मक की प्रमुखता होती थी, तो सुषुप्त भारत के व्याख्यानों में नवजागरण का शंखनाद होता था। एक भारतीय व्याख्यान में उन्होंने कहा था-’’भारतीय युवाओं! कुछ दिनों के लिए गीता पढ़ना छोड़ फुटबाॅल खेलो; क्योंकि आज भारत को लोहे के पुट्ठे और फौलाद के स्नायु की आवश्यकता है। हम लोग बहुत दिन सो चुके, अब सोने की आवश्यकता नहीं।’’
स्वामी विवेकानन्दजी की जीवन-यात्रा बिन्दु से प्रारम्भ होकर सिन्धु बन गया। प्रारम्भ में वह सद्गुरू रामकृष्ण परमहंस से आतुर होकर सिर्फ अपने मोक्ष का मार्ग पूछते थे। यह उनकी बिन्दु-यात्रा थी। 11 जनवरी 1885 ई0 को शिकागो के एक मित्र के पत्र में स्वामीजी ने लिखा था- ’’मैं मृत्युपर्यन्त लोगों की भलाई के लिए निरन्तर कार्य करता रहूंगा।’’ यह विवेकानन्द की सिन्धु-यात्रा थी। इसीलिए स्वामीजी केवल बंगाल और भारतवर्ष के नहीं थे, बल्कि समग्र जगत् के थे।
4 जुलाई 1902 ई0 को शुक्रवार की रात 9 बजकर 10 मिनट पर स्वामीजी ने इस नश्वर शरीर को तो महासमाधि में विलीन कर दिया, लेकिन वे जगत् के लिए कुछ शाश्वत सन्देश भी छोड़ गये। वे हैं-वेदान्त का सन्देश, विश्व-बन्धुत्व का सन्देश और पीड़ित मानवता की सेवा द्वारा ईश्वर-नाम का सन्देश। इन सन्देशों से युगों-युगों तक मानवता आलोकित होती रहेगी।