Hindi Essay on “Manushya wahi hai jo Manushya ke liye Mare” , ”मनुष्य वही है जो मनुष्य के लिए मरे” Complete Hindi Essay for Class 10, Class 12 and Graduation and other classes.
मनुष्य वही है जो मनुष्य के लिए मरे
Manushya wahi hai jo Manushya ke liye Mare
निबंध संख्या:- 01
मानव एक सामाजिक प्राणी है। वास्तव में मानवों के संगठन का ही नाम समाज है। आपस में संगठित होने के कारण मानवों में परस्पर सम्बन्ध एवं सम्पर्क भी है। यह पारस्परिक सहयोग एवं प्रेम की धारणा परोपकार के अन्तर्गत मानी जाती है। इस काव्योक्ति का तात्पर्य है कि जो मानव दूसरों के उपकार के लिए तत्पर होता है और उसी के लिए शरीर धारण करता है, वही वास्तव में सच्चा मानव है। परोपकार का अर्थ है दूसरों का भलाई। इसमें बदले की भावना नहीं होती है। वास्तव में परोपकारी स्वतः अपनी किसी चीज का उपभोग न कर दूसरों को ही अपना उपभोग कराते हैं, सत्य ही तो है:
वृक्ष कबहु नहिं फल भई नदी न संचै नीर।
परमारथ के कारने, साधुन धरा शरीर।।
वास्तव में सच्चा मानव वही है जो जन कल्याणार्थ अपने प्राणों का बलिदान कर दे। इसी के साथ प्रत्येक मानव को कर्तव्यपरायण होना चाहिए तथा हमारा उद्देश्य जियो जीने दो’ का होना चाहिये। हमारा लक्ष्य मिल जुल कर आपस में आधी बाँट कर खाने का होना चाहिए। इस जगत् के सम्पूर्ण प्राणियों में मानव सर्वश्रेष्ठ एवं बुद्धि प्रधान है जिस पृथ्वी पर हमने जन्म लिया उस पृथ्वी एवं ज्ञान दाता समाज के प्रति हमारा भी कुछ कर्तव्य है कि हम उसके उपकारों को सत्कर्मों से निभाने का प्रयास करें। जड पदार्थ तक अपने जीवन को कष्ट में डालकर दूसरों का हित सम्पादन करते हैं। चन्दन स्वयं घिसकर दूसरों को ठण्डक व सुगन्ध प्रदान करता है। वृक्ष पत्थरों के प्रहारों को सहकर भी फल और छाया देते हैं। ‘ईख’ कुचले या चबाये जाने पर भी मीठा रस प्रदान करती है। दीपक स्वयं जलकर अपने तले के अन्धकार की चिन्ता न कर सबको समान प्रकाश देता है। जहाँ जड़-जगत् की यह स्थिति है, तो फिर जंगम-जगत इसकी उपेक्षा कैसे कर सकता है?
प्राचीन काल के ऋषि-मुनियों से लेकर आज तक अनेक मानव हित पर मरने वाले परोपकारी प्राणी हुए हैं। महान् ऋषि दधीचि के विषय में कौन नहीं जानत जिन्होंने जीते जी परहितार्थ स्व-अस्थिदान दे दिया था। राजा शिवि की गाथा भी अमर है जिन्होंने एक पक्षी की रक्षा के लिए अपना माँस ही क्या अपितु सम्पूर्ण शरीर को दान में दे दिया था। इन दोनों के समान ही राजा रन्ति देव जो कि करोड़ों गाय नित्य प्रति दान कर पुण्य करते थे, का दृष्टान्त कम महत्त्वपूर्ण नहीं है। इनके प्राण क्षुधा के कारण सकट में थे ही, फिर भी सम्मुख आया हुआ भोजन भिखारियों को दे दिया और अन्त मवरदान रूप मे भी ‘परोपकार करते रहने की कामना सम्पूर्ण अभिव्यक्त की। सत्यवादी हारश्चन्द्र ने तो लोकहित के लिए स्त्री-पत्र तक को बेच दिया था। महात्मा बुद्ध ने तो शिकारी को उपदेश देकर मनुष्य मात्र की क्या अपितु प्राणि-मात्र का कल्याण कराया। समा मानवहित पर मरने वाले महान् पुरुष इसी देश में हुए। आज के युग में विश्ववन्द्य महामना मदनमोहन मालवीय, शान्तिदत जवाहरलाल, क्रान्तिकारी नेता सुभाषचन्द्र बोस, जननायक लाल बहादुर शास्त्री आदि ऐसे महान् पुरुष हुए जिन्होंने अपनी सम्पूर्ण सुख-सुविधाएँ त्याग कर जनहित किया।
मानवमात्र के कल्याण एवं स्वाभिमान की भावना से ही स्वतन्त्र संग्राम के सेनानियों शहादों ने अपना सर्वस्व बलिदान कर दिया। जो मानव दूसरों के लिए बलिदान करने चार रहते हैं, उनके लिए भी बलिदान करने वाले मिल जाते हैं। ऐसे मानवों के कार्यों की एक श्रृंखला बन जाती है, जिससे दूसरे प्रभावित होकर एक अच्छे वातावरण को जन्म देते है। सभी न्याय का अवलम्ब लेते हैं। मानवमात्र के अन्तर्गत एक ही परम तत्त्व परमात्मा का वास है। आपस में हम हिन्दू, सिक्ख, ईसाई जो भी हों, इस धारणा को धारण करने वाले मानव सर्वदा स्वयं का स्वार्थ त्याग कर परहित सम्पादन करते है। जिससे उनका तथा समाज का कल्याण होता है।
आज हम देख रहे हैं कि समाज के सभी लोग बिना कर्त्तव्य किए फल की कामना कर रहे हैं। आज व्यापारी बैठे-बैठे खाना चाहता है, क्लर्क बिना कलम चलाए धन चाहता है, विद्यार्थी बिना परीक्षा दिए पास होना चाहता है। आज संसार दलीय भावनाओं का शिकार हो रहा है। ऐसी स्थिति में हमें आज पतित समाज के सम्मुख विश्व-बन्धुत्व से ओत-प्रोत गुप्तजी की यह उक्ति हृदय में धारण करनी होगी:
‘मनुष्य है वही कि जो मनुष्य के लिए मरे ।’
निबंध संख्या:- 02
मनुष्य है वही कि जो मनुष्य के लिए मरे
- मानव धर्म
- जीवन की सार्थकता
- परोपकार एक ईश्वर पूजा
मनुष्य होने के नाते हमारा कर्तव्य है कि हम यथासंभव मनुष्य की भलाई के लिए कार्य करते रहें। भारतीय संस्कृति का मूलाधार मानवमात्र की सेवा है। तुलसीदास जी के मतानुसार दूसरों का हित-संपादन करने के समान संसार में दूसरा कोई धर्म नहीं है। समूचा मानव समाज एक परिवार के समान है। इसमें जहाँ किसी को किसी दूसरे की सहायता की आवश्यकता हो वहाँ उसकी सहायता करना हम सबका मानव धर्म है। मानव शरीर बड़ा दुर्लभ है। सच्चा सुख प्राप्त करने के लिए हमें मनुष्य मात्र की सेवा करनी चाहिए। मनुष्य को मनुष्य की सेवा शुद्ध सेवा भाव से करनी चाहिए। पशु और मनुष्य में यदि कोई अंतर है तो यह कि पशु परहित की भावना से शून्य होता है। मानव जीवन की सार्थकता इसी में है कि हम मानव मात्र के सुख के लिए अपना सर्वस्व समर्पित कर दें। मानव सेवा ही सच्ची ईश्वर भक्ति है। यदि मनुष्य-मनुष्य की सहायता नहीं करता तो उसमें तथा दीवार पर खींचे चित्र में कोई भेद नहीं है। मनुष्य अपना सर्वस्व मनुष्य के कल्याण हेतु समर्पित कर दे, इसी में उसका मनुष्यत्व निहित है।