Hindi Essay, Paragraph, Speech on “Bharat Russia Sambandh”, ”भारत-रूस सम्बन्ध” Complete Hindi Anuched for Class 8, 9, 10, Class 12 and Graduation Classes
भारत-रूस सम्बन्ध
Bharat Russia Sambandh
रुस सोवियत संघ के रूप में मान्यता प्राप्त एक शक्ति-सन्तुलन बनाए रख हमें समर्थ अलग शक्ति-गुट था; तब भारत राष्ट्र के साथ उसके सम्बन्ध बड़े ही सुदृढ एवं अच्छे थे। संयुक्त राष्ट्र संघ में सोवियत रूस भारत का सब से बड़ा समर्थक एवं को शक्ति के रूप में संरक्षक तो था ही, उससे बाहर भी वह भारत का एक मात्र विश्वसनीय मित्र एवं साथी था। संकट के प्रत्येक क्षण में वह भारत का हर प्रकार से साथ देता रहा और हर तरह की सहायता भी करता रहा। लेकिन संघ या संगठन के रूप में सोवियत संघ का विघटन हो जाने के बाद स्वभावतः अब रूस भी अकेला रह गया है, यद्यपि आज भी वह सोवियत संघ में शामिल समस्त गण राज्यों में सब से बड़ा देश है। आज वह साम्यवादी या लेनिन-स्टालिनवादी नीतियों का परित्याग कर के मुक्त व्यवहार-विचार-व्यापार के मार्ग पर चलने का प्रयास कर रहा है, उस की अपनी राह में अनेक प्रकार की राजनीतिक, आर्थिक कठिनाइयाँ आ रही हैं सो आज भारत-रूस-सम्बन्धों में वह पहले-सी गर्मी, पहले जैसा उत्साह नहीं रह गया है।
भारत-रूस-सम्बन्धों की वास्तविकता सोवियत संघ के विघटन के बाद क्या रह गई है. इस का धरती की वास्तविकता से जुड़ा पहला दृश्य तब देखने को मिला, जब अमारिका के दबाव में आकर उसने क्रायोजनिक इंजिन एवं तकनीक देने का समझौता साफ-स्पष्ट शब्दों में रद्द कर या फिर लटका दिया। उसके बाद रुपये-रुबल को लेकर व्यापार के अन्य समझौतों पर भी प्रभाव पड़ा कि भुगतान रुबल में किया जाए, जबकि पहल ऐसा कभी नहीं हुआ था। इतना ही नहीं, जो सोवियत संघ काश्मीर को किसी भी तरह विवादास्पद न मान कर हमेशा उसे भारत का ही अग-राज्य घोषित करता रहा. जिसके लिए संयुक्त राष्ट्र संघ में उसे कई बार अपने विशेषाधिकार (वीटो-पॉवर) का प्रयोग भी करना पड़ा, उसी को रूस ने एक विवादास्पद मुद्दा और अनसुलझी समस्या कहना शुरू कर दिया। दबी जबान से संयुक्त राष्ट्र संघ में आधी सदी पहल पारित प्रस्तावों की ओर भी संकेत किया। फिर यह कह कर लीपा-पोती करने की कोशिश की कि उस मुद्दे को शिमला-समझौते के अन्तर्गत बातचीत से सुलझा लिया जाना चाहिए यहाँ तक कि रूस ने उस समय के संघ राज्य के प्रसिद्ध स्थान ताशकन्द में हुए तत्प मंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने युद्ध में विजेता होने पर भी रूस की इच्छा से पाकिस्तान के साथ समझौता कर बलिदान तक को भुला लिया। इस प्रकार की स्थितियों एवं जमीर सच्चाइयों के चलते भारत-रूस के सम्बन्धों में किसी प्रकार की गर्मी आने की सम्भावना कैसे हो सकती है ?
इधर भारत तो अपने वजूद में जैसे का तैसा खड़ा है, जबकि सत्य यह भी है कि आज भारत की नीतियों में भी वह प्रभाव और गर्मी नहीं रह गई है कि जो कभी विश्व-राजनीति को दे पाने का सामर्थ्य रखती थी। उसके द्वारा खड़ा किया गया गुट-निरपेक्षता का शक्तिशाली और विश्व राजनीति को प्रभावित कर पाने वाला आन्दोलन भी आज बिखर चुका है। कई प्रभाव और गरिमापूर्ण नेता एवं नेत्त्व भी भारत के पास नहीं रह गया है। फिर भारत के पास ऐसा कोई भौतिक पदार्थ या जमीनी तत्त्व भी नहीं है कि जो रूस के काम आ सके। ऐसी स्थिति में वह भी पूर्व-सम्बन्धों में किसी नई ऊर्जा क्यों कर खपाने लगा और खपा कर भी उसे क्या मिलने वाला है ? कुछ भी तो नहीं। अतः रूस का स्वाभाविक झुकाव उस ओर दिखाई देता है, जहाँ से वह चाहे और कुछ पाए, न पाए आर्थिक सहायता तो पा ही सकता है और वह है विश्व में मात्र बच रहा शक्ति-केन्द्र अमेरिका, जिस की भवें टेढ़ी होते ही रूस ने क्रायोजनिक इंजिन-समझौता रद्द कर दिया।
उपर्युक्त तथ्यों के बावजूद सोवियत संघ के विघटन के बाद रूस ने जिन जमीनी । सच्चाइयों को देखा और भोगा है, अमेरिका के रूख में अपने प्रति बने उत्साह के पारे को धीरे-धीरे उतरते अनुभव किया है; उस सब के प्रभाव से लगता है कि सोवियत संघ की तरह रूस भी एक बार फिर आशा और उत्साह से भर कर भारत की ओर देखने लगा है। लगता है, उसकी दूरदर्शी आँखें भारत के दूर भविष्य में कुछ देख पाने में सफल और समर्थ हो गई हैं। इसी कारण भारत के प्रति इसके शिथिल स्वरों में एक बार फिर से सद्भाव एवं मैत्री का ज्वार संचरित होने लगा है। वह क्रायोजनिक इंजिन एवं तकनीक देने के बारे में कहने लगा है कि उसने समझौता भंग नहीं किया था, कुछ समय के लिए निरस्त किया था। इसी उत्साह में अपने रुपये-रुबल का उठा विवाद भी सुलझा लिया। है। सो लगता है सम्बन्धों की डोर फिर ऊपर उठने लगी है।
दूसरी रूस के अपनी ज़मीन से जुड़े भी कुछ तथ्य समाचारपत्रों के माध्यम से | सामने आए हैं। एक तो यह कि साम्यवाद की डोर काट, खुलेपन का रास्ता अखित्यार करने वाले गोर्बाचौव ने घोषणा की है कि वर्तमान नेतृत्व यदि उनकी नीतियाँ चला पाने में सफल नहीं होता, तो वे दुबारा चुनाव लड़ कर सत्ता के सूत्र सम्हाल सकते हैं। इसके । साथ ही साम्यवाद के कट्टर समर्थक झेरे निक्तन जैसे नेता साम्यवाद की पुनः स्थापना । के लिए प्रयत्न कर रहे हैं। अभी वहाँ क्या होगा, कहा या अनुमान नहीं किया जा सकता। । अतः भारत-रूस-सम्बन्धों के बारे में भी अधिक उत्साही नहीं बना जा सकता।