Sahitya aur Vigyan “साहित्य और विज्ञान” Hindi Essay, Paragraph in 700 Words for Class 10, 12 and competitive Examination.
साहित्य और विज्ञान
Sahitya aur Vigyan
सामान्य रूप से देखने पर साहित्य और विज्ञान दोनों के कार्य क्षेत्र अलग-अलग प्रतीत होते हैं, किन्तु सत्य यह है कि ये दोनों अपने मूल उद्देश्य की दृष्टि से मानव-समाज की सेवा में लगे हुए हैं। अपने मूल रूप में साहित्य एक ललित कला और विज्ञान को उपयोगी कला के अन्तर्गत रखा जा सकता है। दोनों का रचनात्मक उद्देश्य मानव-जीवन और समाज का उत्कर्ष करना है। दोनों की प्रक्रिया में एक स्पष्ट अन्तर है। वह अन्तर इस कारण से है कि विज्ञान की पहुँच केवल स्थूल तक है अभौतिक अथवा सूक्ष्म अनुभव की जा सकने वाली वस्तु है।
साहित्य का सीधा सम्बन्ध भावों और विचारों से रहा करता है। उसका वर्ण्य विषय भी वही तत्त्व और तथ्य बना करते हैं कि जो भावना और विचार क्षेत्र में आते हैं। इसके विपरीत विज्ञान उन्हीं विषयों, बातों और तथ्यों को अपनी धारणा, विचार और प्रक्रिया का अंग बनाया करता या बना सकता है कि जिन्हें नापा-तौला या छुआ भी जा सकता है। दूसरे शब्दों में, साहित्य का वर्ण्य विषय मूर्त-अमूर्त, दृश्य-अदृश्य सभी कुछ बन सकता है जबकि विज्ञान का आधार केवल दृश्य एवं तथ्य ही रहा करते हैं। यों तो साहित्य और साहित्यकार और अनुभूति पर आधारित हुआ करता है। कल्पना का आश्रय लेकर ही सजा-संवार कर उसे आक्षरिक शाब्दिक स्वरूपाकार प्रदान किया जाता है। इसके विपरीत विज्ञान पूर्णतया परीक्षणों पर ही आधारित रहा करता है उसमें किसी प्रकार की कल्पना और अलंकार के लिए कतई कोई स्थान नहीं रहा करता । परीक्षण से प्राप्त भौतिक तत्त्व और तथ्य ही विज्ञान के आविष्कारों का आधार बना करता है। उधर साहित्य में साहित्यकार का इच्छित और कल्पित सत्य भी महत्त्वपूर्ण माना जाता है।
साहित्य में भावना के साथ-साथ जीवन के यथार्थ के लिए भी उचित स्थान रहा करता है। जबकि विज्ञान में सभी कुछ पूर्ण यथार्थ ही रहा करता है। साहित्य में इतनी क्षमता रहती है कि वह भावना और कल्पना का पुट देकर विज्ञान को भी अपना वर्ण्य विषय बना सके, जबकि विज्ञान साहित्य को अपना वर्ण्य विषय प्रायः नहीं ही बना सकता। यदि विज्ञान भी ऐसा कर सकने में कभी समर्थ हो जाए, तो निश्चय ही वह दिन मानव जाति और समाज के लिए बड़ा ही शुभ माना जाएगा। तब कहा जा सकेगा कि आज हृदय और मस्तिष्क मिलकर एक हो गए हैं। इस तरह, मानवता का कल्याण-ही-कल्याण है।
आधुनिक विज्ञान ने साहित्य और साहित्यकार का उपकार भी कम नहीं किया है। साहित्य को सन्तुलित वैज्ञानिक दृष्टि प्रदान की है, ताकि वह हर बात को सही एवं उचित मानवीय परिप्रक्ष्यों में निहार कर, उनका वर्णन कर, जीवन-समाज को भी नवीन एवं आधुनिक दृष्टि दे सके। यह विज्ञान का ही प्रभाव है कि आज कोरी कल्पनाओं का भटकाव न रहकर जीवन के यथार्थ का अधिकाधिक समावेश हो गया है। कल्पना और भावना को एक सन्तुलन मिल सका है। यह सन्तुलन साहित्य के कलापक्ष यानी भाषा-शैली को भी विज्ञान की कृपा से ही दिखाई देने लगा है। आज का साहित्य जीवन में हर प्रश्न एवं समस्या का उत्तर तथा समाधान खोजने की दिशा में सहज वैज्ञानिक दृष्टि अपनाकर ही अग्रसर हो रहा है। फलतः ये अन्य रूढ़ियाँ और परम्पराएँ, कवि-उक्तियां भी आज साहित्य से बहिष्कृत हो गई हैं कि जिन्हें जीवन-पथ का गत्यावरोधक माना गया है। यदि उनका वर्णन भी होता है तो उन पर चोट कर उन्हें तोड़कर बिखेर देने के लिए होता, न कि अपनाने की प्रेरणा देने के लिए।
इस प्रकार कहा जा सकता है कि आज साहित्य की जीवन-दृष्टि विज्ञानमय हो गई है। परन्तु खेद के साथ कहना और स्वीकार करना पड़ता है कि विज्ञान अपनी जीवन-दृष्टि को साहित्यमय नहीं कर सकता। तभी तो आज मानव-जीवन हृदयहीन बनकर केवल बौद्धिक उहापोहों का जंजाल बनता जा रहा है। आपसी सम्बन्धों का भी औद्योगिकरण एवं यंत्रीकरण होकर रह गया है। कदम-कदम पर टूटना और निराशा से दो चार होना पड़ रहा है। काश! विज्ञान भी साहित्यिक जीवन-दृष्टि अपनाकर जीवन समाज के हार्दिक तत्त्वों की रक्षा कर पाता। यदि ऐसा संभव हो पाता, तो निश्चय ही सोने पर सुहागा होने की कहावत के साथ साक्षात्कार भी संभव हो जाता।