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Meri Priya Pustak “मेरी प्रिय पुस्तक” Hindi Essay 600 Words for Class 10, 12.

मेरी प्रिय पुस्तक

Meri Priya Pustak

विश्व में सभी सम्पत्तियों में से पुस्तकें सबसे अधिक मूल्यवान होती हैं, विशेष रूप से उन लोगों के लिए जो पुस्तकों के शौकीन होते हैं। निःसन्देह पुस्तकों में ऐसे अमूल्य खजाने होते हैं जिनकी तुलना मित्र नहीं कर सकते, जिन्हें भाई नहीं बाँट सकते और जो समय के साथ नष्ट नहीं हो सकता। मैंने बहुत-सी पुस्तकें पढ़ी हैं परन्तु मुझे सबसे अच्छी पुस्तक जवाहरलाल नेहरू की आत्मकथा लगी।

मुझे इस आत्मकथा की एक प्रति अपने पिछले जन्म दिवस पर मिली थी। अन्य बहुत अच्छे उपहार भी थे, परन्तु इस पुस्तक ने मुझे सबसे अधिक आकृष्ट किया। मुझे याद है कि मैं सारी रात देर तक अपने पहले प्रधानमंत्री की जीवन-गाथा को पढ़ता रहा था। पुस्तक के पहले वाक्य ने ही मुझे मंत्रमुग्ध कर दिया था। मैं नहीं समझता कि किसी पुस्तक को इससे भी अधिक दिलचस्प तरीके से शुरू किया जा सकता है। मैं प्रायः इस स्मरणीय पंक्ति को दोहराता रहता हूँ। “किसी सम्पन्न माता-पिता के इकलौते बेटे के, विशेष रूप में भारत में, बिगड़ जाने के प्रवृति रहती है और जब वह बच्चा अपने जीवन के पहले ग्यारह वर्षों में अकेला ही बच्चा हो तो वह बिगड़ जाने से बच जायेगा, इसकी कोई आशा नहीं की जा सकती……..।”

आत्मकथा अत्यधिक रोचक है। यह एक उपन्यास जैसा प्रतीत होता है। प्रत्येक पंक्ति में निष्कपटता दिखायी देती है। पुस्तक में दो बातों को यथार्थ रूप से व्यक्त किया गया है-लेखक का व्यक्तित्व और भारत के स्वतन्त्रता संग्राम का विकास। यह आत्मकथा और इतिहास दोनों ही है। मैं मानता हूँ कि मैं इतिहास की तुलना में आत्मकथा के भाग को अधिक पसन्द करता हूँ। सम्भवतः मेरा मस्तिष्क इतना परिपक्व नहीं है कि वह भारत की स्वतन्त्रता संग्राम के सम्बन्ध में पंडितजी के वर्णन का मूल्यांकन कर सके। मुझे आशा है कि कुछ वर्षों बाद मैं पुस्तक के इस भाग के महत्त्व को आज से अधिक समझूंगा।

पंडित जी के जीवन की कथा ने मुझे बहुत प्रभावित किया है। मैंने जब यह पढ़ा कि बचपन में एक पेन की चोरी करने पर पंडित जी की उनके पिता ने किस प्रकार से जोरदार पिटाई की थी तो मैं अपनी हँसी को न रोक पाया। इंग्लैंड में उनके जीवन की कई घटनाएँ अब भी मुझे पूरी तरह से याद हैं।

आत्मकथा के कुछ भाग तो अत्यन्त हृदयस्पर्शी हैं। पंडितजी के कारागार के जीवन, पंडित मोतीलाल नेहरू की मृत्यु और कमला नेहरू की बीमारी के वृत्तान्त को पढ़कर मैं बड़ी मुश्किल से अपने आँसुओं को रोक पाया। पंडित जी प्रायः अंग्रेजों की तरह संयत रूप से लिखते थे। गाँधी जी की तरह वह अधिक व्यक्तिगत ब्यौरे नहीं देते थे। उदाहरण स्वरूप उन्होंने अपने विवाह के विवरण को एक ही वाक्य में पूरा कर दिया : “मेरा विवाह 1966 में दिल्ली में हुआ था।” परन्तु कमला जी की बीमारी और उनके सम्बन्ध में अपनी चिन्ता का उल्लेख करते समय वह अपने संयम को खो बैठे थे और उन्होंने इसे बड़े हृदयस्पर्शी ढंग से लिखा था।

पूरी पुस्तक में पंडित जी के चरित्र की दृढ़ता का पता चलता है। अपने लेखों से वह एक दूरदर्शी विचारक, दृढ़ संकल्प वाले, कर्मशील और उद्यमी व्यक्ति प्रतीत होते हैं। भावुकता और हृदय की दुर्बलता उन्हें द्रवीभूत नहीं करती थी, वह बहुत दृढ़ मनोभावों पसंद करने वाले व्यक्ति थे। चूंकि पुस्तक कारागार में लिखी गई थी इसलिए इसमें अंग्रेज शासकों, जिन्होंने उन्हें बन्दी बना रखा था, के प्रति कुछ कटुता थी। कारागार के जीवन के बारे में उन्होंने दुःखपूर्ण टिप्पणी की है क्योंकि उनका विश्वास था कि वे अपने आपको बेहतर कार्यों में लगा सकते थे।

आत्मकथा को विश्वव्यापी ख्याति मिली। यह सबसे अधिक बिकने वाली और सबसे अधिक लोकप्रिय पुस्तक सिद्ध हुई। इससे पंडित जी को शताब्दी के महान् व्यक्तियों और नेताओं में माना जाने लगा। पुस्तक की कई प्रशंसापूर्ण समीक्षाएँ समय-समय पर प्रकाशित हुईं। इसे आधुनिक युग में प्रकाशित महान् आत्मकथाओं में से एक माना जाने लगा। अंग्रेजी भाषा पर पंडित जी के ज्ञान की बहुत अधिक प्रशंसा की गई।

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