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Hindi Essay/Paragraph/Speech on “Ikkisvi Sadi ka Bharat”, “इक्कीसवीं शताब्दी का भारत” Complete Essay, Speech for Class 10, Class 12 and Graduation and other classes.

इक्कीसवीं शताब्दी का भारत

Ikkisvi Sadi ka Bharat

 

प्रस्तावना : इक्कीसवीं शताब्दी को लगे कुछ समय ही बीता है। इस अवधि के बीच ही जनमानस के सुखद सपने धूमिल से होते जा रहे हैं। ऊपर से बढ़ती महँगाई , आतंकवाद, जनसंख्या विस्फोट, प्रदूषित जल एवं पर्यावरण से फैलते रोग और आवासीय समस्या तथा बेरोजगारी ने उसे सोचने को विवश कर दिया कि वर्तमान अतीत से बेहतर हो सकेगा ? क्या देश से आतंकवाद को मिटाकर शांति व स्थिरता का वातावरण लाया जा सकेगा ? विदेशी आक्रमणों से देश की सीमाओं को सुरक्षित रखा जा सकेगा ? भारतीय स्वतंत्रता एवं भारतीय गणतंत्र की स्वर्ण जयन्तियाँ मनाकर भी क्या वह जनसाधारण को आंतरिक खुशी देने का सामर्थ्य व अपना खोया हुआ वर्चस्व प्राप्त कर चुका है? यह प्रश्न अभी भी हरेक भारतीय को व्यथित किए हुए है।

वर्तमान भविष्य का दर्पण : समाज, राष्ट्र और जातियों के इतिहास में उनके वर्तमान की मानसिकता, प्रयासों एवं प्रगति-विकास की जो गति दिशा बन जाया करती है, उसको एक सीमा तक उसके भविष्य का दर्पण समझा जा सकता है; आज देश में जो कुछ हो रहा है, उसे भविष्य का दर्पण माना जा सकता है। आज देश में अच्छा, उत्साहप्रद एवं बुरा अथवा निराशाप्रद सभी कुछ एक साथ अथवा समानान्तर हमारे दैनिक व्यावहारिक जीवन का अंग बन कर घट रहा है। इक्कीसवीं सदी के आरम्भ के कुछ दिनों की स्थिति को देखकर दो प्रकार के विचार एवं भाव-चित्र मानस-पटल पर चित्रांकित होने लगते हैं। उन दोनों का पृथक्-पृथक् चित्रण एवं आंकलन ठीक रहेगा।

 

एक सम्भावित रूप चित्र : इक्कीसवीं शताब्दी के आगमन से पूर्व ही स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद हमारे देश भारत ने शिक्षा, ज्ञान-विज्ञान, तकनीक, वाणिज्य-व्यापार, उद्योग-धंधे, रहन-सहन, खान-पान, साहित्य-कला और आधुनिक अस्त्र-शस्त्रों आदि प्रत्येक क्षेत्र में अद्भुत एवं अभूतपूर्व प्रगति एवं विकास किया है। अब इस नई शताब्दी में भी अनेक प्रकार के नव-निर्माण के सपने सजाकर हमारा भारत अनवरत प्रगति एवं विकास पथ पर गतिशील है । महत्त्वाकांक्षी लम्बी योजनाओं को साकार करने हेतु दिन-रात निरन्तर कार्य हो रहा है। भू-विज्ञान, जल-विज्ञान और अंतरिक्ष-विज्ञान आदि किसी भी क्षेत्र में आज का भारत उन्नत-विकसित कहे जाने वाले राष्ट्रों से कतई पीछे नहीं है। कभी अमेरिका से जीरा गेहूँ, अर्जनटीना से अन्न मँगाकर पेट की आग को शान्त करने वाला भारत आज आवश्यकता पड़ने पर आपद् मानवता का पेट भरने के लिए कई बार गेहूं-चावल आदि की भरपूर मात्रा भेज चुका है। इसी प्रकार कभी सुई-धागा तक आयात करने वाला भारत आज स्थूल-सूक्ष्म वस्तु यहीं बना रहा है । इतना ही नहीं मानव रहित वायुयान, अंतरिक्षयान और सहस्रों मील दूर तक मार करने में सक्षम मिसाइलें तक भारत ने स्वयं बना ली हैं। ज्ञान-विज्ञान की तकनीक और तरह-तरह के सामान निर्यात करने लगा है । कारगिल के क्षेत्र में शत्रु को पराजित कर अपनी शौर्य शक्ति का परिचय दिया है। इससे इस निष्कर्ष पर पहुंचा जा सकता है कि इक्कीसवीं शताब्दी का भारत सभी प्रकार से समृद्ध, उन्नत, सुखी एवं सम्पन्न रहेगा। दूसरा सम्भावित रूप चित्र : जीवन के हरेक क्षेत्र में प्रगति एवं विकास कर लेने पर भी आज भारत नकल की गई आयातित सभ्यता-संस्कृति का दास बनकर अपनी जड़ों से पूर्ण रूप से कटता जा रहा है । रिश्वतखोरी, हर प्रकार का भ्रष्टाचार, काला बाजार, मूल्यहीनता आदि उसके जीवन के अंग बन गए हैं। इस कारण वह इस सीमा तक स्वार्थी तथा आत्मजीवी बन चुका है कि आस-पड़ोस की चिन्ता तो क्या, स्वार्थ पूर्ति के लिए देश-जाति और राष्ट्रीय-गौरव तक को बेच अथवा गिरवी रख सकता है । उसने जितनी भी प्रगति तथा विकास किया है आम जन के जान-माल की कीमत पर, सही नियोजन के बिना अदूरदर्शितापूर्ण योजनाएँ बना और विदेशों से ऋण लेकर, आत्म-सम्मान तक को गिरवी रखकर, अनेक प्रकार के दबाव सहने की मानसिकता बना कर किया है।

इस कारण आज साधारण जन बुरी तरह तंग है। आज जन्म लेने वाला बच्चा भी सहस्रों डालरों। का देनदार है। दूसरी ओर एक अरब तक पहुँच चुकी जनसंख्या की आवासीय तंगी, बेकारी, बेरोजगारी, कमरतोड महँगाई की मार, कटते वन और प्रदूषित होता पर्यावरण प्रतीत होता है, जैसे हम एक दमघोटू वातावरण में रहने को बाध्य हो रहे हैं । उस पर कल-कारखानों से निकलने वाला धुआँ, जहरीली गैस, धुआँ उगलते और पौं-पों से कान फोड़ते वाहन, अन्य अनेक प्रकार की कानफोडू ध्वनियाँ, हवा-पानी तक का शुद्ध रूप में अभाव, चारों ओर फैलती कई प्रकार की गन्दगी के ढेर, गंदे नालों के दूषित जल से प्रदूषित होती गंगा-यमुना सरीखी। नदियाँ- यह सब देख-सुनकर लगता है कि इक्कीसवीं शताब्दी के अंत तक यह धरा इंसानों के रहने योग्य नहीं रह जाएगी। मानव का जीवन एक दूसरे को खा जाने वाले कीड़े-मकोड़ों और जानवरों जैसा हो जाएगा।

उपसंहार : इन दोनों प्रकार के सम्भावित चित्रों को सामने रखकर हमें इस बात पर सघन विचार करना है कि क्या हम इक्कीसवीं शताब्दी के दमघोटू वायुमण्डल में रहना चाहते हैं अथवा सुखद वातावरण में जैसा चाहें वैसा प्रयास तन-मन से आरम्भ कर देना होगा ।

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