Desh Prem Diwas – 23 January “देश-प्रेम दिवस-23 जनवरी” Hindi Nibandh, Essay for Class 9, 10 and 12 Students.
देश-प्रेम दिवस-23 जनवरी
Desh Prem Diwas – 23 January
नेताजी सुभाषचन्द्र बोस का जन्म दिवस
Netaji Subhashchandra Bose ka Janam diwas
नेताजी सुभाषचन्द्र बोस का जीवन देश प्रेम से ओत-प्रोत था, इसीलिए इनके जन्म दिन को हमारे देश में “देश-प्रेम दिवस” के रूप में मनाया जाता है।
सुभाषचन्द्र बोस का जीवन परिचय
नेताजी सुभाषचन्द्र बोस जैसे महान् देशभक्त को जनवरी, 1992 में भारत के सर्वोच्च सम्मान ‘भारतरत्न’ से सम्मानित करने की घोषणा की गई। यद्यपि यह घोषणा काफी विलम्ब से की गई, फिर भी भारतमाता के इस सपूत का सम्मान करना सर्वथा उचित ही है। इनकी जीवनी आत्म-उत्सर्ग की एक ऐसी कहानी है जो निर्जीव एवं हतोत्साहित व्यक्तियों के हृदयों में भी स्फूर्ति, आशा और प्राणों का संचार कर सकती है। देश की स्वाधीनता के संग्राम में इन्होंने अपने जीवन को समग्र रूप से न्यौछावर कर दिया था।
नेताजी सुभाष के पूर्वज पं. बंगाल के चौबीस परगना जिले के केदालिया गाँव के निवासी थे, आपका जन्म 23 जनवरी, 1897 को कटक में हुआ था। पिता कटक में सरकारी वकील थे। कटक में ही सुभाष बाबू की प्रारम्भिक शिक्षा-दीक्षा हुई। 1913 में आप मिशनरी स्कूल से मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण कर चुके थे। इसमें आप प्रान्त भर में द्वितीय रहे थे। इसके बाद सुभाष बाबू कोलकाता के प्रेसीडेन्सी कॉलेज में भर्ती हुए। 1915 में आप प्रथम श्रेणी में एफ.ए. उत्तीर्ण हुए। बी.ए. में आपने दर्शनशास्त्र लिया। स्वभावतः एक गम्भीरता आपके व्यक्तित्व में आ गई। ऐसे प्रतिभाशाली सहपाठी का सभी छात्र आदर किया करते थे। सुभाष बाबू की नेतृत्व एवं संगठन शक्ति यहाँ विकसित हो रही थी। एक मित्र के अपमान के प्रतिकार में आप प्रोफेसर सी.एफ. ओटन से भिड़ गए। उक्त प्रोफेसर पर हमला करने के अपराध में आप कॉलेज से निकाल दिए गए। बाद में आप स्कॉटिश चर्च कॉलेज में प्रविष्ट हो गए और वहीं से आपने 1919 में दर्शन में प्रथम श्रेणी में बी.ए. उत्तीर्ण किया। इसके बाद कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय से भी आपने बी.ए. किया।
सुभाष बाबू के पिता राजभक्त व्यक्ति थे। उन्होंने काफी आशाओं के साथ सुभाष बाबू को आई.सी.एस. के लिए भेजा था। 1920 में आई.सी.एस. परीक्षा में चौथे स्थान पर आकर उन्होंने सभी को अचम्भित कर दिया, लेकिन देश की राजनीति में जो उथल- पुथल मची थी और देश के वातावरण में जो देशभक्ति की आँधी चल रही थी, उससे प्रेरित होकर सुभाष बाबू भी राजद्रोही हो गए और आई.सी.एस. की नौकरी छोड़ दी । त्यागपत्र देकर आप देशबन्धु की सेना में स्वयंसेवक बन गए। फिर राष्ट्रीय विद्यापीठ में आचार्य और कांग्रेस स्वयंसेवक दल के कप्तान बनाए गए। प्रिन्स ऑफ वेल्स के स्वागत के बहिष्कार के सम्बन्ध में सुभाष बाबू को प्रथम बार गिरफ्तार करके 6 माह की सजा दी गई।
1922 में उत्तर बंगाल के बाढ़ पीड़ितों की अद्भुत सहायता करके इन्होंने अपने कौशल का परिचय दिया। आप स्वराज पार्टी के प्रमुख पत्र ‘फारवर्ड’ के सम्पादक बनाए गए। 1924 में देशबन्धु चितरंजनदास जब कोलकाता के मेयर बने, तब आपको ‘चीफ एक्जीक्यूटिव ऑफिसर’ बनाया गया।
उसी वर्ष आपको बंगाल-आर्डिनेंस के अन्तर्गत गिरफ्तार कर लिया गया। तीन वर्ष के इस जेल प्रवास में क्षय रोग हो जाने के कारण सुभाष बाबू का स्वास्थ्य अत्यधिक गिर गया। सरकार उनके जीवन के साथ कुछ अपमानजनक शर्तों का खेल खेलना चाहती थी, पर सुभाष जैसे स्वाभिमानी देशभक्त के लिए यह असहनीय था। अन्त में हठी सुभाष के आगे उसे घुटने टेकने पड़े। 15 मई, 1927 को आप कोलकाता लाकर रिहा कर दिए गए। अपने जेल प्रवास में ही वह प्रान्तीय धारासभा के सदस्य चुन लिए गए थे। 1928 की कोलकाता कांग्रेस में पंडित नेहरू के जुलूस में चलने वाले स्वयंसेवक दल के सेनानी सुभाषचन्द्र बोस की कीर्ति-कौमुदी दिग्दिगन्त को सुरभित कर उठी। सुभाष बाबू देश के नेताओं के सम्पर्क में आ गए। बाद में पं० नेहरू द्वारा बनाई गई ‘इन्डिपेंडेंस लीग’ के प्रचार में आपने पं० नेहरू को खूब सहयोग दिया।
लाहौर कांग्रेस में पूर्ण स्वराज को कांग्रेस ने अपना ध्येय स्वीकृत कर लिया था। इसी बीच सुभाष बाबू कोलकाता के मेयर बन चुके थे। आपके नेतृत्व में कोलकाता में भी जुलूस निकला। पुलिस ने जुलूस पर लाठी-चार्ज किया। सुभाष बाबू साथियों सहित बन्दी बना लिए गए। आपको एक वर्ष की सजा दी गई। देश में पुनः आंदोलन प्रारम्भ हो चुका था। चारों ओर कानून तोड़े जा रहे थे। सरकार बौखलाई हुई थी। जेल में सुभाष बाबू को यातनाएँ सहन करनी पड़ीं। पुनः आप रुग्ण हो गए। पुराना क्षय रोग पुनः खड़ा हो गया। सरकार की इस शर्त पर कि वह रिहा होते ही सीधे यूरोप चले जाएँ, वह तुरन्त रिहा होते ही अपने सम्बन्धियों से मिले बिना ही वायुयान द्वारा स्विट्जरलैण्ड चले गए।
यह विदेश प्रवास दूसरे रूप में सुभाष बाबू का देश से निर्वासन ही था। यह उस समय और भी स्पष्ट हो गया, जब तीन वर्ष बाद पिता की मृत्यु पर सुभाष बाबू भारत आए तो पुलिस द्वारा घेर लिए गए। बड़ी कठिनाई से सुभाष बाबू एक महीने ही घर पर रह सके। इस एक माह के समय में आपने किसी भी राजनीतिक चर्चा में भाग भी नहीं लिया। इस प्रकार सरकार को दिए गए वचन का पालन करके वह पुनः यूरोप लौट गए। इस विदेश यात्रा में वह डी. वेलेरा एवं मुसोलिनी से मिले। कुछ समय बाद वह विदेश प्रवास से ऊब गए और निश्चय कर लिया कि अब वे विदेश में न रहेंगे। भारत सरकार का कथन था कि यदि भारत में रहना है तो जेलों में रहो। अन्त में आप स्वदेश के लिए ही चल पड़े। कांग्रेस ने भी एक प्रस्ताव द्वारा सरकार से अनुरोध किया कि सुभाष बाबू को मुक्त कर दे, परन्तु सरकार न मानी, मुम्बई उतरते ही उनको बन्दी बना लिया गया।
देश में विक्षोभ फैला। 10 मई, 1936 को ‘सुभाष दिवस’ मनाया गया, पर सरकार इससे विचलित न हुई। उधर जेल जाते ही सुभाष बाबू की दशा पुनः बिगड़ गई। में फिर उन्हें छोड़ दिया गया। सारे देश में प्रसन्नता के बादल छा गए।
अब रचनात्मक कार्यक्रम का समय आ गया था। कांग्रेस ने काउंसिल प्रवेश स्वीकृत कर लिया था। प्रान्तों में मंत्रिमंडल बन रहे थे। सुभाष बाबू को इन कार्यक्रमों में कोई रुचि नहीं थी। दूसरी ओर आपका स्वास्थ्य भी ठीक नहीं था। स्वास्थ्य सुधार हेतु उन्हें पुनः दो-ढाई महीने के लिए विदेश जाना पड़ा। यूरोप में ही आपने ब्रिटिश सरकार की साम्राज्यवादी नीति का भंडाफोड़ किया। 1938 में कांग्रेस के हरिपुरा अधिवेशन में वह कांग्रेस के अध्यक्ष चुन लिए गए। उस समय कांग्रेस के अध्यक्ष का पद सबसे बड़ा सम्मान था, जो भारतीय जनता अपने सर्वप्रिय नेता को दे सकती थी।
अध्यक्ष बनने के समय सुभाष बाबू की आयु मात्र 41 वर्ष ही थी। 1935 में संघ शासन को हरिपुरा अधिवेशन में बिल्कुल अव्यावहारिक बता दिया गया। सुभाष बाबू व्यक्तिगत रूप से भी इस संघ शासन के कट्टर विरोधी थे। इसी भय से कि कहीं दक्षिणपंथी संघ शासन की व्यवस्था स्वीकार न कर लें, अगले वर्ष आपने कांग्रेस के इतिहास में पहली बार नामजद सदस्य के विरुद्ध अध्यक्ष पद का चुनाव लड़ा और विजयी हुए। यह संघर्ष बड़ा उग्र था। कहा जाता है कि पट्टाभिसीतारमैया की पराजय पर स्वयं महात्मा गाँधी ने कहा था कि वह उनकी हार हुई।
सुभाष बाबू के अध्यक्ष निर्वाचित हो जाने के पश्चात् भी दक्षिणपंथी काँग्रेसियों ने उनसे खुलकर असहयोग किया। सुभाष बाबू को इससे मर्मान्तक पीड़ा हुई। अंत में जब समझौते की कोई सूरत न दिखाई पड़ी, तो उन्होंने त्यागपत्र दे दिया। उनके स्थान पर राजेन्द्र बाबू अध्यक्ष बनाए गए।
इस प्रकार अलग होकर सुभाष बाबू ने कांग्रेस के भीतर ही एक ‘अग्रगामी दल’ (Forward Block) की स्थापना की, इस दल का प्रमुख उद्देश्य कांग्रेस की वैधानिकता की भावना को तिलांजलि देना था। सुभाष बाबू कांग्रेस की दक्षिणपंथी नीति से सदैव असंतुष्ट रहते थे। अग्रगामी दल की स्थापना सुभाष बाबू की पराजय का प्रतिफल नहीं था। वह अपने संगठन को सदैव वामपंथीय रखना चाहते थे।
अगला कांग्रेस अधिवेशन रामगढ़ में हुआ। सुभाष बाबू ने ‘समझौता-विरोधी सम्मेलन’ का आयोजन किया, जो अपूर्व ही रहा। इस सम्मेलन में दिए गए सुभाष बाबू के व्याख्यान से कांग्रेस के दक्षिणपंथीय नेता और भी असन्तुष्ट हो गए और सुभाष बाबू पर यह दोष लगाकर कि उन्होंने कांग्रेस के विरोध में एक नया दल खड़ा किया है, उनको कांग्रेस की सदस्यता से भी वंचित कर दिया गया। यहाँ तक कि बंगाल प्रान्तीय कांग्रेस कमेटी को भी कांग्रेस से निर्वासित कर दिया गया।
तब तक युद्ध के काले बादल घिर चुके थे। कांग्रेसी मंत्रिमंडलों ने त्यागपत्र दे दिये थे, महात्मा गाँधी व्यक्तिगत सत्याग्रह प्रारम्भ करने की धुन में थे। उसी समय सुभाष बाबू ने बंगाली जनता को हालवेल-स्मारक (कालकोठरी) को हटा देने एवं सामूहिक आन्दोलन प्रारम्भ करने के लिए आदेश दिया। सरकार सुभाष बाबू के संकेत पर ही बंगाल में उठते हुए तूफानों को देखकर भयभीत हो गई और उसने सुभाष बाबू को जेल में डाल दिया। ऐसे अवसर पर सुभाष बाबू जेल में नहीं सड़ना चाहते थे। उन्होंने अनशन प्रारम्भ कर दिया। अन्त में सरकार ने एक महीने के लिए सुभाष बाबू को छोड़ दिया, परन्तु उनके घर पर कड़ा पहरा लगा दिया, फिर भी वह भाग निकलने में सफल हुए। 26 जनवरी, 1941 को उनके गृह-कैद से भागने की बात सबको पता चली। दाढ़ी बड़ी करके सुभाष बाबू कभी बस और कभी रेल द्वारा यात्रा करते हुए पेशावर पहुँच गए। दाढ़ी ने पुलिस की आँखों में खूब धूल झोंकी और पठान जियाउद्दीन के वेश में उन्होंने एक काफिले के साथ सीमा पार की और काबुल पहुँच गए। वहाँ गुप्तचरों ने उन्हें परेशान किया। जर्मनी जाने के लिए पासपोर्ट उन्हें नहीं मिल रहा था। अन्त में एक व्यक्ति के पासपोर्ट का उपयोग करके आप जर्मनी पहुँच ही गए।
बर्लिन में सुभाष बाबू जर्मन सरकार के मान्य अतिथि बने, बर्लिन और रोम रेडियो से आए दिन आपके व्याख्यान आने लगे। हिटलर ने भी सुभाष बाबू का यथेष्ट सम्मान किया। वह मुसोलिनी एवं उसके दामाद काउण्ट सियानो से भी मिले। 27 मई, 1942 को हिटलर ने उनसे मुलाकात की व दक्षिण-पूर्वी एशिया जाने की उनकी योजना को समर्थन व सहयोग भी दिया।
जून 1943 में सुभाष बाबू टोकियो आ गए थे। 2 जुलाई को आप सिंगापुर पधारे। 4 जुलाई को रासबिहारी बोस ने सविधि उन्हें ‘आजाद हिन्द फौज’ का सेनापति बना दिया। इसके बाद सारे विश्व ने सुभाष बाबू की संगठन शक्ति का दाँतों तले अंगुली दबाकर अनुभव किया।
आजाद हिन्द फौज के सैनिक भारत की आजादी का सन्देश लेकर आगे बढ़ने लगे। वातावरण और साधन अनुकूल होने के कारण शीघ्र ही समग्र योजनाएँ फलीभूत होने लगीं। आजाद हिन्द फौज का संगठन और कार्यक्रम बड़े-बड़े युद्ध विशारदों को भी विस्मय में डालने वाला था। सुभाष ब्रिगेड, गाँधी ब्रिगेड, नेहरू ब्रिगेड और आजाद ब्रिगेट-इस प्रकार से चार ब्रिगेडों में सेना का वितरण किया गया था। कैप्टन लक्ष्मी की देख-रेख में महिलाओं की अलग ‘झाँसी रानी रेजीमेण्ट’ थी। बच्चों की अलग टुकड़ी थी। कहा जाता है कि बच्चों का यह दल भी अत्यन्त उपयोगी सिद्ध हुआ था।
21 अक्टूबर, 1943 को अन्ततः सुभाषचन्द्र बोस ने सिंगापुर में आजाद भारत की अस्थाई सरकार की घोषणा कर दी। जापान, जर्मनी, इटली, चीन आदि विभिन्न सरकारों ने आजाद हिन्द सरकार की स्वतंत्र सत्ता को एकमत से स्वीकार कर लिया था। इस सरकार का केन्द्र पहले सिंगापुर बनाया गया, बाद में बर्मा में रंगून को ही अस्थाई सरकार की राजधानी और प्रधान कार्यालय बनाया गया। इसी बीच अण्डमान-निकोबार द्वीप भी स्वतंत्र किए जा चुके थे और उनके नाम क्रमशः ‘शहीद’ और ‘स्वराज’ द्वीप रखे जा चुके थे। अनुशासित एवं व्यवस्थापूर्ण ढंग से आजाद हिन्द सरकार का कार्य चलने लगा।
सुभाष बाबू स्वयं भाषणों द्वारा धन एकत्र करते थे। उपहार में आई हुई चीजों की नीलामी द्वारा भी अच्छी-खासी रकम एकत्र की जाती थी। अन्त में रंगून के एक करोड़पति की सहायता से ‘आजाद हिन्द बैंक’ की स्थापना हो गई। आजाद हिन्द फौज के सैनिक आजादी के लिए लड़ते थे, पैसे के लिए नहीं।
राष्ट्रीय अभिवादन (जयहिन्द), राष्ट्रीय मुहर, राष्ट्रीय चिह्न (टीपू सुल्तान का शेर), राष्ट्रीय बैज, राष्ट्रीय गीत (शुभ सुख चैन की बरसा) और न जाने कितनी राष्ट्रीय आवश्यकताओं की पूर्ति आजाद हिन्द फौज में सर्वथा भारतीय रीति से की गई। साम्प्रदायिक एकता का जो आदर्श आजाद हिन्द फौज ने उपस्थित किया, वह सर्वथा स्मरणीय, स्पृहणीय एवं अनुकरणीय ही है।
आजाद हिन्द फौज ने नेताजी सुभाष के अनेक ऐसे गुणों पर भी प्रकाश डाला है, जो अब तक छिपे ही रहे थे। उनकी संगठन शक्ति का ऐसा विस्तृत परिचय पहले कभी नहीं मिला था। उनके 18-18 घंटे निरन्तर काम करने की क्षमता का ज्ञान भी सबको न हो पाया था। सच तो यह है कि यदि सुभाष को आजाद हिन्द फौज का नेतृत्व करने का अवसर प्राप्त न होता तो उनका व्यक्तित्व अविकसित ही रह जाता।
सुभाष द्वारा लगाई गई ‘दिल्ली चलो’ की आवाज ने सिपाहियों पर जादू का सा असर किया था। 18 मार्च, 1944 का वह दिन भारत के इतिहास में स्वर्णाक्षरों में लिखा जाएगा, जब आजाद हिन्द की सेनाएं कोहिमा और मणिपुर के युद्ध में जी-जान से जुट पड़ी थीं। दो महीने में ही उनका आक्रमण इतना उग्र हो गया कि अंग्रेजी सेना को पीछे हटना पड़ा, परन्तु साधनों और विशेषतः वायुसेना के अभाव में सैनिकों को पीछे हटने के लिए विवश होना पड़ा। पुनः पूरी तैयारी के साथ दूसरा आक्रमण किया गया। क्षणिक सफलताएँ भी मिलीं, परन्तु अन्त में ब्रिटिश सरकार के विशाल साधनों के आगे यह मुट्ठी भर साधनहीन सेना कब तक जमी रह सकती थी? सुभाष बाबू को रंगून छोड़ देना पड़ा। 19 मई, 1945 को अंग्रेजों ने रंगून पर पुनः अधिकार जमा लिया।
आजाद हिन्द फौज की शक्ति अब दिन-प्रतिदिन कम होती गई, परन्तु वह जापानियों के आत्मसमर्पण तक कार्य करती रही। 14 अगस्त, 1945 को नेताजी टोकियो के लिए रवाना हो गए। इस प्रकार आजाद हिन्द फौज का काम एक प्रकार से समाप्त हो गया, परन्तु उसका नाम युर्गो तक अमर रहेगा। पीठ पर सामान बाँधकर और जमीन पर लेटकर ब्रिटिश टैंकों को उड़ाने वाले बाल सैनिकों, भूखे पेट अथवा पत्ते खाकर छापा मारने वाले एवं गुलामी के घी से आजादी की घास को श्रेष्ठ समझने वाले सैनिकों एवं सोलह-सोलह घंटे तक युद्ध करके ब्रिटिश सेना के छक्के छुड़ा देने वाली झाँसी रेजीमेन्ट की सैनिकाओं को युग-युग तक इतिहास के पृष्ठों पर याद किया जाएगा।
टोकियो से 23 अगस्त, 1945 को यह समाचार सुनकर कि सुभाष बाबू 18 अगस्त को वायुयान दुर्घटना में बुरी तरह घायल हुए और उसी रात इस संसार से चले बसे, दुनिया अवाक् रह गई। कुछ लोग आज भी इस बात पर विश्वास नहीं करते कि वायुयान दुर्घटना में वास्तव में उनकी मृत्यु हुई। सच चाहे कुछ भी हो, किन्तु यह निर्विवाद है कि सुभाष बाबू युग-युग के लिए अमर हो गए।