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Bhartiya Samvidhan ki Punarsanrachna “भारतीय संविधान की पुनर्संरचना” Hindi Essay 2000 Words for Class 10, 12.

भारतीय संविधान की पुनर्संरचना

Bhartiya Samvidhan ki Punarsanrachna

26 जनवरी 1950 को हमारे राष्ट्र में जिस संविधान को लागू किया गया था, वर्तमान बदलती अंतर्राष्ट्रीय स्थिति में उसमें कहीं न कहीं परिवर्तन करना अनिवार्य हो गया है। संविधान को सामान्यतः विधि सम्मत प्रभुतासम्पन्न राज्य की प्रक्रियाओं को सुनिश्चित करने के लिए लिखित प्रमाणों एवं अलिखित प्रमाणों वाले वादयोग्य राष्ट्रीय ढाँचे के समूह के रूप में परिभाषित किया जाता है। हमारे देश का संविधान भारत का मौलिक एवं सर्वोच्च कानून है जो हमारे देश के अन्य सभी कानूनों के लिए स्थायी पृष्ठभूमि का निर्माण करता है। यह इसके निर्माताओं द्वारा विचारित दृष्टिकोण और मूल्यों को निरूपित करता है और यह सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक प्रकृति के साथ-साथ लोगों की आस्था और आकांक्षा को प्रस्तुत करता है। यह उन सिद्धांतों एवं प्रक्रियाओं को निर्धारित करता है जो प्रभुतासम्पन्न राज्य के प्रशासन में मौलिक माने जाते हैं। यह इसकी आधारभूत संरचना है जो राज्य और इसके अंगों की शक्तियों के साथ-साथ नागरिकों के अधिकारों एवं कर्त्तव्यों को परिभाषित करता है।

वर्तमान में भारतीय संविधान इस अर्थ में अनोखा है कि यह अन्य सभी प्रशासनिक रचनाओं से भिन्न है। भारत का संविधान 1946 में कैबिनेट मिशन योजना के तहत गठित संविधान सभा द्वारा अधिनियमित किया गया। यह लगभग 389 सदस्यों की बौद्धिक उपज था, किंतु भारतीय संविधान की सर्वाधिक दुर्भाग्यपूर्ण बात यह है कि यह पूर्णतः भारतीय नहीं है, क्योंकि हमारे संविधान के निर्माताओं ने विश्व के विभिन्न कोनों से विभिन्न मत लिए थे, कुछ विद्वानों ने इसे उधार का थैला कहा तो कुछ ने कैंची, कागज तथा गोंद का खिलवाड़ कहा। भारतीय संविधान का मुख्य स्रोत भारत सरकार अधिनियम, 1935 और ब्रिटेन, अमरीका, कनाडा तथा आयरलैंड का संविधान है। इस प्रकार यह संविधान के प्रारूपण के समय प्रचलित विभिन्न ‘वादों’ का संकलन मात्र है। इसी कारण इसमें बार-बार संशोधन करना पड़ता है। अब उधार लिए गए ये मत भारतीय परिस्थितियों में असंगत हो गए हैं। हालांकि, हमारे संविधान-निर्माता महान थे किंतु यह भी ऐतिहासिक तथ्य है कि वे इसे ‘भारतीय स्वरूप’ देने में पूरी तरह सफल नहीं हो सके।

राजनीतिक सिद्धांत का तुलनात्मक अध्ययन भी कहता है कि संविधान के प्रारूपण के समय सामाजिक-आर्थिक स्थितियाँ वर्तमान स्थितियों से बिल्कुल भिन्न थी। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद की स्थितियों ने हमारे संविधान की प्राथमिकताओं के निधारण को प्रभावित किया। इसके अतिरिक्त उस समय राजनीतिक स्थायित्त्व अधिक था और सम्पूर्ण भारतीय राजनीतिक परिदृश्य में एकमात्र पार्टी, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का शासन था। हमारे संविधान के अधिकांश निर्माता कांग्रेसी थे। अतः, हमारे संविधान में कांग्रेस की अधिकांश बातें शामिल होना स्वाभाविक था। इसी विचारधारा के कारण यह संविधान कांग्रेस पार्टी का गौरवपूर्ण घोषणापत्र बन गया है। परिवर्तित सामाजिक-आर्थिक और राजनीतिक परिस्थितियों के कारण हमारा वर्तमान संविधान निष्प्रभावी हो गया और यह उत्पन्न समस्याओं के समाधान में प्रायः असफल हो गया। संविधान के निर्माताओं ने वर्तमान समाज को पंगु बनाने वाली समस्याओं के बारे में सोचा तक नहीं था।

सर्वप्रथम, संविधान का अनुच्छेद 356 एक ऐसा प्रावधान है जिसका केंद्र द्वारा निर्वाचित राज्य सरकारों को बर्खास्त करने के लिए सैकड़ों बार इसके उपयोग के साथ-साथ इसकी प्रक्रिया में विभिन्न विसंगतियाँ भी रहीं। यह बात ध्यान देने योग्य है कि केंद्र सरकार ने एक बार भी उस राज्य सरकार को बर्खास्त नहीं किया जहाँ उसकी पार्टी सत्ता में थी। 1997 और 1998 में भारत के राष्ट्रपति, के.आर. नारायणन ने केंद्रीय मंत्रिमंडल की सिफारिशों को दो बार अस्वीकृत कर दिया यद्यपि विभिन्न पार्टियाँ उत्तर प्रदेश और बिहार में अनुच्छेद 356 लागू करने के पक्ष में थीं और दोनों अवसरों पर केंद्र विपक्षी पार्टी की राज्य सरकार को बर्खास्त करना चाहती थी। इसलिए, देश में आम राय है कि अनुच्छेद 356 को पूर्णतः संशोधित किया जाए या पूर्णरूप से निरस्त कर दिया जाए ताकि राजव्यवस्था का संचालन सही तरीके से हो सके।

दूसरे, राज्य के राज्यपाल का पद भारत के राष्ट्रपति के पद की तरह काफी प्रतिष्ठित है। यह पद राजनीति के गंदे जल में गिर गया है और इसने लोगों की नजरों में इसकी मर्यादा समाप्त करने में सहायता प्रदान की है। राज्यपालों की नियुक्ति केंद्र सरकार की सलाह पर राष्ट्रपति द्वारा किया जाता है, जिस प्रावधान का दुरुपयोग केंद्र सरकार अपने इशारों पर नाचने वाले चापलूसों की नियुक्ति के रूप में हमेशा करते हैं।

इस प्रकार इससे एक उपहासपूर्ण संघीय प्रजातांत्रिक राजनीति का निर्माण होता है। भारत में अधिकांश राज्यपालों ने संघीय व्यवस्था में प्रजातांत्रिक राज्य सरकारों के प्रधान होने के बजाय केंद्र सरकार के एजेंट के रूप में काम किया है। इसका कारण यह है कि ये अपनी मेधा से नहीं बल्कि केंद्र के शासकों के साथ राजनीतिक सम्पर्क के कारण उस अधिकार और धन वाले प्रतिष्ठित पद पर पहुँचते हैं। इसलिए, देश में आम राय है कि राज्यपालों की नियुक्ति की प्रक्रिया बदली जानी चाहिए और राज्यपाल भारत के राष्ट्रपति के निर्वाचन के लिए अपनाई गई समान प्रक्रिया द्वारा निर्वाचित होने चाहिए। ऐसे संशोधन से लोगों की नजरों में राज्य के राज्यपालों के लिए सम्मान बहाल होने में मदद मिलेगी। ऐसे कदम से राज्य के राजनीतिक मामलों में राज्यपाल की भागीदारी पर निष्पक्षता और वास्तविकता सुनिश्चित होने से दूरगामी प्रभाव पड़ेंगे।

अभी अन्य महत्त्वपूर्ण समस्या सांसदों एवं विधायकों के दल-बदल से संबंधित है जिसे दल-बदल खतरा कहा जाता है जिससे लोकतंत्र के प्रति जनता की भावनाओं को ठेस पहुँचती है। इस खतरे पर नियंत्रण के लिए तात्कालिक प्रधानमंत्री राजीव गाँधी द्वारा संविधान (बावनवां संशोधन) अधिनियम, 1985 के रूप में दल-बदल विरोधी कानून लागू किया गया। इसके बावजूद वास्तविक व्यवहार में यह उपचार रोग से भी अधिक बदतर हो गया। इस कानून में यह प्रावधान है कि यदि सदस्य उस राजनीतिक पार्टी से त्यागपत्र दे देता है जिसके टिकट पर वह निर्वाचित हुआ है तो संसद या राज्य विधान सभा से उसकी सदस्यता समाप्त हो जाएगी, किंतु वही सदस्य यदि अपनी पार्टी के एक-तिहाई सदस्यों के साथ पार्टी से अलग हो जाता है तो दल-बदल विरोधी कानून उसे प्रभावित नहीं करेगा या त्यागपत्र देने के लिए बाध्य नहीं करेगा।

इसी तरह, यदि किसी पार्टी के एक-तिहाई सदस्य किसी अन्य पार्टी में मिल जाते हैं तो दल-बदल विरोधी कानून उनके सामूहिक दल-बदल पर लागू नहीं होगा। समय की माँग है कि दल-बदल विरोधी कानून में इस प्रकार संशोधन होना चाहिए कि यदि किसी विशेष पार्टी की टिकट पर निर्वाचित सांसद या विधायक अपनी पार्टी छोड़ना चाहता है तो उसे सबसे पहले अपनी सदस्यता से त्यागपत्र देना चाहिए और इसके बाद जिस पार्टी में वह शामिल हुआ है उसकी टिकट पर पुननिर्वाचित होना चाहिए। इस प्रकार की गतिविधियों के कारण सांसद व विधायक भी कोरी स्वार्थपरता के कारण सत्ता पक्ष में चले जाते है, जिससे जनता को वह सरकार नहीं मिल पाती, जिसका वह चुनाव करना चाहती है। दल-बदल के लिए मंत्रिस्तरीय पद और करोड़ों रुपए नकद से वे पुरस्कृत होते हैं और संबंधित सदन में दलगत स्थिति को बाधित करते है। कुख्यात झारखंड मुक्ति मोर्चा मुकदमा यह प्रदर्शित करता है कि हमारे राजनीतिक नेताओं के मूल्य एवं लोकाचार किस हद तक गिर सकते हैं और ये संदेहास्पद साधनों द्वारा सत्ता या बड़ी धनराशि प्राप्त करने के लिए किस हद तक झुक सकते हैं। उत्तर-पूर्व के राज्यों में सत्ता के दल-बदल का खेल तो बहुत ही घिनौना रूप धारण कर चुका है। ऐसे अपराधों के विरुद्ध कुछ कानूनी एवं संवैधानिक उपाय किए जाने चाहिए।

इसके लिए यह भी सुनिश्चित करना अत्यावश्यक है कि जिन राजनीतिज्ञों के विरुद्ध न्यायालय में अपराधिक मुकदमे लंबित हैं या जिनके विरुद्ध आरोप-पत्र दाखिल हैं और जिनकी पृष्ठभूमि अपराधिक है, उनके चुनाव लड़ने पर चुनाव आयोग को रोक लगाना चाहिए ताकि ऐसे तत्त्वों को सक्रिय राजनीति में प्रवेश से रोका जा सके। सम्मानित सदस्यों द्वारा दृश्य को रोकने के लिए सांसदों एवं विधायकों के लिए आचार संहिता बनाना आवश्यक है। 1997 में उत्तर प्रदेश विधानसभा की एक ऐसी ही घटना में कई सदस्य और वरिष्ठ मंत्री घायल हो गए थे। इसकी याद अभी तक जनसाधारण के दिमाग में ताजी है। राज्य सभा जिसे भद्रजन की सभा कहा जाता है वहां भी अब अशिष्ट आचरण आम बात हो गयी है। पूर्व उप सभापति शंकर दयाल शर्मा के साथ सत्ताधारी राज्य सभा सांसदों ने इतना अशिष्ट आचरण किया था कि वे सदन में ही विलाप करने लगे। यह भी आवश्यक है कि संविधान की मूलभूत विशेषताओं को समुचित परिभाषित किया जाए ताकि जनसाधारण के दिमाग से किसी भी तरह का संदेह दूर हो।

वर्तमान समय में विभिन्न प्रकार की नीतियों तथा उनके क्रियान्वयन के कारण राष्ट्र में गठबंधन सरकार के गठन की उम्मीद अधिक रहती है। कई छोटी पार्टियाँ बड़ी पार्टी से बिना शर्त समर्थन के वादों के साथ गठबंधन सरकार बनाती है। इसके बाद कुछ वास्तविक या काल्पनिक शिकायतें सहयोगी पार्टी की ओर से की जाती हैं। और मामला अचानक प्रतिष्ठा का बन जाता है, बिना शर्त समर्थन वापस ले लिए जाते हैं और सरकार गिरा दी जाती है जिसके फलस्वरूप मध्यावधि चुनाव होता है। पुनः त्रिशंकु संसद का गठन होता है और वही पुराना खेल नए तरीके से शुरू हो जाता है इसका प्रभाव आर्थिक क्षेत्र पर पड़ता है। यह आश्चर्य है कि कोई भी गठबंधन सरकार अपने पाँच वर्ष के कार्यकाल को पूरा करने के लिए किसी भी हद तक जा सकती है। यह महसूस किया जाता है कि यदि अल्पमत के बावजूद सरकार बनाने के लिए सबसे बड़ी पार्टी को आमंत्रित करने और पाँच वर्षों के पूरे कार्यकाल तक चलने देने के प्रावधान को प्रभावी बनाया जाए तो राजनीतिज्ञों द्वारा भारतीय लोकतंत्र को उपहास बनाए जाने से रोका जा सकता है।

संविधान में अन्य और मूलभूत त्रुटि यह है कि यह देश में कहीं भी वास्तविक प्रतिनिधि सरकार सुनिश्चित नहीं करती है। चुनाव का गणित यह है कि कुछ स्थितियों में मात्र 18 – 20% समर्थन वाली पार्टी भी देश पर शासन कर सकती है। आरक्षण जिसे प्रारम्भ में दस वर्ष के लिए लागू किया गया था, उस आरक्षण में स्वार्थ निहित है और ठोस वोट बैंक है। निकट भविष्य में किसी प्रधानमंत्री में जाति पर आधारित आरक्षण को समाप्त करने का साहस नहीं दिखता है। विभिन्न प्रधानमंत्रियों ने पुनः आरक्षण बढ़ाकर और वैकल्पिक वोट बैंक का निर्माण कर इसे उदासीन करने का प्रयास किया है। विश्वनाथ प्रताप सिंह अन्य पिछड़े वर्ग के लिए 27 प्रतिशत आरक्षण लागू करने में सफल हो गए किंतु आने वाली सरकारें महिलाओं के लिए 33 प्रतिशत आरक्षण लागू करने में सफल नहीं हो सकी।

एक पूर्व राष्ट्रपति ने माना है कि सभी पहलुओं में सार्वजनिक जीवन और सार्वजनिक नैतिकता में मानदंडों के क्रमिक एवं संचयी हास पर विचार करके और पिछले पाँच दशकों में इसके कार्यों के अनुभव के परिप्रेक्ष्य में संविधान के प्रावधानों की समीक्षा करके राष्ट्रीय जीवन में सार्वजनिक राय बनाने का समय आ गया है। भाजपा की नेतृत्त्व वाली राष्ट्रीय प्रजातांत्रिक गठबंधन (राजग) सरकार के शासन के लिए राष्ट्रीय एजेंडे में 50 वर्षों के अनुभव के परिप्रेक्ष्य में संविधान की समीक्षा के लिए आयोग के गठन का प्रावधान भी है। संविधान का ऐसा पुनर्मूल्यांकन केवल न्यायसंगत ही नहीं बल्कि आवश्यक भी है। यह जितनी जल्दी किया जाए देश के लिए और देश की करोड़ों जनता के लिए उतना ही बेहतर होगा।

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