Hindi Essay on “Sampradayikta” , ” सांप्रदायिकता : एक अभिशाप ” Complete Hindi Essay for Class 10, Class 12 and Graduation and other classes.
निबंध नंबर : 01
सांप्रदायिकता : एक अभिशाप
सांप्रदायिकता का अर्थ और कारण – जब कोई संप्रदाय स्वयं को सर्वश्रेष्ठ और अन्य स्म्प्दयों को निम्न मानने लगता है, तब सांप्रदायिकता का जन्म होता है | दूसरी तरफ भी कम अंधे लोग नहीं होते | परिणामस्वरूप एक संप्रदाय के अंधे लोग अन्य धर्मांधों से भिड पड़ते है और सारा जन-जीवन लहूलुहान कर देते हैं | इन्हीं अंधों को फटकारते हुए महात्मा कबीर ने कहा है –
हिंदू कहत राम हमारा, मुसलमान रहमाना |
आपस में दोऊ लरै मरतु हैं, मरम कोई नहीं जाना ||
सर्वव्यापक समस्या – सांप्रदायिकता विश्व-भर में व्याप्त बुराई है | इंग्लैंड में रोमन कैथोलिक और प्रोटेस्टेंट ; मुसलिम देशों में शिया और सुन्नी ; भारत में बैाद्ध-वैष्णव, सैव- बैाद्ध, सनातनी, आर्यसमाजी, हिन्दू-सिक्ख झगड़े उभरते रहे हैं | एन झगड़ों के कारण जैसा नरसंहार होता है, जैसी धन-संपति की हानि होती है, उसे देखकर रोंगटे खड़े हो जाते हैं |
भारत में सांप्रदायिकता – भारत में सांप्रदायिकता की शुरूआत मुसलमानों के भारत में आने से हुई | शासन और शक्ति के मद में अन्धें आक्रमणकारियों ने धर्म को आधार बनाकर यहाँ के जन-जीवन को रौंद डाला | धार्मिक तीर्थों का तोड़ा, देवी-देवताओं को अपमानित किया, बहु-बेटियों को अपवित्र किया, जान-माल का हरण किया | परिणामस्वरूप हिंदू जाति के मन में उन पाप-कर्मो के प्रति गहरी घ्रणा भर गई, जो आज तक भी जीवित है | बात-बात पर हिंदू-मुसलिम संघर्ष का भड़क उठना उसी घ्रणा का सूचक है |
सांप्रदायिक घटनाएँ – सांप्रदायिकता को भड़कने में अंग्रेज शासकों का गहरा षड्यंत्र था | वे हिन्दू-मुसलिम झगड़े फैलाकर शासक बने रहने चाहते थे | उन्होनें सफलतापूर्वक दोनों को लड़ाया | आज़ादी से पहले अनेक खुनी संघर्ष हुए | आज़दी के बाद तो विभाजन का जो संघर्ष और भीषण नर-संहार हुआ, उसे देखकर समूची मानवता रो पड़ी | शहर-के-शहर गाजर-मुली की तरह काट डाले गए | अयोध्या के रामजन्म-भूमि विवाद ने देश में फिर से सांप्रदायिक आग भड़का दी है | बाबरी मसजिद का ढहाया जाना और उसके बदले सैंकड़ों मंदिरों का ढहाया जाना ताजा घटनाएँ हैं |
समाधान – सांप्रदायिकता की समस्या तब तक नहीं सुलझ सकती, जब रक् कि धर्म के ठेकेदार उसे सुलझाना नहीं चाहते | यदि सभी धर्मों के अनुयायी दूसरों के मत का सम्मान करें, उन्हें स्वीकारें, अपनाएँ, उनके कार्यक्रमों में सम्मिलित हों, उन्हें उत्सवों पर बधाई देकर भाईचारे का परिचय दें | विभिन्न धर्मों के संघषों को महत्व देने की बजाय उनकी समानताओं को महत्व दें तो आपसी झगड़े पैदाही न हों | कभी-कभी ईद-मिलन या होली-दिवाली पर ऐसे दृश्य दिखाई देते हैं तो एक सुखद आशा जन्म लेती है | साहित्यकार और कलाकार भी सांप्रदायिकता से मुक्ति दिलाने में योगदान कर सकते हैं |
निबंध नंबर : 02
सांप्रदायिकता का विष
अनेक धर्मों, जातियों, संप्रदायों आदि के रहते हुए भी अपनी मूल अवधारणा में भारत अपने आरंभ से ही एक समन्यवादी देश रहा और है। यहां की स्थूल-सूक्ष्म प्रकृति भी समन्यवादी कही जा सकती है। तभी तो वन, पर्वत, मैदान , रेगिस्तान आदि की विविधता के साथ-साथ छह ऋतुओं की विविधता भी दिखाई देती है। इस विविधता ने शुरू से ही हमें प्रत्येक अन्य स्थूल-सूक्ष्म वस्तु के प्रति सहनशीलता का पाठ पढ़ाया है। तभी तो अत्यंत प्राचीनकाल से ही यहां छोटे-बड़े अनेक धर्मों और संप्रदायोंको मानने वाले लोग शांतिपूर्वक एक साथ रहते आ रहे हैं। कई बार कई बाहरी शक्तियों और तत्वों े हमारी इस सांप्रदायिक सहनशीलता और एकता को खंडित करने का प्रयत्न किया और आज भी यह प्रयत्न बढ़-चढक़र हो रहा है। पर हर बार उन्हें विफलता का मुंह ही देखना पड़ा। इस बार भी देखना पड़ेगा, इतना निश्चित है। इतिहास गवाह है कि केवल एक बार सांप्रदायिकता के विश के प्रभाव से हमें ऐसा झटका खाना पड़ा है कि उसके घाव कभी भी भ नहीं सकते। यह झटका इस देश को अंग्रेजी साम्रज्यवाद ने दिया और सांप्रदायिकता के आधार परह यह देश सन 1947 में दो भागों में बंटकर रह गया। इस प्रकार का विभाजन आज तक के विश्व के इतिहास में एक अभूतपूर्व घटना मानी गई है।
यह ठीक है कि भारत बंट गया, उसका एक बहुत बड़ा भाग एक सांप्रदायिक देश एंव संस्कृति का रूप ले गया पर मूल भारतीय आत्मा ने सांप्रदायिकता के भाव को फिर भी नहीं स्वीकारा, कोई महत्व नहीं दिया। तभी तो नए भारत का जो संविधान बना, उसमें धर्म-निरपेक्षता और असांप्रदायिकता को एक बुनियादी शर्त के रूप में स्वीकार किया गया है। यह प्रावधान रखा गया कि यहां सभी धर्म और संप्रदाय स्वतंत्रापूर्वक अपने विश्वासों को पालते मानते हुए समानता के आधार पर रह सकते हैं। फिर भी कई बार यहां घिनौनी सांप्रदायिकता भडक़कर वातावरण को विषमय बना देती है और इधर कुछ वर्षों से तो बहुत अधिक बनाने लगी है-आखिर क्यों? कारण दो कहे या स्वीकार जाते हैं। एक तो कुछ निहित स्वार्थियों की कट्टरता कि जो रहते और खाते-पीते तो यहां का हैं पर उन्होंने अपने मानसिक या सांप्रदायिक भाई-चारे तथा विश्वास कहीं बाहर जमा रखे हैं। दूसरे वे लोग सांप्रदायिकता का शिकार हो जाते हैं जो एक ओर तो सत्ता के भूखे हैं, दूसरी ओर कुछ लोग उन बाहरी सत्ताओं के हाथों में बिक जाते हैं कि जो हमारे इसइ देश को एक समन्यवादी जनतंत्र के रूप में फलता-फूलता और सफलत नहीं देखना चाहते। ये दोनों प्रकार के लोग बाहरी तत्वों से धन और उकसावा पाकर अकसर यहां सांप्रदायिक विष घोलते रहते हैं, जिसके प्रभाव से बेचारे निर्दोष और भोले-भाले लोग मरते रहते हैं। इनसे बचाव बहुत आवश्यक है। नहीं तो हमारी स्वतंत्रता खतरे में पड़ जाएगी।
संसार का कोई भी सच्चा और महान धर्म यह नहीं सिखाता कि जहां रहते हो, जिस धरती का अन्न-जल खाते-पीते हो, उसके प्रति विद्वेष या किसी भी प्रकार की हीनता का भाव रखो। सभी महान धर्म, संप्रदाय और उनके प्रवर्तक अपने-अपने विश्वासों को पालते हुए भी सभी धर्मों, संप्रदायों के लोगों के प्रति समानता, सहिष्णुता बनाए रखने की शिक्षा देते हैं। कुछ धार्मिंग पंथ या संप्रदाय तो बने ही मानवता की सेवा या विशेष धर्मों की रक्षा के लिए थे पर सत्ता की भूख, अपने को अलग, विशिष्ट और महान समझने की भूल वस्तुत: अच्छे लोगों को भी भडक़ाकर गुमराह कर दिया करती है। सत्ता के भूखे कुछ राजनीतिक लोग जब धार्मिक बाने पहन या ओढक़र धर्म-स्थलों और धार्मिक भावनाओं को अपवित्र करने लगते हैं, सांप्रदायिक भेदभाव भडक़ाने लगते हैं, तब उस सबका प्रभाव विषवत ही हुआ करता है, अनुभव बताते हैं और यह बात कई बार स्पष्ट भी हो चुकी है। इस विष से बचने में ही सारी मानवता की भलाई है। अपना धर्म और राष्ट्र भी तभी ही बचे रह सकते हैं।
जीवन के हर क्षेत्र में समन्वयय पर विश्वास करने वाला भारत जैसा देश, जिसका संविधान सभी धर्मों, समुदायों को फलने-फूलने का समान अवसर प्रदान करता है, यदि वहां सांप्रदायिकता फलती-फूलती है, तो इसे घोर लज्जा का विषय ही कहा जाएगा। अत: किसी भी तुच्छ स्वार्थ या प्रभाव से प्रेरित होकर यहां की शांति ओर सांप्रदायिक सौहार्द को भंग करने की चेष्टा नहीं की जानी चाहिए।
प्रत्येक भारतीय जो अपने को मनुष्य समझता है, वहशी और जंगली नहीं है, उन सबका यह कर्तव्य हो जाता है कि उन नारों को सिर ही न उठाने दे कि जो सांप्रदायिक विष उगलने वाले हैं। यदि वे सिर उठाने की चेष्टा भी करें, तो उन्हें वहीं पर बेरहमी से कुचल दिया जाए। धर्म और संप्रदाय को मानवा का शत्रु नहीं मित्र और रक्षक मानकर विकसित होने दिया जाए। इसी में देश, राष्ट्र और सभी राष्ट्रवासियों के साथ-साथ मानवता की भी भलाई है। हमारे महान परंपराओं वाले देश का गौरव भी इसी में निहीत है और बना रहकर विश्व की अगुवाई कर सकता है। अपने इस स्वरूप को बनाए रखना उतना ही आवश्यक है, जितना अपने व्यक्तित्व एंव अस्तित्व की।
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