Hindi Essay on “Yadi Mein Vidyalaya ka Pradhanacharya Hota” , ” यदि मै विद्दालय का प्रधानाचार्य होता” Complete Hindi Essay for Class 10, Class 12 and Graduation and other classes.
यदि मै विद्दालय का प्रधानाचार्य होता
Yadi Mein Vidyalaya ka Pradhanacharya Hota
निबंध नंबर : 01
विद्दालय में प्रधानाचार्य का पड़ अत्यन्त महत्त्वपूर्ण तथा उत्तरदायित्व पूर्ण होता है | वह विद्दालय का सर्वोच्च अधिकारी होता है | किसी भी विद्दालय की उन्नति और अवन्ती इसके प्रधानाचार्य की बहुत बड़ी भूमिका होती है | वह विद्दालय का केन्द्र होता है जिसके चारो और विद्दालय की समस्त गतिविधियाँ घुमती रहती है | उसके सभी कार्यकलापो का प्रभाव अप्रत्यक्ष रूप से विद्दार्थियो आध्योपको तथा अन्य कर्मचारियों पर पड़ता है | अत : विद्दालय के प्रधानाचार्य को आदर्श होना चाहिए |
यदि मै किसी विद्दालय का प्रधानाचार्य होता तो मै उस विद्दालय को आदर्श विद्दालय बनाने के लिए भरसक प्रयत्न करता | मै विद्दालय की उन्नति और विकास के लिए अनेक प्रकार के कार्य करता | मै अपने विद्दालय में इस प्रकार की योजना बनाता , जिससे विद्दार्थी शैक्षिक , नैतिक, शारीरिक और सांस्कृतिक क्षेत्र में पर्याप्त उन्नति कर सके | जहाँ तक विद्दार्थियो की शैक्षिक उन्नति का प्रश्न है, सर्वप्रथम तो मै कमजोर विद्दार्थियो की पढाई के लिए पृथक व्यवस्था करता जिससे उनकी पढाई का स्तर दुसरो की पढाई के स्तर के समान हो जाता | मै दिन में एक या दो बार प्रत्येक कक्षा का निरिक्षण करता जिससे अध्यापको के कार्य पर निगाह रखी जा सके | कक्षा के कमे , बरामदे तथा शौचालय आदि की सफाई पर विशेष बल देता |
समय –समय पर विद्दार्थियो की प्रगति की सुचना उनके अभिभावकों को भेजी जाती ताकि विद्दार्थियो में एक प्रकार से कार्य के प्रति भय बना रहता | मै विद्दार्थियो को नैतिक रूप से भी योग्य बनाने का प्रयास करता | महापुरुषो से सम्बन्धित भाषणों का आयोजन करवाता | प्रात: कालीन प्रार्थना सभा में नैतिक कार्यक्रम प्रस्तुत करता, सभी विद्दार्थियो के लिए खेल अनिवार्य कर देता ताकि विद्दार्थियो में भाईचारे , अनुशासन तथा सामजिक जीवन की भावना उदित होती | इसके साथ उनका शारीरिक स्वास्थ्य भी सुधरता और मस्तिष्क भी विकसित होता | किसी ने ठीक ही कहा है कि ‘स्वस्थ मस्तिष्क के लिए स्वस्थ शरीर का होना आवश्यक है’ |
मै निर्धन विद्दार्थियो की फीस माफ करता | उनको पुस्तके तथा वर्दी नि:शुल्क देने का प्रबंध करता | विद्दालय में कैंटीन खुलवाने का प्रायस करता | अनेक कार्यक्रम जैसे रेडक्रास , स्काउटिंग , भ्रमण , पर्यटन, वाद- विवाद , नाटक , कला व भाषण प्रतियोगिता आदि का आयोजन करवाता | जो विद्दार्थी NCC या स्काउटिंग में अव्वल होते उन्हें देश सेवार्थ सेना में भर्ती होने या उन्हें भर्ती करवाने का सरकार से अनुरोध करता | ये सब बच्चो के सर्वागीण विकास के लिए अत्यन्त आवश्यक है | यही सब मेरा उद्देश्य होता |
निबंध नंबर : 02
यदि मैं प्रधानाचार्य होता
Yadi mein Pradhanacharya Hota
प्रधानाचार्य! यानि किसी शिक्षा देने वाली संस्था का मुखिया, जो अपने छात्रों का भविष्य बनाने और बिगाडने जैसे दोनों कार्यों में समान रूप से सहायक हुआ करता या हो सकता है। शिक्षा लेना और देना-मेरी दृष्टि में दोनों ही पवित्र, बड़े महत्त्वपूर्ण कार्य हैं। इन कार्यों पर मानवता का वर्तमान और भविष्य तो टिका हुआ है ही, मानवता की प्रगति और विकास की सारी कहानी भी वास्तव में शिक्षा से ही आरम्भ होती है। प्रगति और विकास का सारा दारोमदार अच्छी, उन्नत, समय के अनुरूप शिक्षा पर ही है; आज का प्रत्येक व्यक्ति इस तथ्य से भली भाँति परिचित है। इसलिए जब मैं किसी शिया- का मुखिया यानि प्रधानाचार्य या प्रधानाध्यापक होने की बात सुनता हूँ, तो मेरे मन के सागर में कई तरह के विचार लहराने लगते हैं। मुझ से जैसे प्रश्न करने लगते हैं कि यदि मैं किसी विद्यालय का प्रधानाचार्य होता, तो?
यदि मैं प्रधानाचार्य होता, तो अपने छात्रों को पहला पाठ अनुशासन का पढाता। यों तो आज जीवन के हर क्षेत्र में अनुशासन हीनता का दौर चल रहा है; पर छात्रों में अनुशासनहीनता की बात सब से अधिक सुनने में आ रही है, जबकि वह कतई नहीं होनी चाहिए। वह इसलिए कि छात्र जीवन आगे आने वाले जीवन की बुनियाद है। आज के छात्रों ने ही बड़े होकर कल को जीवन के हर क्षेत्र में प्रवेश करना है। यदि अभी से वे अनुशासित रहना सीख लेंगे, तो भविष्य में भी प्रत्येक क्षेत्र में जाकर अनुशासित रह पाएँगे, ऐसी आशा उचित ही की जा सकती है। दूसरे मैं वर्तमान शिक्षा-प्रणाली में बदलाव लाने की भी कोशिश करता। आज चल रही शिक्षा-प्रणाली इतनी घिस-पिट चुकी और पुरानी हो चुकी है कि उससे वास्तव में छात्रों या किसी को भी कुछ वास्वतिक लाभ नहीं पहुँच पा रहा सो प्रधानाचार्य होने पर चाहे मैं सारे देश में से तो बदल न पाता; पर अपने विद्यालय में ता निश्चय ही इसे सुधारने, इसमें समय के अनुसार परिवर्तन लाने की कोशिश अवश्य करता ताकि पूरे शिक्षा-जगत् के सामने एक आदर्श की स्थापना हो सके। देखा-देखी बाकी लोग भी इस दिशा में कदम उठा सकें।
प्रधानाचार्य होने पर मैं कम-से-कम अपने विद्यालय में तो शिक्षा को व्यावहारिक बनाने की कोशिश करता ही, शिक्षा देने यानि पढ़ाने-लिखाने के आजकल के बंधे-बँधाए क्रम को भी बदलने की कोशिश करता । कक्षा भवनों से बाहर निकल कर छात्रों को किताबी ज्ञान के साथ-साथ जीवन के व्यवहारों का ज्ञान कराने की व्यवस्था भी करता। अध्यापकों को पूरी तरह अनुशासन और समय के पाबन्द रह कर अपना कार्य करने को बाध्य करता। यह भी व्यवस्था करता कि जो छात्र जिस विषय में कुछ कमजोर है, उस विषय को पढ़ाने वाले अध्यापक छुट्टी के बाद अतिरिक्त समय देकर उस कमजोरी को दूर करें। आज-कल प्राय: अध्यापक नियमित कक्षाओं में तो पढ़ाने-लिखाने, छात्रों की कमियाँ दूर कर उन्हें परीक्षा के लिए तैयार करने की कोशिश करते नहीं। इसके स्थान पर घर पर छात्रों के गुप बना कर टयूशन करने-कराने के लिए दबाव डालते हैं। इस प्रकार के बनिया-मनोवृत्ति वाले अध्यापक वर्ग ने शिक्षा को भी एक तरह का व्यापार बना दिया है पचास-साठ का गुप बना कर टयूशन पढ़ाने और कक्षाओं में पढ़ाना लगभग एक जैसा ही है। यही कारण है कि ट्यूशन करके भी आज छात्र कुछ विशेष योग्यता हासिल नहीं कर पाता। प्रधानाचार्य होने पर मैं ट्यूशन करने पर सख्ती से पाबन्दी लगा देता। चोरी-छिपे ऐसे करते रहने वाले अध्यापकों को अध्यापकी छोड़ने के लिए विवश कर देता।
शिक्षा का अर्थ केवल पाठ्य पुस्तकें पढ़ कर कुछ परीक्षाएँ पास कर लेना मात्र ही नहीं हुआ करता; बल्कि तन-मन-मस्तिष्क और आत्मा का पूर्ण विकास करना भी हुआ करता है। खेद के साथ कहना पड़ता है कि आज के विद्यालयों या शिक्षा की दुकानों में पाठ्य पुस्तकें पढ़ा-रठा कर परीक्षाएँ पास कराने की तरफ तो थोड़ा बहुत ध्यान दिया भी जाता है, पर अन्य बातों की ओर कतई कोई ध्यान नहीं दिया जाता। यदि मैं प्रधानाचार्य होता, तो उपर्युक्त अन्य बातों की ओर भी उचित ध्यान देता। कहना तो यह चाहिए कि मात्र परीक्षाएँ पास करने से भी कहीं अधिक ध्यान देता। कारण स्पष्ट है, वह यह कि आज की शिक्षा-प्रणाली छात्रों को मात्र साक्षर ही बना पाती है। अर्थात् अक्षरों को पढ़-लिख पाने तक ही सीमित रखा करती है, उन्हें वास्तविक अर्थों में शिक्षित नहीं बनाती। सुशिक्षित तो कदापि नहीं बनाती। इस लिए प्रधानाचार्य होने पर मैं कम-से-कम अपने विद्यालय के छात्रों को तो मात्र साक्षर नहीं, बल्कि सुशिक्षित बनाने की पूरी कोशिश करता, ताकि शिक्षा का वास्तविक उद्देश्य पूरा हो सके।
इन मुख्य बातों के अतिरिक्त प्रधानाचार्य होने पर मैं छात्रों के शारीरिक विकास के लिए व्यायाम और खेलों की उचित व्यवस्था कर उसे सभी के लिए अनिवार्य बना देता। शिक्षा-यात्राओं का आयोजन करा व्यावहारिक ज्ञान देने का प्रबन्ध करता। बौद्धिक-मानसिक विकास के लिए इस प्रकार के आयोजनों को बढ़ावा देता। स्वस्थ मनोरंजन की भी व्यवस्था कराई जाती। यदि वहाँ जनता और समाज तथा सरकार सहयोग करते तो इन सभी प्रकार क आयोजनों की निःशुल्क व्यवस्था करता।
मेरे विचार में भारत की सुदृढ और वास्तविक रूप से उन्नत भविष्य का निर्माण करने के लिए उपर्युक्त सभी बातें आवश्यक हैं। प्रधानाचार्यों तथा शिक्षा जगत से जो अन्य लोगों को इन की तरफ शीघ्र ही उचित ध्यान देना चाहिए।
for nice topic