Home » Languages » Hindi (Sr. Secondary) » Nayi Veshvik Vyavastha aur Bharat “नई वैश्विक व्यवस्था और भारत” Complete Hindi Essay, Paragraph, Speech for Students.

Nayi Veshvik Vyavastha aur Bharat “नई वैश्विक व्यवस्था और भारत” Complete Hindi Essay, Paragraph, Speech for Students.

नई वैश्विक व्यवस्था और भारत

Nayi Veshvik Vyavastha aur Bharat

 

इस समय जबकि इराक आक्रमण के पश्चात हर तरह की वैश्विक व्यवस्था संकट में प्रतीयमान है और अमेरीका सभी विश्वव्यापी विरोधी पक्षों तथा राष्टों को कुचलने की नीति की ओर अग्रसर है, विश्व के प्रत्येक भागों के व्यक्तियों को एक सामंजस्यपूर्ण तथा प्रभावी वैश्विक व्यवस्था के बारे में अपने दृष्टिकोण पर पुनः विचार करना होगा एवं इसे पुनः व्यवस्थित करना होगा। लेकिन मौजूदा प्रणालियों तथा विचार में समायोजन नए विचारों तथा प्रणालियों के आविर्भाव के पूर्व ही डगमगा जाता है। केवल संघर्ष द्वारा ही नई सामाजिक व्यवस्थाएं अस्तित्व में आती हैं और पुरानी व्यवस्था नई व्यवस्था का मार्ग प्रशस्त करती है। इसे ही क्रान्ति के रूप में जाना जाता है और हाल की घटनाएं आने वाली बातों तथा ज्वालामुखी विस्फोट के पूर्व छोटी दरारों के प्रस्फुटन की ओर संकेत करती हैं और अत्यधिक क्षति होने के बावजूद एक नई शुरूआत होने की संभावना होती है। लेकिन हर नई व्यवस्था समय के साथ-साथ अप्रचलित हो जाती हैं

और उसमें बदलाव की अपेक्षा होती है। आज जो आदर्श वैश्विक व्यवस्था प्रतीत होती है वह कुछ दशकों के बाद ऐसी नहीं रह जाएगी। समाज में सतत परिवर्तन होता है और परिवर्तनों के जरिए ही यह अपने आपको संतुलित रखता है एवं नई पीढ़ियों की मांगों पर खरा उतरता है। इसी विचार के कारण मेरे दृष्टिकोण के द्वारा भविष्य में अत्यधिक व्याप्त होने का प्रयास किया जाता है जिससे कि लंबे अंतराल के पश्चात परिवर्तन अवश्यंभावी हो।

मेरा मत है कि कुछ दशकों के भीतर ऐसा समय आएगा जब संपूर्ण विश्व इतना अधिक एकरूप हो जाएगा कि स्थानीय पहचान बनाना अत्यधिक कठिन हो जाएगा। लोगों की किसी देश विशेष के नागरिक के रूप में पहचान होने की बजाय विश्व-नागरिक के रूप में पहचान होगी। वस्तुतः यह घटना हमारे बड़े शहरों में पहले ही धीमी, किन्तु निस्संदेह रूप से देखी जा रही है, क्षेत्रीय पहचानों की जगह राष्ट्रीय पहचानों द्वारा तथा राष्ट्रीय पहचानों की जगह वैश्विक पहचानों द्वारा ली जा रही है। एक समय ऐसा आएगा जब दो अथवा तीन पीढ़ी, अपनी उत्पत्ति के स्थान के सिवाय, तीन भिन्न-भिन्न देशों में अथवा कम से कम किसी भी बाहरी देश में होंगी और इन बातों को हमें उस समय ध्यान में रखना चाहिए जब हम मानव जीवन की कीमत पर मतभेदों तथा पहचानों को बनाए रखने के प्रयास में अपना समय बर्बाद करते हैं। मुझे विश्वास है कि हमारे प्रयास गलत दिशा की ओर अग्रसर हैं। आज से कुछ दशकों के बाद अमेरिका में उन बहुतेरे देशों के नागरिक रह रहे होंगें जिन्हें यह नष्ट करने पर आमादा है। उनके देश के विध्वंस के पश्चात राष्ट्र के मानवीय संसाधन दूसरे देश में बसने के लिए जी तोड़ प्रयास करेंगे और वे सीधे ही अमेरीका नामक संपन्न देश की ओर उन्मुख हो जाएंगें। शीर्ष स्थान पर अपने अकेले प्रभुत्व की स्थिति को बरकरार रखने तथा इसे और सुदृढ़ करने के प्रयास द्वारा यह स्वयं ही अपने लिए समस्याओं को न्यौता दे रहा है। इसे निश्चित रूप से सभी वांछित तेल भण्डार मिल जाएंगे। किन्तु साथ ही तेल भंडारों का इस्तेमाल करने वाले अनेक विदशी भी मिल जाएंगे। जब अभावग्रस्त लोग दूसरे देश में शरण लेंगे और उनके पास कहीं और प्रवास करने का विकल्प नहीं होगा तो कोई भी प्रवास संबंधी विधान कारगर नहीं होगा। इसके पश्चात केवल अनगिनत नरसंहार ही होंगे, किन्तु उनसे समस्या का समाधान नहीं होगा बल्कि वे केवल समय ही नष्ट करेंगें।

अमेरिका तथा सामान्यतया विश्व के लिए एक मात्र उपाय समग्र विकास को बढ़ावा देना है ताकि लोग निराशा तथा गृह युद्ध, संघर्षों तथा प्रवासों से दूर रहें। यदि मातृभूमि में ही रहन-सहन के लगभग समान स्तर सुलभ हों तो लोगों की विदेश जाने की संभावना क्षीण होगी। बहुत बड़ी संख्या में ऐसे लोग, जो अनगिनत और अकथनीय दुखों को झेलने के बाद अवैध रूप से दूसरे देश में बसने का प्रयत्न करते हैं उनके इस जोखिम भरे तथा दर्दनाक स्थानान्तरण को पूरी संभावना के साथ वर्जित कर दिया जाएगा। तथापि मुझे विश्वास है कि इससे भी इस प्रक्रिया में थोड़ा विलंब हो सकता है किन्तु अंततः हम एक मिश्रित मानव जाति के साथ मिलकर रहेंगे और यह एक अच्छी बात है। हमें अपने दृष्टिकोण को इसी सीमा तक विस्तृत करना चाहिए तथा इस परिवर्तन को संघर्ष पूर्ण बनाने की बजाए निर्बाध बनाना चाहिए।

यूरोप को बहुत मुश्किल से सह सीख मिली है। एक समय यह युद्ध का केन्द्र बना हुआ था और यह दोनों विश्वयुद्धों का एक बड़ा कारण तथा इनमें सहभागी रहा है। अब हमें एक ऐसा एकीकृत यूरोप देखने को मिलता है जहां एक नई आर्थिक प्रणाली तथा एकल मुद्रा प्रचलित है। उन्होंने यह सही ही महसूस किया कि मतभेदों की उपेक्षा करने तथा समानताओं को उजागर करने में ही उनका हित है। विश्व के हरेक राष्ट्र को यह सबक सीखना चाहिए और सहयोग को बढ़ावा देना चाहिए तथा तनाव को कम करना चाहिए। यदि हम भारत तथा उसके पड़ोसी देशों पर निगाह डालें तो यह पाएंगे कि यदि पाकिस्तान तथा भारत आर्थिक मामलों में एक दूसरे का सहयोग करें तो ये दोनों ही देश विकास की ओर अग्रसर होंगें और आत्मनिर्भर तथा सबल राष्ट्र बनेंगें। जिन मामलों पर मतभेद हैं उन्हें आगे की चर्चाओं के लिए पृथक कर लिया जाना चाहिए। किन्तु जिन बातों में परस्पर सहमति है उन्हें कार्यान्वित किया जाना चाहिए। हमें लाखों डालर की बचत होगी, यदि हम केवल व्यापार में ही एक दूसरे का सहयोग करें। छोटी-छोटी बातों से ही एक बेहतर आर्थिक परिदृश्य विकसित किया जा सकता है, उदाहरणार्थ एयर इंडिया को प्रतिवर्ष 40 करोड़ रूपए का नुकसान होता है क्योंकि पश्चिम की ओर जानेवाली उड़ानों को लंबे वायु मार्ग तय करने पड़ते हैं। भारतीय फिल्म उद्योग को पाइरैसी से करीब 17 अरब रूपए प्रतिवर्ष नुकसान होता है जिसका कारण पाकिस्तान में भारतीय फिल्मों को दिखाए जाने पर लगा प्रतिबंध है। क्रिकेट को भी भारी वित्तीय हानि सहनी पड़ती है, पाकिस्तान ने 23 मिलियन अमेरीकी डालर के नुकसान होने का दावा किया है। व्यापारिक सहयोग से यह उपमहाद्वीप विश्व के बाजार में एक प्रबल प्रतिस्पर्धी बन जाएगा।

संयुक्त राष्ट्र संघ 50 वर्षों से अधिक समय से वैश्विक व्यवस्था में एक महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता रहा है और यह अधिकांशतः प्रभावी ही रहा है। समय तथा द्विध्रुवीय विश्व का एक ध्रुवीय विश्व में बदलने वाले परिदृश्य के साथ ही संयुक्त राष्ट्र संघ ने भी अपनी भूमिका दो शक्तिशाली राष्ट्रों के बीच संतुलन कायम करने से बदलकर एक महाशक्ति को नियंत्रित करने पर केन्द्रित की है। विश्व ने संयुक्त राष्ट संघ तथा दूसरी विभिन्न एजेन्सियों का गठन करके सही दिशा में कदम उठाया है किन्तु ऐसा प्रतीत होता है कि इस प्रयास में वे सही मार्ग से भटक गए हैं। यह समस्या इसकी आधारशिला के कारण पैदा हुई है जो शक्ति पर आधारित है। अमीर देशों को वीटो शक्ति सहित इसका स्थाई सदस्य बनाया गया है और अन्य सदस्य राष्ट्रों को शायद ही कोई महत्व दिया गया है। हमें इसके परिणाम अभी-अभी देखने को मिले हैं जहां एक शक्तिशाली राष्ट्र, दूसरे राष्ट्र पर आधिपत्य स्थापित करने का प्रयास कर रहा है और यह सुनिश्चित कर रहा है कि अन्य राष्ट्र भी उसका अनुसरण करें। राहत की बात यह है कि कुछ सदस्य राष्ट्रों ने इसे टोकने हेतु साहसिक प्रयास किया किन्तु अब उन्हें अमेरिका की नाराजगी का सामना करना पड़ रहा है। यद्यपि अमेरीका ने ऐसा दुस्साहसी कदम उठाया फिर भी उसे अच्छी तरह पता है कि संयुक्त राष्ट्र की सहायता बगैर शान्ति प्रक्रिया कार्यान्वित नहीं की जा सकती। मेरा विचार है कि संयुक्त राष्ट्र संघ को स्थाई सदस्यों के रूप में अन्य राष्ट्रों को भी शामिल करना चाहिए किन्तु कई राष्ट्र पंक्तिबद्ध होकर इसकी प्रतीक्षा कर रहे हैं, भारत भी उनमें से एक राष्ट्र है। ऐसा करने से इस संगठन में कुछ संतुलन आ जाएगा और इसमें विश्व के कमजोर राष्ट्रों की समस्याओं की ओर ध्यान दिया जा सकेगा। साथ ही साथ संयुक्त राष्ट्र को दो सदनों वाले एक वैश्विक शासन के रूप में विकसित होना चाहिए; एक राष्ट्र आधारित तथा दूसरा जनसंख्या आधारित (महासभा तथा सुरक्षा परिषद के स्थान पर) अथवा किसी ऐसी शासन संरचना के रूप में विकसित होना चाहिए जो आज के विश्व में विद्यमान विभिन्न राष्ट्रों पर ध्यान केन्द्रित करें। महासचिवों की शक्तियां और व्यापक होनी चाहिए क्योंकि फिलहाल संयुक्त राष्ट्र महासभा, अफसरशाही और राष्ट्रीय संबंधी मामलों के कारण कार्यकारी निर्णयन और कार्यान्वयन को बाधित करती है। और इन सबके अतिरिक्त में यह महसूस करता हूं कि संयुक्त राष्ट्र को कम केन्द्रीकृत होना चाहिए और इसे सेवाप्रदाय की दिशा में अग्रसर होना चाहिए तथा सामाजिक आंदोलनों, व्यक्तियों, सरकारों, जातियों तथा अन्य राष्ट्रों को पारस्परिक विनिमय एवं समझौते के मंच पर लाना चाहिए। इसे अपनी नैतिक शक्ति पर बल देना चाहिए और अपनी कार्यकारी सैन्य अथवा न्यायिक शक्तियों को बढ़ाने का प्रयास नहीं करना चाहिए। संयुक्त राष्ट्र संघ को पुनरूज्जीवित किया जाना चाहिए ताकि यह नए सृजित राष्ट्रों के मुद्दों, पुराने राष्ट्रों में अंतर्निहित समस्याओं तथा वैश्विक विधि द्वारा ही सुलझाए गए अविर्भाविक मामलों तक ही सीमित न रह कर अनेक भावी संघर्षों को बेहतर तरीके से निपटा सके। लेकिन इन सब के बावजूद भी हमें यह अपने दिमाग में रखना चाहिए कि किसी भी राष्ट्र के आंतरिक मसले केवल उस राष्ट्र के निवासियों द्वारा ही सलझाए जा सकते हैं। अंतरराष्ट्रीय समुदाय के प्रयास मात्र सहायक अथवा अनुपूरक ही हो सकते हैं।” इसका निहितार्थ यह है कि पुनर्विचार करने के क्रम में संयुक्त राष्ट्र को मानवाधिकारों के प्रति निश्चित रूप से पारगामी सांस्कृतिक दृष्टिकोण अपनाना चाहिए, इसे मतभेदों तथा वांछित समानता के प्रति उत्तरदायी होना चाहिए। यह मानव जाति की ऐसी वास्तविक संसद बननी चाहिए जिसमें राष्ट्र अंतरराष्ट्रीय सांमजस्य सृजित करें।

एक आदर्श वैश्विक व्यवस्था के संबंध में मेरे दृष्टिकोण में अंततः संपूर्ण विश्व का अस्तित्व एक राष्ट्र के रूप में शामिल है- सदस्य राष्ट्रों सहित एक बड़ा राष्ट्र, जो कुछ-कुछ यूरोपियन संघ अथवा यू.एस.ए. अथवा यू. एस. एस. आर. का एक उन्नत रूप एवं यह बहुत कुछ भारत के समान होगा, जहां भाषाओं तथा संस्कृतियों की विभिन्नताओं के बावजूद एक राष्ट्र का अस्तित्व होगा। निकट भविष्य में एक प्रभावी वैश्विक सरकार की भविष्यवाणी करना उतावलापन प्रतीत होगा किन्तु ऐसा कहने में अदूरदर्शिता प्रतीत होगी कि ऐसी कोई सरकार संभव नहीं है। दूसरी ओर पर्ववर्ती प्रसंग सस्पष्ट रूप से सभ्यता के किसी भा तरह के भयावह विनाश को न मानते हुए संगठित वैश्विक सरकार के एक ऐसे रूप की स्थापना की आर संकेत करते हैं जिसमें आवश्यक पुलिस और वित्तीय शक्तियां निहित होंगी और यह कल्पनातीत नहीं है कि संयुक्त राष्ट्र ऐसी सरकार के रूप में विकसित नहीं होगा। किन्तु ऐसे कदम के लिए यह उपयुक्त समय नहीं है क्योंकि इससे केवल अनर्थ होगा। जैसा कि पहले ही उल्लिखित है कि संयुक्त राष्ट्र संघ का वर्तमान केन्द्र बिन्दु इस समय सेवाप्रदायक के रूप में कार्य करना ही होना चाहिए और न कि अपनी कार्यकारी, सैन्य अथवा न्यायिक शक्तियों को बढ़ाने हेतु प्रयास करना। जैसा कि पहले भी यह उल्लिखित है, दृष्टिकोण की व्यापकता दूर तक होनी चाहिए किन्तु इसे वर्तमान समय की वास्तविकताओं से मुंह नहीं छिपाना चाहिए। समय की मांग न तो प्रवास विधियों को समाप्त करना है और न ही सीधे ही वैश्विक सरकार का गठन करना है वरन प्रवास को हतोत्साहित करने हेतु राष्ट्रों के भीतर ही बेहतर विकास संबंधी कार्य करते समय और मानवमात्र और मानवता की आवाज होने के नाते संयुक्त राष्ट्र द्वारा विवेकपूर्ण कदम उठाते समय इसे दूरगामी उद्देश्य के रूप में बनाए रखना है।

About

The main objective of this website is to provide quality study material to all students (from 1st to 12th class of any board) irrespective of their background as our motto is “Education for Everyone”. It is also a very good platform for teachers who want to share their valuable knowledge.

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *