Hindi Essay on “विरह प्रेम की जागृति गति है और सुषुप्ति मिलन है” Complete Hindi Nibandh for Class 10, Class 12 and Graduation and other classes.
विरह प्रेम की जागृति गति है और सुषुप्ति मिलन है
प्रस्तावना : मनुष्य भावनाओं का पुतला है। इनमें सबसे महत्त्वपूर्ण भावना है प्रेम। प्रेम के दो पक्ष हैं 1. संयोग पक्ष, 2. वियोग पक्ष। जिस पक्ष में प्रियतम और प्रियतमा एक साथ और अनुकूल मनोवृत्ति से रहते हैं, वह है प्रेम का संयोग पक्ष इसमें प्रियतम और प्रेयसी का मिलन होता है और जिसमें प्रियतम और प्रेयसी का विछोह रहता है, वह है प्रेम का वियोग पक्ष। यह वियोग देह तथा मन दोनों से ही संबंधित हो सकता है, जिसमें मन की ही सत्ता का विशेष महत्त्व है। इसकी ही स्मृति प्रवणता के हेतु विरह प्रेम की जागृति गति कहलाता है और मिलन को सुषुप्ति कहा गया है।
काव्योक्ति का वास्तविक तात्पर्य : काव्योक्ति का वास्तविक तात्पर्य यह हुआ कि विरह की स्थिति में प्रेम हृदय और मन को परे तौर पर घेरे रहता है। इस स्थिति में दोनों देह अथवा मन से किसी कारणवश पृथक् रहते हैं; पर उनमें प्रेम के कारण आन्तरिक सम्बन्ध बना रहता है और वे इच्छा न रखते हुए भी एक दूसरे को बराबर याद करते रहते हैं। दोनों हृदयों में प्रेम का स्रोत बहता रहता है। इस तरह विरहावस्था में प्रेम जागृति गति में रहता है और सुषुप्ति में, मिलन की स्थिति में दोनों एक साथ वास करते हैं। अत: उनमें हास-परिहास विचार विनिमय और प्रणय वार्ता का क्रम इतना लम्बा होता है कि उन्हें प्रेम का अनुभव ही नहीं हो पाता । ऐसी स्थिति में प्रेम का रंग अल्प समय के बाद ही मद्धम पड़ जाता है। सदैव साथ रहने से उनमें अन्य भावना आ जाती है और एक दूसरे का महत्त्व कछ कम होता जाता है। उनमें प्रेम का अंकुर सुप्तावस्था में ही मौजूद रहता है। अतः मिलन को प्रेम की सुषुप्ति कहा गया है।
व्याख्या : प्रेम मानवी हृदय की वह वृत्ति है जो इच्छित मानव के प्रति एक तरह का आकर्षण पैदा करती है। प्रेम में प्रियतम के लिये एक तरह की चाह होती है। प्रियतम के मन में प्रेयसी के संग रहने तथा उस पर पूर्णतया अधिकार पाने का लोभ रहता है। इसके साथ ही उसकी यह लालसा बनी रहती है कि उसकी प्रेयसी भी उससे उसी तरह प्रेम करे, जिस तरह वह करता है। इस प्रकार प्रेम दोनों के हृदय में उमड़ता है। वह प्रतिदिन उसका इच्छुक रहता है इसका प्रभाव दोनों ओर समानुपात में पड़ता है। प्रेम पूर्ण रूप से अनुभूति प्रधान भावना है। इसकी तीव्रता के साथ ही हृदय की बेचैनी बढ़ती है। इसमें एकान्त अपेक्षित है। इसमें दोनों एक दूसरे को सुखी रखने की चेष्टा में रहते हैं और अनिष्ट की आशंका से सदैव बचना चाहते हैं। सच्चे प्रेम की मुख्यत: पहचान यह है कि वह वियोग में बढ़ता ही जाता है और पुनर्मिलन पर नया रूप धारण कर लेता है। यदि प्रेम क्षणिक अथवा स्वार्थमय है, तो वह सच्चे प्रेम की परिभाषा में कदापि नहीं आ सकता है। वियोग पक्ष में प्रेम तत्त्व किसी-न-किसी रूप में सक्रिय रहता है और मिलनावस्था में वे तत्त्व अधिकतर सुप्तावस्था में रहते हैं। मिलनावस्था लौकिक कार्यक्रमों में ही हम इतने लीन रहते हैं कि मशीनवत् कालक्षय करते चले जाते हैं। इसलिए प्रेम की सुषुप्ति बनी रहती है।
प्रमाण के रूप में देखा जाए, तो विश्व साहित्य का अधिकांश भाग विरह गाथाओं से पूर्ण है। वियोग श्रृंगार पर बहुत कुछ लिखा गया है। वियोग का सम्बन्ध वेदनापूर्ण भावनाओं से है। इनमें अनुभूतियाँ तीव्र हो उठती हैं और सहानुभूति में व्यापकता छा जाती है। महाकवि भवभूति के कथनानुसार करुण रस ही प्रधान रस है और अन्य रस इनके भेद के निमित्त आते हैं। विरहावस्था में करुणा ही निराशा की जगह मिलन की सम्भावना अधिक रहती है; किन्तु वास्तविकता यह है कि प्रेम की जागृति और सुषुप्ति ये दोनों अवस्थाएँ श्रृंगार में मिलती हैं। श्रृंगार के ही दोनों पक्ष हैं, विरह और मिलन।
प्रभाव : कवियों ने विरह को ही अधिक महत्त्व दिया है। विश्व के हर साहित्य में संयोग की अपेक्षा वियोग की महत्ता दर्शायी गई है। भगवद्गीता में विरह का प्रसंग अधिक है। रामायण भी राम-सीता के विरह वर्णन से भरपूर है। महाकवि कालिदास, हर्ष, सूर, तुलसी, जायसी, बिहारी और देव आदि, कवियों की लेखनी विरह के क्षेत्र में द्रुतगति से चली है। विरह में प्रेम का स्वच्छ रूप दृष्टिगत होता है। इसमें भावनाएँ। जागृतावस्था में रहती हैं और प्रेम बढ़ता ही चला जाता है। इसके अतिरिक्त प्रेम अपने विविध रूपों में सम्मुख आता है और संयोग की घटनाएँ विरह में नया रूप धारण करके स्मृति की राह में लगातार आती रहती हैं। इस तरह विरह में प्रेम लगातार जागृतावस्था में रहता है।
उपसंहार : मिलन का वर्णन कवियों ने बहुत थोड़ा ही किया है। जो इस सम्बन्ध में किया गया है, उनमें अधिकांश रूप में एकरूपता बनी रही है। भावनाओं का विकास सीमित अवस्था में हुआ है। होली और रास लीला का उल्लेख इसी प्रसंग में किया गया है। इस अवस्था में प्रेम का रूप शांत-सा हो जाता है। इसमें प्रेम की विविधता दृष्टिगत नहीं होती । वियोगावस्था में प्रेम जाग्रत हो जाता है। जैसे :
बसा मोरि नचाय दृग री कका की सौंह ।
काँटे सी कस कति हिए, बड़ी कटीली भौंह ।
मिलन में प्रेम का जाग्रत रूप दृष्टिगत नहीं होता है; क्योंकि इसमें भावनात्मक अनुभूति कम है। इसलिए प्रेम की सुप्तावस्था ही मिलन में विद्यमान रहती है।