Hindi Essay on “Goswami Tulsidas” , ”गोस्वामी तुलसीदास” Complete Hindi Essay for Class 9, Class 10, Class 12 and Graduation and other classes.
गोस्वामी तुलसीदास
Goswami Tulsidas
मध्यकालीन (संवत 1375-1700 तक) सगुणवादी भक्ति-आंदोलन के साधक कवियों में अपनी चहुंमुखी काव्य प्रतिभा के बल पर ‘लोक नायक’ जैसा महत्वपूर्ण पद प्राप्त करने वाले गास्वामी तुलसीदास का जन्म बांदा जिले के राजापुर नामक गांव में संवत 1589 में हुआ माना जाता है। पिता का नाम पं. आत्माराम दूबे और माता का नाम हुजसी था। कहा जाता है कि अभुक्त मूल नामक कुनक्षत्र में जन्म लेने के कारण पिता ने जन्म लेते ही इनका परित्याग कर दिया था। तब मुनिया या मुलिया नामक एक दासी ने अपनी वृद्धा सास की सहयता से इनका पालन-पोषण किया। दैवयोग से उनकी भी मृत्यु हो गई। तब बेसहारा भटकते बालक ‘राम बोला’ (जन्म नाम) को सूकर क्षेत्र के संत बाबा नरहरिदास ने सहारा दिया। रामकथा तो सुनाई, आरंभिक शिक्षा भी दी। बाद में काशी के तत्कालीन प्रसिद्ध विद्वान शेष सनातन की पाठशाला में पहुंचा दिया। वहां से तुलसीदास शास्त्री बनकर अपने गांव लौटे। गंगा-पार के गांववासी प्रसिद्ध ज्योतिष्ज्ञी पंडित दीनबंधु पाठक की विदुषी बेटी ‘रत्नावली‘’ से विवाह किया। एक पुत्र भी हुआ पर जीवित न बचा। कहा जाता है कि आजीवन प्रेम के लिए तरसते रहने वाले तुलसीदास पत्नी से बहुत प्रेम करते थे। एक बार जब इनकी अनुपस्थिति में वह अपने चचेरे भाई के साथ मायके चली गई त, तो वर्षा में भीगते तुलसीदास भी पीछे-पीछे वहीं जा पहुंचे। उसने इस कार्य को मर्यादाहीन, मोह-ममता मानकर द्वार पर ही वह फटकार बताई कि इनकी आंखे खुल गई। यहां से उन्हहीं कदमों पर ज्यों चले, फिर कभी पीछे मुडक़र नहीं देखा। राम-भक्ति में निरंतर आगे ही आगे बढ़ते गए।
इन्हें गोस्वामी क्यों कहा जाता है, इस बारे में प्रसिद्ध है कि इन्होंने कृष्णभक्तों के एक वैष्णव मठ में रहकर कुछ समय तक भक्ति सेवा की थी, अत: तब से इनके नाम के आगे ‘गोसाई’ या ‘गोस्वामी’ भी जुड़ गया। आज यह गोस्वामी तुलसीदास के नाम से ही जाने-माने जाते हैं। कहा जाता है कि इन्होंने अंतिम समय में अपनी पत्नी रत्नावली को दर्शन देकर उसकी इच्छा पूरी की थी। उसका अंतिम संस्कार भी स्वंय किया था। यद्यपि यह अयोध्या में भी काफी समय रहे, पर इनका अधिकांश समय काशी में व्यतीत हुआ। यहां केवल महाकवि होने के नाते ही नहीं, लोक-सेवा के माध्यम से भी उन्होंने बहुत नाम-यश पाया। काशी में रामलीला की परंपरा आरंभ की, जो आज भी प्रचलित है। इनका स्वर्गवास भी संवत 1680 में काशी में ही असी-गंगा के तट पर हुआ था।
इनकी बारह प्रमाणिक रचनाओं के नाम है- दोहावली, कवितावली, गीतावली, श्रीकृष्ण गीतावली, विनय पत्रिका, रामचरितमानस, रामलला नहछू, वैराज्य संदीपनी, बरसै रामायण, पार्वती मंगल, जानकी मंगल, रामाज्ञा प्रश्न। इनमें सर्वाधिक प्रसिद्ध, प्रचलित, महत्वपूर्ण और जन-जन में कंठहारा है ‘रामचरितमानस’। यह भगवान श्रीराम के जीवन पर आधारित एक महाकाव्य है। रामकथा के माध्यम से कवि ने इसमें समस्द वेद-शास्त्रों का सार, भारतीय सभ्यता-संस्कृति का महत्व आदि भी संचित कर दिया है। ‘दोहावली’ में भक्ति-नीति, नाम-राम-महिमा का वर्णन है। ‘पार्वती मंगल’ में शिव-पार्वती-विवाह का ओर ‘श्रीकृष्ण गीतावली’ में भगवान श्रीकृष्ण की महिमा का गायन है। शेष सभी रचनाओं में विभिन्न कोणों से, विभिन्न शैलियों में राम की महिमा ही गाई गई है। इससे सिद्ध होता है कि तुलसीदास सबसे पहले अपने को रामभक्त और बाद में कुछ अन्य मानते थे। उनकी कविता का सार्थकता भक्ति में तो है ही, समाज-सुधार और सांस्कृतिम दृष्टि से भी बहुत है।
तुलसीदास जी का समन्वयवादी कवि माना जाता है। उन्होंने भक्ति-कर्म-ज्ञान-वैष्ण-शैव-शक्ति आदि मतों में समन्वय का सफल प्रयत्न तो किया ही, पूर्व और समकालीन प्रचलित काव्य-शक्तियों को भी अपनाकर समन्वयवादी दृष्टि का परिचय दिया। यहां तक कि मुख्य भाष अवधी होते हु भी ‘कवितावली’, ‘गीतावली’ आदि काव्य ब्रजभाशा में रचकर भाषा के क्षेत्र में भी समन्वय किया। इस प्रकार समनवय ही कविवर तुलसीदास और इनके कारण सारे भक्ति-काव्य की प्रमुख विशेषता मानी गई है। घर-परिवार, धर्म-समाज, राजनीति आदि सभी क्षेत्रों में जनता का मार्ग-दर्शन करने के कारण उन्होंने सहज ही लोकनायक का पद भी प्राप्त कर लिया। जीवन का कोई भी कोना उनकी काव्य-प्रतिभा की पहुंच से अछूता न रहा। अपनी इस विशेषता के कारण ही विश्व साहित्य में तुलसीदास महान हैं और आज तक विश्व का कोई भी कवि उनके स्थान-महत्व तक नहीं पहुंच सका। उनके व्यक्तित्व एंव कृतित्व की सामयिकता तो असंदिज्ध है ही, वस्तुत: उनका महत्व सार्वजनीन सार्वकालिक है। उन्हें हिंदी काव्य का ‘शशि’ कहा गया है, जबकि कहा जाना चाहिए-सूर्य।